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चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

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चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

अधथोत चक्रवर्ती चंद्रगुप् द्वितीय विक्रमादित्य की जीवनी

लेखक

गंगाप्रसाद मेहता, एम्‌ ए०

इलाहाबाद हिंदुस्तानी एकेडेमी, यू० पी०

९८३२

एएएछा-+5छ्ष्ट० छर पृ'छ्रछ जाज्ावएछए5ा57४रा 0८५०८57४६४, पएए. 72., १.५ ए्ूञ 8470

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अस्तावना

अध्यापक गंगाप्रसाद मेहता जी ने गुप्तचक्रवर्ती चंद्रगुप्त ( द्वितीय ) विक्रमादित्य पर यह ग्रंथ बहुत अच्छा ओर बड़ी छानबीन के साथ लिखा है चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ऐसा बड़ा देशत्राता ओर स्वदेश-स्वधमें-भक्त हुआ कि उस का इतिहास घर घर में रहना चाहिए मेहता जी ने ओर प्रयाग हिंदुस्तानी एकेडेमी ने बहुत समुचित काम किया जो यह पुस्तिका देश भाषा में प्रस्तुत की गई

इस अनंत ओर सदाजीवी देश को यह प्रथा है कि देश को संकट से मुक्त कराने वाले राजा को देश विक्रमादित्य की पद्वोी देता है। यह प्रथा सं० अथोत्‌ इसबी सन्‌ से ५८ वर्ष पहले जारी हुईं सातवाहन बंशावतंस गोतमीपुत्र शातकर्शि ने नहपाण आदि शक राजाओं का उन्समू- लन कर धम को रक्षा की। गोतमीपुत्र महाराज शातकर्णि को देश ने विक्र- मादित्य के नाम से याद किया ओर आज तक इसी नाम से उस महानुभाव राजातिराज का यश गान करते हैं। फिर उस के वंशधर सातवाहन विष- मशील कुंतल शातकर्णि ने १३५ वष बाद करोढ़ के मैद्यन में जो लोनी ओर मुलतान के बीच है दुबारा शकों का संहार कनिष्क के पूर्वाधिकारी के समय में किया जिस का वणन गुणाह्य ने ओर उस के अनूदक कथासरित्सागर-कार ने किया है। उस शालवाहन या साडवाहन राजा को पुनरपि विक्रमादित्य की उपाधि उसी दिन मिली फिर भी मथुरा पंजाब आदि में शक कनिष्क-वंशधर जमे रहे ओर धर्म का लोप करते रहे इन का पराजय आभीर वंश ने पश्चिम में तथा दूसरे बंशों ने मध्य देश में किया ओर २५० ई० के लगभग बहुत से वर्णाश्रम के पोषक अर्थात्‌ हिंदूधमे के पुनरुत्थापक नए वंश उठ खड़े हुए। पर शकराज्य का पूर्ण उच्छेत्ता चंद्रगुप्त (द्वितीय ) गुप्तवंश वाले ही हुए। मेहता जी ने प्रथम वार इस को सिद्ध किया है कि महरौली ( दिल्ली ) का विष्णुस्तंभ

( )

( “लोहे की कौली” ) इन्हीं चंद्रगुप्त की कीत्ति का स्तंभ और उन्हीं को कृति है जिसे भक्तिपरायण महाराज ने श्री विष्णुभगवान के चरणों में अपित किया था| इस से यह साबित होता है कि चंद्रगुप्त ने आसमुद्र एकराज्य स्थापित किया ओर पंजाब ओर काबुल की नदियों को नांघ कर उन के सात मुख अर्थात्‌ शी्ष पार कर, बल्ख तक जा शक ( शए००ं ) का नाश किया बल्ख ही उन का आदिम ओर केंद्र देश था इस से बाह्नीक, उन के धर तक पहुँचा उन को दुरुस्त करना आवश्यक था। “सप्रसिन्धु” एक चक्र ( ?/०४7८० ) का नाम था यह नाम पारसीक भाषा में “हृप्त-हिंदु” है इस चक्र में बल्ख से पंजाब तक शामिल था ओर पंजाब लेते हुए बल्ख तक विजय करना आवश्यक था में एलन आदि विद्वानों की राय को श्रांत मानता हूँ जो यह कहते हैं कि सिंधु के मुहाने से हो कर च॑द्रगुप्त बलूचिस्तान पहुँचे जैसे दशमुख, षडानन, चतुमुंख शब्द हैं, वैसे हो सप्तमुख सिंधु नद कहा गया। यह नद-पुरुष सात-सिरों-बाला वर्शित किया गया पंजाब की पाँच नदियाँ काबुल नदी ओर कुनार नदी सातों नाध कर ही आदमी काबुल कपिशा होता हुआ बाह्लीक पहुँच सकता है महाकवि कालिदास जो इन्हीं विक्रमादित्य के समय में हुए ओर राजदूत बना कर दक्षिण ( कर्णाट ) के राजा कुंतलेश्वर के यहाँ भेजे गए थे, रघु का दिग्विजय वंक्ु नदी (आक्सस ) तक अथोत्‌ बल्ख ( 8५८४५७ ) तक बयान करते हैं। उन्हों ने श्लेष में महाराज चंद्रगुप्त के विजय का वर्णन रघु के नाम पर किया। इस विजय के बाद चंद्रगुप्त का अपने को विक्रमादित्य कहना उचित था

ऐसा बड़ा विजेता होता हुआ यह राजा परम वेष्णब था। एक अद्भुत लोह का स्तंभ उन्हों ने बनवाया जैसा आज भी युरप में बनाना मुश्किल है इस में मोचां नहीं लगता अब इसे अनंगपाल की कोली कहते हैं। इसे तोमरराज ने ला कर दिल्ली में विष्णु के मंदिर के सामने स्थापित किया पहले यह विष्णुपद्‌ पर पहाड़ी पर था। यह बिष्णुपद्‌ गया में नहीं दरिद्वार में था क्योंकि वही राजा अनंगपाल के राज्य में

( ३)

पड़ता है इस तरह के स्तंभ का वरणान शाद्र में “चंद्रकांत” है यह गोल और कमलशीषे है। चंद्र राज के नाम पर चंद्रकांत शेली का प्रयोग हुआ सब हिंदुओं को इस का दशन करना चाहिए। राजा चंद्र ( विक्र- मादित्य ) गुप्तवंशी का चरित देश-सेवा के कारण पुनीत हुआ उस का इतिहास पुनीत है, पाठ्य ओर श्रद्धेय है

देश-रक्षा के लिये उस समय हिंदुओं ने विष्णु भगवान्‌ को याद्‌ की | समुद्रगुप्त ओर चंद्रगुप्त बाप-बेटे दोनों विष्णु के अनन्य भक्त थे। समुद्र ने एरन ( सागर ओर मालवा के बीच ) अपने 'स्व-भोग-नगर में विष्णु की विशाल मूर्ति स्थापित की ।'* चंद्रगुप्त के धमे का ओर देश का उद्धार करने के उपलक्ष में उन के समसामयिक हिंदुओं ने विदिशा के उद्यगिरि पहाड़ में एक मूर्ति विष्णु की बनाई जो आजतक मोजूद है विष्णु प्रथ्वी की रक्षा वाराही तनु ले कर कर रहे हैं, वीर-मुद्रा में खड़े अपने दंत-कोटि से एक सुंदरी को उठाए हुए हैं ओर ऋषिगण स्तुति कर रहे हैं; सामने समुद्र है। यह मूर्ति गुहा-मंदिर के बाहर है। गुहा- मंदिर खाली है, उस के द्वार पर जय-विजय की प्रतिमाएँ अंकित हैं ओर आस पास गुप्तवंश के सिक्कों वाली मूर्तियाँ दुगां ओर लक्ष्मी जी को हैं। इस वराह-मूर्ति को “चंद्रगुप्ू-बराह” कहना चाहिए, क्योंकि यह मूर्ति विशाखदत्त के मुद्राराक्षस वाले भरत-वाक्य का चित्रण है। चंद्रगुप्त ने आर्यावते की रानी श्री धुवदेवी का उद्धार शक-स्लेच्छों से किया था और भारत-भूमि का उद्धार स्लेच्छों से किया था। विशाखदत्त कई अथवाले

सम्रुम्नगुप्त ने उस मृति पर अपनी रानी दक्त-देवी का प्रेम और आदर पूवेक वणन भी अंकित किया। उस ने कहा कि मैं इस चतिनी कुलवधू को सिवा अपने पोरुष-पराक्रम के और कुछ ब्याह्ठ के समय नहीं दे सका था--“पौरुष- पराक्रम दत्त शुल्का “' '““शह्दुपुत्रपोन्न--संक्रामिणी कुलवधु: च्तिनी निविष्टा!।

--फू्लीट, गुप्त-शिक्ाकेख, सं० २।

( ४)

श्लोक लिखते थे, यह “देवीचंद्रगुप्त! नाटक से सिद्ध है। उन का भरत- वाक्य यह हे-- वाराषह्टीमात्मयोनेस्तनुमवनविधावस्थितस्यानुरूपाम यस्य प्राग्दंतकोटि प्रलढयपरिगता शिक्षिये भ्रूतधात्री सलेचछरुद्विज्यमाना भ्रुजयुगमघुना संश्रिता राजमूुर्ते: श्रीमद्बंधु भ्ृत्यश्चिरमवतु महीं पाथिवरचंद्रगुप्तः इस में कवि ने ( अधुना” ) वतंमान चंद्रगुप्त ( जिस का अथे विष्णु होता है, चंद्र>स्वणं, चंद्रगुप्त--हिरण्यगर्भ ) राजा की विष्णु से तुलना की जैसे विष्णु ने इस प्रथ्वी का उद्धार म्लेच्छ ( असुर ) से किया उसी प्रकार दंत-कोटि शस्त्र से मार कर स्लेच्छ से चंद्रग॒ुप्त पार्थिव ने भारत-भूमि ओर ध्रुव ( प्रथ्वी ) देवी का उद्धार किया। दोनों को रूप बदलना पड़ा था। चंद्रगुप्त ने शक्ति ( ध्रवदेवी ) का रूप पकड़ा ओर विष्णु ने शूकरी-तनु धारण किया अथोत्‌ रक्षण-कार्य में ( अवनविधो ) अयोग्य पर ज़रूरी रूप घारण करना पड़ा हिंदुओं ने विष्णु-मत--विष्णु-भक्ति-ढ़ारा तो भारत की मुक्ति ३५०- ३८० ईे० में संपादित की, बुद्ध भगवान्‌ जो युद्ध के विरुद्ध थे, उन का त्याग कर हिंदुओं ने विष्णु का सहारा पकड़ा | वे ही राज्य-रक्षण के देवता हैं; उन्हीं राजनेतिक देव को इप माना गया। यही गुप्त-काल की सिद्धि का रहस्य है गुप्तों का वणन लखनी को पवित्र करता है। नहीं तो कहाँ 'गुप्तान्व- यानां गुणतोयधीनाम” ओर कहाँ छुद्र ऐतिहासिक

काशीप्रसाद जायसवाल

भूमिका

गुप्नन्बंश के अभ्युदय-काल को प्राचीन भारतवष के इतिहास का 'सुबणे-युग” मानना सबंथा संगत है। इस युग में हमारा देश विदेशीय जातियों की चिरकालीन पराधीनता से स्वाधीन हुआ उस में “आसमुद्र” हिंदू-साम्राज्य को स्थापना हुई और उस को प्राचीन आये-संस्क्रति के अंग- प्रत्यंग में फिर से नये जीवन का संचार हुआ अपने ही शब्द्वारा रक्षित राष्ट्र में 'शास्तर-चिन्ता” प्रवृत्त हुई--विद्या, कला ओर विज्ञान के विविध विकास और विलास की अविरल धारा प्रवाहित हुईं | भारत के प्राक्तन “धर्म का प्राचीर बाँधा गया'--उस की मर्यादा स्थापित की गई। आये-धम के उत्थान के साथ साथ भारत के प्राचीन संस्क्रत वाडममय की भी इस युग में अपूब श्रीवृद्धि हुईं। उस में अनेक काव्य, नाटक, शास्र ओर दर्शन रचे गए। उस युग की उत्सर्पिणी क्षमता, आशा ओर महत्वा- कांक्षा के, उस की उन्मेषशालिनी प्रतिभा के, प्रकट करनेवाले कविता- कामिनी-कांत कविवर कालिदास की कमनीय क्ृतियों की स्टि गुप्त- सम्राटों की छत्र-छाया में हुईं। वह महाकवि अपने देश-काल की भव्य घटनाओं का चतुर चित्रकार था। उस की प्रखर प्रज्ञा, अपूब कल्पना- शक्ति, अलोकिक वाग्विभव, गंभीर पांडित्य में उस के ही समकालीन ओजस्वी युग का जीवन, जाग्रूति, स्फूर्ति ओर चैतन्य स्पष्ट ऋलकता है वास्तव में वह इ० स० के पाँचवें शतक के '्रबुद्ध भारत” का परमाराध्य प्रतिनिधि ओर विदग्ध वक्ता था। उस की अजर, अमर कृतियों में हमें गुप्त-युग की गौरव-गरिमा का प्रत्यक्ष निद्शन मिलता है।

कालिदास के समय का '्रबुद्ध भारत” केसे जगा ओर किसने जगाया ? क्‍या वह किसी वाह्य अथवा दैवी शक्ति से प्रेरित किया गया, अथवा अपने ही किन्हीं सुपुत्रों के पोरुष और पराक्रम के बल पर उठ खड़ा हुआ ? इतिहास के इन जटिल प्रश्नों का करना तो सरल है किंतु

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उन का हल करना अतीव कठिन है इतिहास के शनुशीलन की अनेक शैलियाँ हैं कुछ विद्वानों की धारणा है कि इतिहास को महापुरुषों का जीवनचरित समझ कर उस पर मनन करना चाहिए, क्योंकि वे दी अपने देश के भाग्य-विधाता ओर उन्नति-पथ के प्रद्शक होते हैं ओर वे जैसा करते हें वेसा लोग करने लग पड़ते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में ठीक कहा है-- 'यहादा चरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरोजन: यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदन्नुवत्तते ॥?

अतएव, जिन प्रतापशाली पुरुषों के जन्म ओर कमे से उन के देश का कायापलट हुआ हो, जिन के आचार-विचारों से लोक का ध्येय ओर प्रवृत्तिमाग बदल गया हो, उन के चरित्र-बणन मात्र से उन के युग का इतिहास सहज ही समझ में सकता है। यह तो इतिहास के पढ़ने की एक परिपाटी है, जो कदाचित्‌ सांगोपांग नहीं है, किंतु सुगम ओर शिक्षा- प्रद अवश्य है। परंतु, इतिहास की घटनाओं पर विचार करने से हमें महापुरुषों के अतिरिक्त उन घटनाओं के ओर भी अनेक सूच्म कारण अवगत होते हें महापुरुष तो इतिहास के केवल निमित्त-कारणमात्र हैं। उन के जन्म से बहुत पहले ही इतिहास में अप्रत्यक्ष रूप से अनेक शक्षियाँ अपना अपना काये किया करती हैं, जो किसी महापुरुष का आश्रय पा कर अचानक अभिव्यक्त हो जाती हैं। यद्यपि इतिहास को कार्य-कारण-परपरा की मीमांसा करना सरल नहीं, तथापि यह तो निरबिं- वाद सिद्ध है कि इतिहास के महापुरुष काल के विशाल गभ से उत्पन्न हो कर अपने समकालीन देश ओर समाज को उन्नति-पथ में अग्रसर करते हैं, ओर इसलिए उन की चर्या ओर चरित्र को इतिहास में सवंधा आदर- णीय स्थान मिलना चाहिए। “राजा कालस्य कारणम”---राजा काल का कारण है, इस उक्ति में बहुत बड़ा तथ्य है। कालिदास के समसामयिक ग॒ुप्त-बंश के चक्रवर्ती नरेश भारत के इतिहास में एक नवीन और भव्य युग के प्रवतक थे। उन का आश्रय पा कर समस्त देश जग उठा, हिंदू-जाति

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को नसों में नये रक्त का संचार हुआ, वह पुनरुज्जीवित हुईं, ओर उस के धर्म ओर संस्कृति का प्रवाह चारों ओर बड़े वेग से बढ़ा उन दिगन्त- विजयी वीरों के प्रताप ओर पराक्रम की गाथाएँ उनके समय के शिला- लेखों ओर सिक्कों पर उत्की् मिलती हैं

इ० सन्‌ की चोथी शताब्दी के प्रार॑भ से पाँचवीं शताब्दी के अंत तक गुप्त-वंश का प्रताप-सूर्य इस देश पर अपने प्रखर तेज से चमकता रहा, जो चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की द्ग्विजय के अनंतर पराकाष्ठा को पहुँचा। उस ने बंगाल की खाड़ी से पश्चिम समुद्र ओर सिंधु नदी के पार 'वाहिक? (बल्ख्र, बैक्ट्रिया ) तक के प्रदेश जीते और शकों की सत्ता को भारत के पश्चिम प्रदेशों ओर पश्चिमोत्तर सीमा-प्रांतों में जड़मूल से उखाड़ डाला अतएव, उस 'शकारि' सम्राद को पूव प्रथानुसार “विक्रमादित्य” को उपाधि मिली गुप्त-बंश का दूसरा “विक्रमादित्य” चंद्रगुप्त का पौत्र स्कंदगुप्त हुआ जिस ने हूणों के आक्रमण से अपने देश ओर धमे की रक्षा की थी इस वंश के पुरुगुप्त ओर द्वितीय कुमारगुप्त ने भी 'विक्रमा- दित्य” की पदवी प्राप्त की थी। उन के पराक्रम का विशेष पता हमें तत्का- लीन लेखों से नहीं मिलता, तथापि निःसंदेह उन के समय तक गुप्र-वंश का भारत पर प्रभुत्व अविकल रूप से व्याप्त रहा

अब तक हिंदू-जाति परंपरागत कथाओं ओर जनश्रुतियों के आधार पर अपने देश, धमे, कला, विज्ञान ओर बेभव के रक्तक ओर पोषक किसी विक्रमादित्य का स्मरण करती थी, किंतु आधुनिक पुरातत्वान्वेषी विद्वानों के हऋलाप्य ओर अनवरत परिश्रम का ही यह फल है कि आज भारत के इस “'धमे-विजयी? ओर “द्ग्विजयी? महापुरुष का, कराल काल के गाल से बचे हुए तत्कालीन शिलालेखों ओर स्म्रति-चिन्हों से शोध कर निकाला हुआ, यथातथ्य ओर विश्वसनीय इतिहास हमें उपलब्ध हुआ है, अन्यथा विक्रमादित्य? की कीतिं कथामात्र शेष ही रह कर आज इतिहास के प्रष्ठ पर सुवरणोक्षरों में लिखी जाती

( ) प्रयाग के अ्रशोक-स्तंभ तथा दिल्ली के लोह-स्तंभ पर उत्कीण प्रश- स्तियों से गुप्त-चक्रवर्ती समुद्र ओर च॑द्र के दिग्विजय का पूरा पूरा पता चलता है। समुद्रग॒प्त ने दिवपुत्र', 'शाही', 'शाहानुशाह्वी! उपाधि के धारण करने वाले, पंजाब, काबुल से आक्सस नदी पयेन्त देशों पर राज्य करने वाले शकजातीय राजाओं को “आत्म-निव्ेदन! करने के लिये वाध्य किया था। इन शकों का केंद्र-देश” वाह्वीकः ( 898८४४४५७ ) में था जहाँ का शक-राजा ईरानी भाषा की 'शाहंशाह” उपाधि अपने नाम के साथ प्रयुक्त किया करता था। इसी देश पर चंद्र ने आक्रमण कर विजय प्राप्त की थी जिस का उल्लेख दिल्ली के लोहस्तंभ पर किया गया है। महाकवि कालिदास ने, समुद्र और चंद्र को दिग्विजयों को मानो प्रत्यक्ष ही देखा था, इस प्रकार से अपने रघुवंश-महाकाव्य में वर्णित किया है। कालि- दास का दिग्विजयी 'पारसीकों के जीतने को स्थलमागर्ग से प्रस्थित हुआ था, यवन-स्त्रियों के मदमाते चेहरे उस असह्य लगे थे, अश्व-सेनाओं के द्वारा लड़ने वाले पाश्चात्य लोगों से उस का तुमुल संग्राम हुआ था, अंगूर की बेलों ओर उत्तम मगचर्मा' से ढकों भूमि पर उस के योधाओं ने मधु- पान कर अपने विजयजनित श्रम को दूर किया था, वहाँ से उत्तर दिशा में बह प्रस्थित हुआ और उस के घोड़ों ने 'बंचु” ( 05५७ ) नदी के तीर पर कुंकुम-केसर से रंजित कंधों को प्रकंपित किया, उसी स्थल में उस ने हूणों पर अपना विक्रम दिखलाया, कांबोज भी समर में उस के शोय के सामने डट सके ।? पारसीकाॉस्ततो जेतु प्रतस्थे स्थल वत्मना यवनीमुखपञ्मानां सेहे मधुमई सः संग्रामस्तुमुलस्तरय पाश्चात्यरश्वसाधने: विनयन्ते सम तथ्योधा मधुभिव्रिजयश्रमम आस्तीर्णाजिनरक्षासु द्वाक्षावलयभूमिपु ततः प्रतस्थे कौबेरीं भास्वानिव रघुदि शम्‌ विनीताध्वश्रमास्तस्य वं॑क्षुतीरविचेष्टने;

६. : 0६. )

दुधुवुवोजिनः स्कन्धॉलभक॑कुमफेसरान

ततन्र॒ हुणावरोधानां भतंषु व्यक्तविक्रमम्‌

काम्योजा: समरे सोहुँ तस्यवीरय॑मनीइवरा; [ रघु, ७, ६०-६९ ] कालिदास के पूर्बाद्त विजय-श्त्तांत में उस के समय की घटनाओं की ग्रतिध्वनि स्पष्ट प्रतीत होती है। 'पारसीक' ओर “वाह्नीक? में राज्य करने वाले शक 'शाहंशाहः जुदे-जुदे थे, एक ही थे। उस के उत्तर में हूण लोग आक्रमण कर इ० सन की चोथी सदी के अंतिम चरण में “वंचु? ( आक्सस ) नदी के किनारे बसे थे। भारत के सीमाप्रांतों की ऐसी हो ऐतिहासिक परिस्थिति में दिल्ली के लोह-स्तंभ के राजा चंद्र ने सिंधु के सात मुखों को लाँध कर समर में वाहिकों को जीता था--तीत्वां सप्तमुखानि येन समरे सिंधोजिंता वाहिका: पुरातत्वज्ञ जोन एलन की व्याख्यानुसार सिंधु के सात मुहानों को पार कर राजा चंद्र बल्स्त्र ( वाहिक ) तक नहीं पहुँच सका होगा किंतु उस ने कहीं बलोचिस्तान के ही आसपास भारत पर हमले करने वाले किन्हीं विदेशियों को परास्त किया होगा। परंतु एलन महाशय ने उक्त व्याख्या करते हुए यह शंका नहीं उठाई कि सिंधु के सात ही मुहाने क्यों कहे गए, अधिक क्‍यों नहीं ? मुख” शब्द का प्रयाग संस्कृत में द्वार के अथे में होता है--'मुखं तु बदने मुख्यारंभे द्वाराभ्युपाययोरिति यादव: सिंधु के सात द्वारों को--उद्गमों को--लाँघ कर चंद्र बल्ख़ तक पहुँचा था। श्रीयुत काशीप्रसाद जायसवाल का उक्त कथन युक्तिसंगत मालूम होता है। काबुल से पंजाब तक का प्रदेश प्राचीन काल में 'सप्तसिंघुः--हप्तहिंदुः--कहलाता था जिस के पश्चिम में 'बाहिक” नाम के जनपद थे इस प्रसंग में यद्यपि में ने एलन, फ़्लीट, स्मिथ आदि विद्वानों की व्याख्या एवं मत का इस पुस्तक में अनुसरण किया है. तथापि मुझे यह सहूष स्वीकृत है कि श्रीयुत जायसवाल जी की उक्त कल्पना ओर अर्थसंगति नितांत मोलिक और उपादेय है। संक्षेप यह्‌ है कि चंद्र की विजय-प्रशस्ति में जिन बातों का उल्लेख दै वे सभी चंद्रगुप्त

( १० )

विक्रमादित्य के समय के शिलालेखों, सिक्कों तथा पूर्वापर इतिहास के पय- वेक्षण से तत्कालीन ही प्रमाणित होती हैं इस गुप्त-कुलावतंस विक्रमा- दित्य के राज्य-काल में भारतीय प्रजा का जीवन सुखमय, शांतिमय, सदा- चार ओर पुण्य में अभिरत था, जैसा कि हमें चोन के बोद्ध यात्री फ्राहि- यान के यात्रा-विवरण से ज्ञात होता है। कदाचित्‌ अपने ही समय के श्रमजीवियों के--इख की छाया में बैठी हुई शालि के खेतों की रखवाली करने वाली ब्लियों के सुख-शांतिमय जीवन का सजीव चित्र--नीचे लिखे सुंदर शब्दों में अंकित कर इस युग के कविशिरोमणि कालिदास ने अपने ही उदाराशय आश्रय-दाता सम्राट का गुणगान किया हो-- इ॒क्ष॒ुष्छाय निषादिन्यस्तस्य गोप्तुगेणोदयम्‌ आकुृमारकथोद्धात॑ शालिगोप्यो जगुयंश: [ रघु, ७, २० ] “राजाधिराजर्षि! चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का बृत्तांत विद्यमान ऐतिहा-

सिक साधनों से जितना कुछ उपलब्ध हुआ है उस का विवेचन और विचार में ने यथाशक्ति इस पुस्तक में किया है में ने इस में यह सिद्ध करने का यत्न किया है कि कुतुबमीनार के समीप के लोह-स्तंभ पर खोदी हुई चंद्र की विजय-प्रशस्ति का तो प्रथम चंद्रगुप्त से ओर पुष्करण के राजा चंद्रवर्मा से संबंध हे, किंतु उस में चंद्र विक्रमादित्य की ही दिग्विजय का स्पष्ट विवरण है उक्त प्रशस्ति के सभी सारभूत कथन उस के राज्यकाल के उत्कीर्ण लेखों से पुट्ठ और प्रमाणित होते हैं उदाहरणाथर्थ, उस के सिक्कों पर लिखा रहता है--

“क्षितिमवजित्य सुचरितैदिव॑ जयति विक्रमादित्य:? तथा

नरेंद्रध॑द्र: प्रथितश्रिया दिव॑ जयध्यजेयों भ्रुवि सिंहविक्रम: ।! इन लेखों की ओर उक्त प्रशस्ति में

'मूत्यो कमेजितावनीं गतवतः कीत्यो स्थितस्य क्षितौ!-...

'ब॑द्वाह्ेन समग्रच॑द्रसदर्शी वक्तश्रिय॑ विश्रता'--- उत्कीर्ण पंक्तियों की भाषा ओर भाव बहुत मिलते जुलते हें

( ११ )

समुद्रगुपत के विजय-प्रशस्ति की बहुत सी उल्लेखयोग्य बातों की सविस्तर चर्चा में ने पाद-टिप्पणियों में दे कर एक तत्संबंधी अध्याय के साथ 'प्रथम परिशिष्ट” के रूप में पाठकों की सुविधा के लिये जोड़ दी है

अंत में, प्रयाग की हिंदुस्तानी एकेडेमी के संचालकों तथा पुरातत्व- विद्‌ श्रीयुत काशीप्रसाद जायसवाल का मैं अत्यंत आभारी हूँ जिन्‍्हों ने इस ग्रंथ के प्रणयन में मुझे पर्याप्त प्रोत्साहन ओर सहायता कृपा कर प्रदान की इति

हिंदू-विश्व-विद्यालय काशी | गज्जञगप्रसाद महता

१. ३. १९३२

ग्रंथ-सूची गुप्तकालीन भारत के इतिहास का अ्रध्ययन करने के लिये निम्न-

लिखित प्रंथ-सूची अत्यंत उपयोगी हे, जिस की सहायता इस पुस्तक के प्रणयन में यत्रतन्र ली गई है

फ़्लीट--गुप्त काल के शिलालेख

जोन एलन--गुप्त-बंश के सिक्कों का सूचीपत्र

विसेंट स्मिथ--भारत का प्राचीन इतिहास

» ब्रिटिश म्यूज़ियम के सिक्कों का सूचीपत्र

५... ,, भारत ओर सिंहल की ललित कला का इतिहास |

रेप्सन--भार के सिक्के

रामकृष्ण गोपाल भंडारकर--भारत के प्राचीन इतिहास का

दिग्द्शन हेमच॑द्रराय चोधुरी--प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास गोरीशंकर हीराचंद ओमा--राजपूताने का इतिहास

१० पु ५»... प्राचीन लिपिमाला

११ जो का »५. मध्यकालीन भारत की सभ्यता

१२ राखालदास वंध्योपाध्याय--नंदी-व्याख्यान-माला, हिंदू विश्व- विद्यालय

१३ प्राचीन मुद्रा

१४ कोडरिंगटन--प्राचीन भारत

१५ हेवल--भारतीय तक्षण ओर चित्रकला

१६ लेगे तथा गाइल्‍्स--फ़ाहियान का यात्राविवरण १७ स्टेन कोनो--खरोष्टी शिलालेख

१८ मेबल डफ--भारत को तिथि-क्रम-तालिका

१९ वाटसं--हानच्वांग को भारत-यात्रा

( १७ )

२० बेरीडेल कीथ---संस्क्रत साहित्य का इतिहास २१ बेनीग्रसाद---प्राचीन भारत में राजशासन

२२ विश्वेश्वरनाथ रेउ--भारत के प्राचीन राजवंश २३ एस० कृष्णस्वामी ऐयंगर--गुप्त-इतिहास का अध्ययन २४ जूवो ड्यूबरयोल--दक्षिण का प्राचीन इतिहास २५ पारजिटर---कलियुग के राजवंश

२६ स्टाइन---राजतरंगिणी

२७ वाण---हषेचरित

२८ सोमदेव---कथासरित्सागर

२९ राजशेखर--काव्यमीमांसा

३० विशाखदत्त--मुद्राराक्षस

३१ कालिदास--रघुवंश

३२ एपिग्राफ़िआ इंडिका

३३ इंडियन एंटिक्वरी |

३४ जनल आवू दि विहार-उड़ीसा रिसचे सोसाइटो | ३५ भंडारकर-स्मारक-लेखमाला

३६ जनल आवू दि रायल एशियाटिक सोसाइटी ३७ आर्कियोलोजिकल सर्वे रिपोर्ट

३८ केंत्रिज हिस्टरी आव्‌ इंडिया--भाग १॥

विषय-सूची

प्रथम अध्याय--मगध साम्राज्य का प्राचीन इतिबृत्त

दूसरा अध्याय--गुप्त राजवंश, महाराज श्रोगुप्त, महाराज घटोत्कच गुप्त, महाराजाधिराज श्री चंद्रगुप्त प्रथम,महाराजा- धिराज श्री समुद्रगुप्त, समुद्रगुप्त 'पराक्रमांक' की जीवन-चर्या तथा चरित्र ...

प्रथम परिशिष्ट--समुद्रगुप्त 'पराक्रमांक' की दिग्विजय का

सर्विस्तर विवरण, ( ) आयावत की विजय, (२) दक्षिणापथ को विजय-यात्रा, ( ) सीमांत राज्यों की विजय, ( 9 ) विदेशी लोगों के राज्य

तृतीय अध्याय--चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन-काल ओर उसकी मुख्य मुख्य घटनाएँ, “विक्रमादित्य” विरुद की उत्पत्ति,चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की दिग्विजय- यात्रा, पश्चिमी भारत के शक राजवंश का संत्तिप्त इतिहास, चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की दक्षिण के वाकाटक वंश से संधि ओर उस का राजनीतिक महत्त्व, बंगाल से बिलोचिस्तान तथा दक्षिण समुद्र पर्यत सम्राट “चंद्र! की विजय-यात्रा

चौथा अध्याय--द्वितीय चंद्रगुप्त का चरित्र

पाँचवाँ अध्याय--चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समसामयिक चीनो यात्री फ़ाहियान का भारत-अभ्रमण-जृत्तांत पाटलिपुत्र का वर्णन, शासन-व्यवस्था

छठा अध्याय---गुप्तकालोन शासन-उयवस्था, राजा तथा अमात्य, सेना, अंतराष्ट्रीय मंत्री, न्याय ओर अपराध,

झ्छ

२५

३७ ५९

६७

( १६ )

महल, प्रादेशिक विभाग, ग्रामपंचायत, नगर, लगान ओर क्ृषिविभाग, अन्य राज्यकर, प्रांतीय शासन गुप्त-काल में भारत की सांपत्तिक अवस्था गुप्तकाल में भारत का वेदेशिक सबध रे ७९ सातवाँ अध्याय--संस्क्रत वाडमय का विकास--कविवर हरिषेण कालिदास, वत्सभट्रि, नाट्यकार शूद्रक ओर विशाखदत्त, पुराणों की रचना, गुप्त-युग के बोद्ध

विद्वान, हिंदू द्शन-शाखत्र, विविध साहित्य। ... १०२ आठवाँ अध्याय--गुप्तकालीन कलाएँ, शिल्प-कला, संगीत-कला, चित्र-कला, गुप्त-सम्राटों के सिक्के .. १२७ नवाँ अध्याय--गुप्त-काल में भारत की धार्मिक अवस्था ... १३७ दसवाँ अध्याय--गुप्र-युग का उत्तराधे।.... ... -.. १७३ द्वितीय परिशिप्ट--गशुप्रों का वंश-बृत्ष .... १०० तृतीय परिशि7---रामगुप्र ही रे ... १०२ चतुथे परिशिष्ट--गुप्त-संवत ..... .#... ... १५६ पंचम परिशिप्ट--गुप्त-युग का तिथिक्रम |... »« १६० छुठा परिशिष्ट--( १) प्रयाग के स्तंभ पर समुद्रगुप्त की विजयप्रशस्ति >.. 38 ॥: 0

(२) समुद्रगुप्त का एएण का शिलालेख |... १७१ (३ ) द्वितीय चंद्रगुप्त के राज्य-काल का उदयगिरि की गुफा का शिलालेख,

गु० स० ८२। 23% १७३ (४) दिल्ली के लोहस्तंभ पर उत्कीण सम्राट्चंद्र की विजय-प्रशस्ति | ... १७४

(५) ट्वितीय चंद्रगुतत का मथुरा का शिलालेख ... दी .... १७५

( १७ )

षू्ठ

(६ ) द्वितीय चंद्रगुप्त के समय का साँची का शिलालेख, गुप्त स॑ं० ९३। _... .-- २७६

(७ ) द्वितीय चंद्रगुप्त के समय का उद्यगिरि गुफा का लेख। ... के »« २७७

(८) दितीय चंद्रगुप्त के समय का गढ़वा का शिलालेख, ग० सं० ८८। ... ,.. २७८

(९) गुप्त संवत्‌ ६१ का द्वितीय चंद्रगप्त के समय का मथुरा का स्तंभलेख |... १७९

(१०) ग्वालियर राज्य में तुर्मेंन गाँव का गुप्त संवत्‌ ११६ का शिलालेख मर १८०

(११) विक्रम संवत्‌ ५२७-ह३० सन्‌ ४६७ का समंदसोर का शिलालेख। ... १८०

(१२) चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की राजकुमारी श्रीप्रभावती गुप्ता का दानपत्र | .-- १८१५

चित्र-सुची

सारनाथ को गुप्तकालीन बुद्ध प्रतिमा... .... मुखणछ उदयगिरि की चंद्रग॒प्त गुफा हर का श्र विष्णु की गुप्तकालीन वराह मूत्ति कर कि श्२६ महरोली का लोहस्तंभ डी, हा १२८ गुप्तकालीन मंदिर 2५ मम रत १३० गुप्तसम्राटों के सिक्‍के का कि कि १३२ चंद्रगुप्त के सिक्‍के हक 5 335 १३०

गुप्तकाल की शिल्पकला के नमूने ३३ 2५ १३६

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य अथम अध्याय

समगध साम्राज्य

भारत के पूव भाग में मगध देश अति प्राचीन काल से हमारे इति- हास में प्रसिद्ध है। महाभारत के समय से ही यह देश भारतीय सभ्यता का केंद्र था। पुराणों में मगध के राजवंशों का क्रमबद्ध व्णन मिलता है महाभारत के समय में भी मगध का राज्य सब से अधिक शक्तिशाली था। उस समय मगध के सम्राट जरासंध ने अनेक राजाओं को जीत कर कारागार में डाल रखा था जब युधिष्ठटिर ने राजसूय यज्ञ करना चाहा तब श्रीकृष्ण ने जरासंध से युद्ध करने की उसे सलाह दी, क्योंकि उस का प्रताप सारे आयोवत में उस समय छा रहा था। इस देश के शासक चिर- काल से सम्राट बनने की इच्छा किया करते थे। उन का साधारण राजाओं की भाँति 'राज्याभिषेक” होता था, किंतु वे साम्राज्य के निमौण करने की उत्कट इच्छा से ही अभिपिक्त हुआ करते थे इस का परिणाम यह हुआ कि कई सदियों तक मगध राज्य का प्रभुत्व सारे भारत पर छाया रहा--उस की विजय-बैजयंती सवत्र फहराई। मगध देश में ही इसा के पूव छठी शताब्दी में महात्मा महावीर स्वामी ओर बुद्धदेव ने जैन ओर बोद्ध धर्म की स्थापना की थी इन्हीं क्षत्रिय राजकुमारों ने अहिंसा! ओर

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

(विश्व-प्रेम' का कल्याणकारी संदेश जगत्‌ को सुनाया था। इन के सम- कालीन शिश्ुनागवंश के बिंबिसार ओर अजातशत्रु मगध के राजा थे इस वंश का राज्य लगभग साढ़े तीन शतक तक मगध पर रहा। यहाँ अजातशत्रु ओर उदय ने पाटलिपुत्र नाम का नगर बसाया जो मगध साम्राज्य का कई सदियों तक केंद्र बना रहा। गंगा ओर सोन नदी के संगम पर यह विशाल नगरी बसी इ० स० पूर्व चोथी शताब्दी में यवन राजदूत मेगस्थनीज़ ने स्वयं इस का अवलोकन किया था। उस ने भारत की इस “अमरपुरी” का जो बणन लिखा है, उसे हम यहाँ उद्धृत करते हैं उस के कथन के अनुसार उस नगर की लंबाई नो मील ओर चोड़ाई डेढ़ मील थी, उस के चारों ओर काठ का बना हुआ परकोटा था, जिस में ६४ फाटक ओर ५७० बुज थे। परकोटे के चारों ओर एक गहरी खाई थी जिस में सोन नदी का पानी भरा रहता था इस राजधानी में राजमहल शहर के बीचोंबीच थे और विशालता ओर सुंदरता में संसार में सब से बढ़ कर थे। इन के सुनहरे खंभों पर सुबण के अंगूर की बेलें ओर चाँदी के बने पक्षी शोभा बढ़ाते थे। ये राजभवन एक बड़े रमणीक उद्यान में बने थे सुंदर बृक्त, लता ओर सरोवर इन भवनों की भव्यता को बढ़ा रहे थे मेगस्थनीज़ ने स्पष्ट लिखा है कि पाटलिपुत्र के राजभवन ईरान के जगग्मसिद्ध राजभवनों से तड़क भड़क ओर शान शोकत में कहीं बढ़ कर थे इन की ओर उन की कोई समता नहीं हो सकती थी। ई० स० पूवे ३२७ सें जब यूनान का प्रतापी बादशाह सिकंदर पंजाब पर आक्रमण कर रहा था उस समय मगधघ में नंद वंश का राज्य था। यह शूद्र वंश था। इस के अत्याचारों से प्रजा में घोर असंतोष था। इस के कोष और सेना की शक्ति अतुल थी सिकंदर की सेना को इस शक्ति का सामना करने का साहस हुआ ओर पंजाब की ब्यास नदी से उस अपने देश को वापिस लोटना पड़ा | इधर मगध में नंद वंश के विरुद्ध विद्रोह की अप्मि प्रज्वलित हुई | ब्राह्मण चाणक्य ने नवीन नंद वंश को जड़ से उखाड़ कर फेंक देने का क्रांतिकारी भंडा उठाया और पूबे नंद के वंशज चंद्र-

सगध साम्राज्य रे

गुप्त मोय को उस का पक्ष लेकर मगध की राजगद्दी पर बिठाया चाणक्य नीति-शास्र का बड़ा आचाये और सब विद्याओं में पारंगत था। वह पंडित ओर देशभक्त था| चंद्रगुप्त को मगध का राज्य देकर उस ने अनेक राष्ट्रों में विभक्त भारत को एक कर एक महान साम्राज्य की स्थापना की। पंजाब के पश्चिमोत्तर प्रांत से सिकंदर की राज-सत्ता को चंद्रगुप्त मौय ने नपष्र किया ओर कुछ काल के उपरांत पश्चिम एशिया के सम्राद्‌ सेल्युकस को युद्ध में परास्त कर हिंदूकुश पब॑त तक मोये-साम्राज्य का विस्तार किया ई० स० पूष तीसरी सदी में मगध के सिंहासन पर चंद्रगुप्त का पोत्र अशोक बैठा राजगद्दी पर बैठने के आठ वष बाद उस ने अपने कलिंग युद्ध में लाखों मनुष्यों का संहार हुआ देख कर ओर उस से अतीब उन्मनरक हो कर बोद्ध धर्म की दीक्षा ली ओर तद- नंतर अपने संपूर्ण जीवन को घमम के लिये व्यतीत किया बोद्ध घर्म स्वीकार कर उस के प्रचार के लिये उस ने तन, मन, धन से पूरा प्रयत्न किया। अपने समस्त साम्राज्य में ओर देशांतरों में उस ने मनुष्य ओर पशुओं के लिये ओषधालय स्थापित किए, सड़कों पर जगह जगह कूएँ खुद्‌- वाए, वृक्षों के कुंज लगवाए ओर पांथशालायें बनवाई | अशोक अपने आप को प्रजा का ऋणी मानता था ओर उस के ऐहिक ओर पारत्रिक कल्याण के लिये भरसक उद्योग करता था। सबत्र उस ने जीवहिंसा, व्यथे व्यय, परनिंदा ओर धार्मिक असहिष्णुता को रोकने की चेष्टा की, ओर दया, मैत्री, सत्यता, पवित्रता, आध्यात्मिक ज्ञान तथा धमं का उपदेश कर ने का प्रयत्न किया उस के भेजे हुए उपदेशक भारत का धर्म ओर संस्कृति फैलाने के लिये एशिया, यूरूप ओर अफ्रीका के महाद्वीपों में पहुँचे अशोक के प्रताप से बोद्ध धमं का प्रभाव जगद्वयापी हो गया | जो देश ओर जातियाँ अब तक असभ्य थीं उन में भारतीय संस्कृति का प्रचार अशोक के भेजे हुए आचार्यो' ने किया अशोक सभी धम्म वालों का संमान करता ओर यह मानता था कि मनुष्य के लिये सृष्टि का उपकार करने से बढ़ कर अन्य कोई धम नहीं है। अशोक का विशाल साम्राज्य

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

हिंदुकुश से बंगाल की खाड़ी तक ओर हिमालय से माइसोर तक फैला हुआ था उस की मित्रता भारतवष से वाहर दूर दूर के विदेशी राजाओं से थी अशोक की मृत्यु के पश्चात्‌ मोय-साम्राज्य का हास होने लगा। अरब सामंत राज्य स्वतंत्र होने लगे। भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेशों में यवन लोगों के आक्रमण फिर से होने लग। अशोक के व॑शज साम्राज्य की रक्षा करने में असमर्थ थे। मोयवंश की शक्ति के क्षीण होने पर चाणक्य के सडश एक नीति-निष्णात शुंगवंशी ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र ने अपने स्वामी अंतिम मोँये ब्ृहद्रथ को मार कर मगध-राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली। उस ने यवनों को सिंधु नदी के तट पर परास्त किया ओर परिक्तीण मगध-साम्राज्य का फिर से गोरव स्थापित किया। उस ने यवनों के भीपण आक्रमणों से आयावत की रक्षा की ।' अपनी विजय- यात्रा के समाप्र हान पर उस अश्वमेध-यज्ञ किया वेदिक प्रथा के अनु- सार अश्वमेघ-यज्ञ करने के अधिकारी केवल “चक्रवर्ती? नरेश हाते थे। पुष्यमित्र शुंग के प्रताप और पराक्रम को आयावत के सभी नर्शों ने स्वीकार किया वह ब्राह्मण घमे का बड़ा पक्षपाती था उस की संरक्षता में वेद-धर्म ओर संस्क्रत विद्या की उन्नति हुईं। पुराणों ने शुंग वंश का राज्य-काल ११२ बष तक का लिखा है | तदनुसार, इ० स० पूर्व १८५ से इ० स० पूव ७३ तक मगध-राज्य पर इस ब्राह्मण वंश का अधिकार रहा। शुंगबंश के अधिकार-काल के पश्चात तीन शताब्दियों तक मगध का प्रतापसूर्य मेघाच्छन्न हो जाता है तीन सो वर्ष तक इस के इतिहास का कुछ पता नहीं चलता

निःसंदेह, यह मगध-साम्राज्य के हास का समय था। भारत के पश्चि-

१+धतत्त: साकेतमाक्रम्य पांचालान्य मथुरास्तथा यवना दुष्टविक्रांता प्राप्श्यन्ति कुसुमध्वजम्‌ ॥”” गार्गीसंहिता “अरुणध्य वन: साकेतम ।!

महाभाष्य “अरुणध्यवनो माध्यमिकान्‌ ।! |

मगध साम्राज्य हट

मात्तर प्रांतों में यवन, शक, पार्थियन, कुशान आदि विदेशी लोगों के आक्रमण इस युग में बराबर जारी थे। अंततः, हमारे देश का बहुत बड़ा भाग विदेशियों के अधीन हो गया। मगध-राज्य की शक्ति के शिथिल होने पर, उत्तर और दक्तिण भारत पर विदेशियों का दोर दोरा तीन चार सदियों तक जमा रहा इसा के जन्म से प्रायः दो सो बष पूव ओर तत्पश्चात्‌ दो सो वर्ष तक यवन, शक, कुशान आदि विदेशी जातियों ने भारत पर अपना प्रभुत्व जमाया था। प्राचीन सिक्कों ओर शिलालेखों से इन सब जातियों के अनेक राजाओं के अस्तित्व का प्रमाण मिलता है। उत्तर हिंदु- स्तान में इन राजाओं के हज़ारों सिक्‍के मिले हैं। शक संवत के प्रारंभ से (इं० स० ७८ ) लगभग एक शताब्दी तक कुशनवंश का सावभोम साम्राज्य अधिकांश भारतवप पर ओर भारत के बाहर पश्चिम में आक्सस नदी तक ओर चीनी तुर्किस्तान तक फैला हुआ था इस वंश में कनिष्क महाप्रतापी राजा हुआ। वह बोद्ध-धर्म का अनुयायी ओर उस के प्रचार में संलम था। वह विद्वानों का आश्रयदाता था। तत्वदर्शी नागाजुन, आयुर्वेदाचाय चरक, संस्कृत के उड्धर कवि ओर नास्यकार अश्वघाष, बोद्ध-चमं के महान आचाये पाश्व और वसुमित्र आदि प्रतिभाशाली विद्वान सम्राट कनिप्क के दानमान के पात्र थे कनिष्क की म्र॒त्यु के उपरांत कुशन-साम्राज्य का धीरे घीर हास हान लगा | तब से आरंभ कर इ० स० की तृतीय शताब्दी के अंत तक भारत का इतिहास घोर अंधकार से ढका हुआ है ।" उस समय इस देश की कैसी राजनीतिक स्थिति थी,

१भारत के इतिहास में गुप्त वंश के उत्थान के पूव की शताब्दी अंधकारमय है। उत्तरापथ में कुशन-साम्राज्य और दक्षिणापथ में अध्िसाम्नाज्य दोनों प्रायः एक ही साथ पतनोन्मुख हो जाते हैँ और भारत के दोनों देशों में छोटे छोटे खंड राज्य स्थापित होने लगते हैं पुराणों से भी तीसरी सदी में भारत की ऐसी ही अस्तव्यस्त राजनीतिक दशा का पता चलता है। मत्स्यपुराण के अनु- सार इस समय के राजवंशों की तालिका निम्नलिखित प्रकार की है---

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य यहाँ क्‍या क्‍या राजनीतिक घटनाएँ हो रही थीं, कनिष्क का साम्राज्य

किस प्रकार छिन्न भिन्न हो रहा था इत्यादि इतिहास की समम्याओं के हल जो ९5 हीं हे [का श्र ( करने का हमार पास काइ भी साधन नहीं है। तीसरी सदी का भारतवष

राजवंशों के नाम राजाओं की संख्या | राज्य-काल ' ८: 3. श्रा पवतीय, आंध्ररूत्य | प्रात | ७५२ वष ! | २. आभीर | दस ६७ ,, ' | गधभिल | सात ! ७२ ,, ' शक | अठारह | १८३ ,, ७४. यवन | आठ ८७ वा ८८ वर्ष | | र्ष .. तुपार चौोदह १०७वा१०७व 5 गुरुंड वा सुरूंड | तेरह २०० वर्ष : हुण ग्यारह | १०३ ,,

उक्त राजबंशों के राजाओं की संख्या तथा उन के राज्य-काल के विपय में पुराणों के सवा ओर कोई पक्का ऐेतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता | तथापि उप- युक्त राजवंशों की सूची इसलिये बड़े महत्व की हैं कि इस से ई० स० की तीसरी सदी के भारत के राजनीतिक विभाग स्पष्ट प्रकट होते हं। पुराणों में निदिष्ट इन राजवंशों में बहुतों का पता शिलालेखों से भी चलता है और उन के स्थान भी भारतवर्ष के तत्कालीन नक़शे में दिखाये जा सकते हैं आधरिभ्ृत्यों का राज्य श्रीपबंत ( कनू जिले में श्रीशल ) के आस पास था। आभीरों का राज्य बरार से कोंकण और काठियावाड़ तक था गधभिलों की स्थिति राजपूताने के दक्षिण-पश्चिम भाग में मालम होती है। शकवंशी राजा मथुरा, तक्षशिला, सिध्र, मालवा आदि प्रदेशों पर शासन कर चुके थे वा कर रहे थे। यवनों का काबुल से बेक्ट्रिया तक और भारत में पंजाब तक राज्य रह चुका था। तुपार शायद कुशनवंश के थे जिन के राज्य की सीमा एक समय पाटलिपुतन्न तक थी। समुद्र-

मगध सामप्राज्य

मोन धारण कर रहा है। कदाचित्‌ वह निर्जीव हो कर पड़ा है ओर इस- लिये कहीं से कुछ भी इस के जीवन की घटनाओं की प्रतिध्वनि सुनाई नहीं पड़ती किंतु स० की तीसरी शताब्दी का अवसान होने पर जैसे पूव दिशा में अरुणोदय की लालिमा छा जाती है, वेसे ही अकस्मात्‌ भारत के पूब प्रांत में एक प्रतापशाली हिंदू राजवंश की ज्योति जगमगा

गुप्त की इलाहाबाद वाली प्रशस्ति में शकों ओर मरुंडों का उल्लेख है। जैन ग्रंथों में मरंडराज को क्न्नौज का राजा लिखा है। वह पाय्लिपुत्र में रहता था। चीनी ऐतिहासिकों ने भी उसे पाटलिपुत्र का राजा लिखा है ।* मालम होता है कि ईसा की प्रारंभिक शताबिदियों में मरुंड-राज्य का विशेष प्रभाव था। ये राजा विदेशी थे और इन का राज्य गंगा के आसपास था कदाचित्‌ इन के पतन के साथ ही गुप्त राज्य का उदय हुआ हो। मथुरा और चंपावती के नागवंश और प्रयाग, साकेत (अवध ) ओर मगध के गुप्तवंश का उल्लेख पुराणों में मिलता है ।' पूत्र मालवा के राजवंश में, जिस की राज- धानी विदिशा थी, विध्यशक्ति के पुत्र प्रवीर के राजा होने का पुराणों में उल्लेख है बहुत संभव है कि ये दोनों राजा वाकाटक वंश के विध्यशक्ति और प्रवर- सेन हों जिन का बहुत कुछ इतिहास दक्षिण के शिलालेखों और ताम्रपन्नों से मिला है ।* पुराणों के पूर्वोक्त वंश-व॒त्त कालक्रमानुसार होने से क्रमबद्ध इतिहास के

रूप में नहीं लिखे जा सकते परंतु इन के आलोचन से इतना तो स्पष्ट सिद्ध होता है कि गुप्त और वाकाटक वंश के अभ्युदय होने के पूत्र के शतक में सारा भारतवर्ष खंड-राज्यों से आकीणे था विदेशी राजाओं का भी अधिकार भारत के बहुत बड़े हिस्सों पर था। इन सब छोटे छोटे राज्यों को एकछन्र शासन के

रजोनएलन---मुप्तवेश के सिक्कों का सूर्चापत्र पृष्ठ २९

२अनुगंगा प्रयागन्न साकेत॑ मगधांरतथा एतांजनपदांसवान्भोक्ष्यते गुप्त-

वंशजा: (वायुपुराण) १२एस० कृष्णस्वामी एयंगर--खमुप्त-शतेहास का अध्ययन, अध्याय

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

उठती है। इतिहास के रंग-मंच पर फिर से भारतीय प्रतिभा के अभिनव खल--नय नय दृश्य--हमें देखने का सौभाग्य होता है इस राजवंश का उत्थान मगध देश में हुआ हिंद इतिहास में यह वंश “गुप्तों का राजवंश? के नाम से प्रसिद्ध है। इस के उदय के साथ ही मगध में फिर अखिल भारतीय साम्राज्य-निर्माण का सूत्रपात हुआ इस के निर्माण करने वाले कैसे पराक्रम के पुतले थे, वे कैस तेजस्वी ओर मनस्वी थे इस की चर्चा आगे चल कर हम करेंग।

अधीन करना और देश का विदेशियों के अधिकार से उद्धार करना, भारत की प्राक्तन संस्कृति को पुनरुजीधित करना, उस की प्रसुप्त प्रतिभा को फिर से जगाना, उस के धर्म, कला, विज्ञान, साहित्य में अभिनव जीवन का संचार करना, ये सारी घटनाएँ, भारत के इतिहास के रंग-संच पर गुप्त-वंश के उदय होते ही घटित होने लगती दें इन्हीं कारणां से आजकल के इतिहासकार गुप्त- काल को प्राचीन भारत के इतिहास का 'सुव्रण-युग” बतलाते हैँ और इस की तुलना यूनान फे इतिहास में पेरीक्लीज॒ के और इंगलेंड के इह्िहास में महाराणी एलिजबेथ के काल से किया करते हैं

दूसरा अध्याय गुप्त राजवंश

भारत के प्राचीन इतिहास की शोघ से पता चलता है कि श्रीगुप्त अथवा गुप्त मगध के नये राजवंश का संस्थापक था जिस के नाम पर यह वंश गुप्त नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ उस का पृववर्ती राजबंशों से क्या संबंध था इस का कुछ भी उल्लेख इस समय के शिलालेखों में तो नहीं मिलता, परंतु उक्त वंश के पिछले समय के राजाओं के लेखों में गुप्त वंशियों का चंद्रवंशी होना लिखा है।' इस पुराण-प्रसिद्ध प्राचीन चंद्रवंश

१गुप्त-वंश के राजा क्षत्रिय थे। उन के विवाह-संबंध 'लिबच्छिवि! और “वाका- टक! आदि क्षत्रिय वंशों के साथ होने के प्रमाण मिलते हैं। उन के नाम के साथ गुप्त! छूगा रहने से उन्हें वश्य मान लेना भ्रम है। पिछले समय के गुप्त राजाओं के लेखों में उन का चंद्रवंशी होना लिखा है। म० म० श्रीमान गौरीशंकर ओझा ने 'राजपूताने के इतिहास” में लिखा है कि गुप्तों के महाराज्य नष्ट होने के बाद भी उन के वंशजों का राज्य मगध, मध्यप्रदेश ओर गुत्तल ( बंबई प्रांत के धार- वाड़ ज़िले में ) आदि पर रहा था। गुत्तल के गुप्ततंशी अपने को उज्जैन के महा- प्रतापी राजा छंद्रगुप्त ( विक्रमादित्य ) के वंशन ओर सोमवंशी मानते थे (बंबई गज़ेटियर, जि० १, भाग २, प्र० ५७८) सिरपुर ( रायपुर, मध्यप्रदेश ) से मिले हुए महाशिवगुप्त के शिलालेख में वहाँ के गुप्ततंशी राजाओं को चंद्रवंशी बत- लाया है--

( आसीच्छक्षीव ) भ्रुवनाद्भुत भूत भूतिरुद्‌ भूत भूतपति ( भक्तिसमः ) प्रभाव:

१० चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

का पुनरुत्थान इ० स० की तीसरी शताब्दी के अंतिम चरण से प्रारंभ हुआ ओर सातवीं सदी के मध्य काल तक इस ग्रतापी वंश की सत्ता भारतवप में जीती जागती रही लगभग साढ़े तीन सो वर्षा का भारत- बष का <ंखलाबवद्ध इतिहास गुप्त-काल के आरंभ से लिखा जा सकता है। इस इतिहास के निर्माण करने में हमें अधिक कलश भी नहीं होता, क्योंकि इस युग का तिथि-क्रम प्राय: निश्चित सा ही है। गुप्त नरेशों की वंश-परं- परा का और उन के प्रथक प्रथक्‌ राज्य-काल का पता तत्कालीन शिला- लेखों से हमें मिलता है जिन के आधार पर इस युग का क्रम-बद्ध इतिहास रचा जा सकता है।

महाराज श्रोगुप्त गुप्रवंश के शिलालखों में श्रीगुप्त के नाम के साथ केवल “महाराज? की उपाधि का उल्लेख है। इस से अनुमान होता है कि वह किसी बड़े राजा का सामंत था। उस का पुत्र घटालकच भी महाराज” ही कहलाता था, परंतु उस का पोत्र प्रथम चंद्रगुपत 'महाराजाधिराज” की उपाधि से प्रसिद्ध हुआ | तीन पीढ़ियां की अवधि में इन नरंशों का महाराज” से “महा- राजाधिराज” की पदवी पर आरूढ़ हा जाना यह सूचित करता है कि ये किसी बड़े गज़ा के सामंत रह कर अब म्वतंत्र हो गए। इस समय के शिलालखों में 'महाराज” की उपाधि का प्रयोग केवल सामंत राजाओं के नाम के साथ होता था। चीन देश के बोद्ध यात्री इत्सिंग ने, जो भारत- वष में सातवें शतक के अंत में आया था, अपने यात्रा-विवरण में यह लिखा है कि महाराज श्रीगुप्त ने लगभग ५०० वर्ष पूर्व चीन के तीथे- यात्रियों के लिये मगध के मृगशिखावन में एक मंदिर बनवा कर उस के चंद्रान्वय कतिलक: खल॒ चंद्रगुप्त राजाख्यया प्रधुगुण: प्रधथितः प्रथिब्याम, ए० जि० १, 2० १५९० गो० ही० ओझा--राज० का इति० पृष्ठ ११३-११४

गुप्त राजवंश ११

ख़च के लिये २७ ग्राम दान में दिए थे। इस मंदिर के भग्नावशेष इत्सिंग ने स्वयं देखे थे, जो उस के समय में चीन के मंदिर” के नाम से प्रसिद्ध थे। इत्सिंग के श्रीग॒प्त' गुप्रवंश के संस्थापक महाराज गुप्त ही प्रतीत होते हैं। चीनी यात्रियों के प्रति उन की उपकारपरायणता की कथा इत्सिंग ने मगध देश में सुनी थी यदि विदेशियों के प्रति महाराज गुप्त इतने दान- शील थे तो अपनी मगध की प्रजा के हित करने में वे कितने अधिक दत्तचित्त होंगे इस का हम सरल रीति से अनुमान कर सकते हैं महाराज श्रीगुप्त का राज्य-काल इ० स० २७० से ३०० तक का अनुमान किया गया है।

महाराज घटोत्कचगुप्त, महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्त (प्रथम)

श्रीगुप्त का पुत्र ओर उत्तराधिकारी महाराज घटोत्कच गुप्त हुआ। इस के नाम का सोने का केवल एक सिक्का मिला है, जो रूस के प्रसिद्ध नगर लेनिनग्रेड के अजायबघर में रखा है, परंतु मुद्रातत्वविद्‌ जेम्स ऐलन इस सिक्के को महाराज घटात्कच का नहीं मानते घटोत्कच का पुत्र चंद्रगुप्त इस वंश म॑ पहला प्रतापी गाजा हुआ उस ने प्रथम बार 'महा- राजाधिराज” की पदवी धारण की, अपने नाम से सोने के सिर्के चलाए ओर अपने राज्याभिपक के समय से 'ुप्र-संवत' प्रचलित किया चंद्र- गुप का विवाह लिब्छिवि वंश की राजपुत्री कुमारदेवी के साथ हुआ था उस के सिक्कों पर उस की ओर उस की रानी की मूर्तियाँ ओर नाम अंकित होने से कुछ विद्वानों का अनुमान है कि चंद्रगुप्त का लिन्छिवि राजपुत्री कुमारदेवी से विवाह-संबंध ही गुप्तवंशियों के भावी अभ्युदय का कारण था। प्राचीन भारत के इतिहास-लखक विंसेंट स्मिथ का मत है कि चंद्रगुप्त प्रथम के समय मगघ पर शायद लिब्छिवियों का अधि- कार होगा, जिसे उन्हों ने कुमारदेवी के विवाह में चंद्रगुप्त को भेट कर दिया होगा परंतु यह मत कोरी कल्पनामात्र है। क्‍योंकि एक तो चीनी यात्री इत्सिंग के लेख से स्पष्ट है कि महाराज गुप्त के समय से ही मगध

श्२ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

गुप्तवंशियों के अधिकार में था, ओर दूसरे चंद्रगुप्त प्रथम के 'महाराजा- घिराज” की उपाधि ग्रहण करन से सिद्ध होता है कि वह स्वयं सगध का प्रतापशाली राजा था तथापि, इस में संदेह नहीं कि लिच्छिवि वंश के साथ के संबंध को गुप्रवंशी नरेश अपने बड़े सोभाग्य की बात समभते महात्मा बुद्ध के समय में लिल्छिवियों का ग्रजातंत्र राज्य वेशाली ( बतमान मुज़फ़्फरपुर, बिहार ) में था बोढ्धों के 'दीघनिकाय” में लिखा है कि लिच्छिवियों ने बुद्ध की अस्थि का विभाग यह कह कर माँगा था कि “भगवान भी क्षत्रिय थे ओर हम भी क्षत्रिय हैं? | जैनधमम के प्रवतक 'महावीर स्वामी! भी बेशाली के क्षत्रिय कुल में जन्मे थे। इस ग्रसिद्ध लिच्छिवि कुल की राजकुमारी कुमारदेवी से प्रथम चंद्रगुप्त ने विवाह किया गुप्रवंश के भावी अभ्युदय का यह विवाह संबंध मुख्य कारण हुआ इस कल्पना की पुष्टि में कोइ प्रमाण नहीं मिलता गुप्रवंशियों ने अपने ही बाहुबल ओर प्रतिभा से इतिहास में गोरब प्राप्त किया उन के उत्थान के कारण उन्हीं के असाधारण गुण-कम थे इस वंश के इति- हास में एक समय एसा था कि द्वारिका से आसाम तक ओर पंजाब से नमंदा तक का सारा देश उस के अधीन था ओर नमंदा से दक्षिण के देशों में भी उस की विजय का डंका बजा था

चंद्रगुप प्रथम का राज्य प्रयाग से पाटलिपुत्र तक था। वायुपुराण में, गंगा तट का प्रदेश, प्रयाग, अयोध्या तथा मगधघ का गुप्रवंशियों के अधीन हाना लिखा है जो चंद्रगुप्त प्रथम के समय की राज्य-स्थिति प्रकट करता है।

अनुगंगा प्रयागं साकेत॑ मगशध्रांस्तथा पताअनपदांस्सवाॉन भोधश्यंते गुप्तवंशजाः

इस छोटे से राज्य का प्रभाव बढ़ते बढ़ते अखिल देश व्यापी हो गया। इसा के चोथे शतक में गुप्तरवंश की प्रभुता सारे भारतवर्ष में जम गई हज़ारों मील लंबे चोड़े इस देश में एकछत्र राज्य के स्थापित करने वाले

गुप्त राजवंश १३

मोरयबंश के लगभग साढ़े पाँच सो वर्ष के बाद गुप्तवंशी सम्राद हुए इस बंश में कई बड़े वीर, धर्मनिष्ठ ओर स्वदेश रक्षक राजा हुए थे। इन के जीवन चरित्र के विषय में सविस्तर जानने की इच्छा हमें होना स्वाभाविक हैं परंतु, हमारे पास इस जिज्ञासा की पूर्ति के बहुत ही कम साधन हे अतएव, इन के समय के शिलालेख, सिक्के ओर साहित्य से जो कुछ इन के कारनामें हमें मालूम होते है उन से ही हमें संतुष्ट होना पड़ता है यदि ये इतिहास के जानने के इतने भी साधन खोज कर निकाले जाते तो हमारे देश के इन वीर पुरुषों का चरित्र सदा के लिये बिस्मृति में विलीन हो जाता | किंतु धन्‍्य है आजकल के प्राचीन इतिहास के शोधकों को जिन के परिश्रम से हमें इस प्रतापी वंश के इतिहास के जानने के साथन प्राप्त हुए हैं गप्तवंश का साम्राज्य-विस्तार महाराजाधिराज श्रीसमुद्र गुप्त

हम पहले कह चुके हैं कि चंद्रगुप्त प्रथम ने अपने राज्यारोहण दिवस से अपना राज्य-संवत प्रचलित किया था। वही संवत्‌ उस के पुत्र पौत्ा- दिकों के लखों में भी प्रचलित गहा ओर उसी का नाम गुप्त संवत हुआ इस गुप्त संवन्‌ को प्रचलित करने वाला चंद्रगुप्त प्रथम अवश्य ही स्वतंत्र ओर प्रतापशाली राजा हुआ हं।गा इस में हमें कुछ संदह नहीं है, क्योंकि पराधीन ओर सामंत राजाओं के अपने राज्य-संवन चलाने के उदाहरण हमें इतिहास में नहीं मिलते

डाक्टर फ़्लीट के मतानुसार उपयुक्त गुप्त संबत' का प्रथम वप ई० स० ३२० से शुरू होता है | महमूद गज़नबी के साथ भारत में आने वाले विद्वान अलबेरूनी का कथन है कि गुप्त संवत शक संवत (इ० स० ७८) से २४७२ बाद प्रारंभ हुआ था। अर्थाव गुप्त संवत ७८+ २४२८-३०

१धगुप्त-संवत्‌” इस शीपक का परिशिष्ट देखिए

१८ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

स० ३२० में शुरू हुआ | इस संबत की तिथि के निश्चित होने से गुप्रवंश के इतिहास का तिथि-क्रम ठीक ठीक स्थिर हो चुका है

प्रथम चंद्रगुप्त का राज्य-यकाल लगभग १५ बष ई० स० ३२०-३३५ तक माना गया है उस की मृत्यु के पश्चात उस का महाप्रतापी पुत्र समुद्रगुप्र मगध के राजसिंहासन पर बेठा। अपनी बाल्यावस्था से ही वह इतना गुणी ओर हानहार था कि उसके पिता चंद्रगुप्त प्रथम अपने सब पुत्रों में ज्यप्ठ होने पर भी उसी का अपना उत्तराधिकारी चुना था अखिल प्रथ्वी के पालन करन का भार उसे उस के पिता ने हर्प के आँसू बहा कर अपने राज दरबार के सभ्य बुंद के सामने सुपुद किया था। अपने पिता से गाज्य-भार का स्वीकार कर के समुद्रगुप्त ने अपनी योग्यता का जगत्‌ को पूण परिचय दिया। उस के राजत्व-काल का सविस्तर इतिहास हमें प्रयाग के क्रिल में स्थित, अशोक के लख वाल विशाल स्तंभ पर खुद हुए,संम्क्रृत भाषा के गद्य और पद्म में रचित लेख से मिलता है इस संस्कृत लेख की भाषा बहुत ही प्रांजल ओर आओजस्वी है समुद्रगुप्त के आश्रित संम्क्रृत के महा- कवि हरिपेण ने इस लेख की रचना की थी इस म॑ उस की विजय-यात्रा का सविस्तर वणन है जिस के आधार पर उस के साम्राज्य-विस्तार की सीमाएं निर्धारित की जा सकती हैं इस वीर विजयी की विजय-यात्रा का बृत्तांत प्रयाग के स्तंभ लख में, जिस पर धमें के जयघोप करने वाले सम्राट अशोक का भी लेग्ब खुदा हुआ हे,' इस प्रकार लिखा है।इस

शांतिश्रिय अशोक के लेख वाले स्तंभ पर यद्ध-प्रिय समुद्रगृप्त की विजय- प्रशस्ति के उत्कीण किये जाने में हमें कुछ अनुचित नहीं लगता दोनों सम्राटों में बहुत बातें समान थीं। दोनों अपने अपने धर्म की मयांदा स्थापित किया चाहते थे अशोक ने इस लेख द्वारा आज्ञा दी थी कि किसी को भी भिक्षुसंघ के नियम तोड़ने चाहिएं समुद्गगुप्त का भी इस लेख द्वारा अपने धर्म की मर्यादा स्थापित करने का उद्देश्य था--'धम प्राचीरबंध:”

गुप्त राजवंश १५ समुद्रगुप्त ने सैकड़ों युद्धों में विजय प्राप्त की थी। इस का शरीर शख्रों से लग हुए सैकड़ों घावों से शोभायमान था | वह अपने भुज-बल पर ही भरोसा रखता था |! उस समय के भारत की प्रायः सभी शक्तियों ने उस

उस ने अपनी प्रशस्ति ध्म-विजयी अशोक फे स्तंभ पर कदाचित्‌ इसलिये लिखवाई कि उस के भी गुण-कम अशोक के बहुत कुछ सदृश थे | अशोक की भाँति समुद्रगुप्त, प्रशस्तिकार की दृष्टि में, दानवीर, दयाल, मझदुह्दय, क्ृपण, दीन, अनाथ और आतुर जनों का उद्धारक था। दोनों ही छोकानुग्रह की मूर्तियाँ थीं इस अशोक के कीति-स्तंभ पर ही समुद्रगुप्त के 'प्रदान!, 'पराक्रम', 'प्रशम' और शाख-परिशीलन के प्रख्यात करने वाली प्रशस्ति का लिखवाना स्वथा समंजस था 'मदु हृदस्यानुकंपावतो 5नेकगोशतसहस््रप्रदायिन: कृपणदी ना नाथातुर जनोद्- रणमंत्र दीक्षाद्यगतमनसः समिद्धस्य विग्रहवतो लोकानुग्रहस्य सुचिरस्तोतव्या- नेकाद्भुतोदारचरिप्तस्थ--- प्रदान भुजविक्रमप्रशभशाखवाक्योदय : ' ** *** **' यश: विसेंट स्मिथ के मत में अशोक-स्तंभ पर समुद्रगुप्त की प्रशम्ति का उत्कीण्ण होना अविनय और अनोचित्य की पराकाष्ठा है आ५ लिखते हैं कि समुद्रगुप्त कट्टर हिंदू , ब्राह्मणों के शास्त्रों का पंडित और रण-रसिक योद्धा था आश्चय है कि उसे इस में लेश भर भो संकोच हुआ कि उस ने उस स्तंभ पर धर्म-विजयी ( अशोक ) के शांतिपूण उपदेशों के बराबर अपने रक्तरंजित युद्धों के ऋरता और द3 से भरे वर्णन लिखवाए *#94पतब8५०६, 2 ०एी0१05 लिीमतप, ्वाजाल्त॑ का था पी० ज]5607 प्री फ्रिवीगावा5, वातव॑ वा गा।जिध्र0प्ड 509 0 प९ ]07 97८८९, पराबत॑ंट ॥0 $टप.८ व0फप0 $८- घीा8 की5 0एा7 7प्रता९5५ 90450 0 इ्याहप्रावाए ए75 02५ (९ अंवंट 0 पीले वपांटपट5४ ग्रातागारशााएु5 या एी० वृत्लावटत पार लाल: एग्रावृपट5: ६00 5९ धी९ ८०ण्ावृपट5४ एछा०ए.”--2%/॥5 44/57079 4#४/4, 0. 298.

१६ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

का लाहा माना था। सब से पहले उस ने अपने निकटवर्ती आयावत के राजाओं को युद्ध के लिये ललकारा ओर उन्हें परास्त किया। आयावत के ना राजाओं के नाम इस लेख में लिखे हें जिन्हें उस ने नष्ट कर अपना प्रभाव बढ़ाया। सारे उत्तरापथ को जीत कर समुद्रग॒प्त ने दक्षिणापथ अर्थात्‌ नमंदा के दक्षिण के देश को जीतने का बीड़ा उठाया अपनी राज- धानी पाटलिपुत्र से चल कर बिहार ओर उड़ीसा के बनमय प्रदेश के दो

बिसेंट स्मिथ का 'ऐतिहासिक विवेक! किस अंश तक खरा वा खोटा है इस पर पाठक ही स्वयं विचार करें क्या अशोक ने धर्म-विजय के पूर्व कोई भया- नक युद्ध नहीं किया था ? क्या समुद्रगुप्त की प्रशस्ति में केवल युद्धों का ही वर्ण है ? क्या दूसरे शिलालेखों से इस प्रशस्ति में लिखी हुई बातें प्रमाणित नहीं होतीं ? जो विशेषण हरिपेण ने समुद्गगुप्त के नाम के साथ जोड़े हैं क्या उन का उस की मुद्राओं पर आभास नहीं मिलता इन प्रइनों के उत्तर से स्मिथ महाशय निरुत्तर हो सकेंगे सच तो यह है कि हरिषेण की प्रशस्ति में समुद्र- गुप्त का वृत्त और चरित्र प्रायः इतिहास-दृष्टि से निबद्ध किया गया है, काव्य- रूप से नहीं उस की रचना में कवि ने यथार्थ घटनाओं और चरित्र-गत गुणों का क्रमबद्ध वर्णन लिखा है। डाक्टर फ्लीट ने इसे देख कर कहा है कि शिडा- लेख और ताम्रलेखों को देखते हुए पुराने हिंदुओं में इतिहास लिखने की क्षमता सिद्ध होती है पीराणिक और काव्य-वणनों से इन लेखों की प्रथा बिलकुल भिन्न है। इन की परंपरा और शैली दस्तावेज़ी है। पूरा नाम, उपाधियाँ, धाम, वैश-क्रम, स्थान, मिति, संवत्‌ देते हुए ये अपना करण-कारण विदित करते हैं समुद्गगुप्त के समय की ऐतिहासिक घटनाओं और उस के जीवनचरित को अंकित करते हुए महाकवि हरिषेण ने एक एक अक्षर तोल कर इस प्रशस्ति को रचा है, जिस में इतिहास भरपूर और कावध्यांश थोड़ा है।

हम इस महाकवि के अत्यंत कृतज्ञ हैं जो नेपोलियन से किसी अँश में कम नहीं था, वरन्‌ यह कहना चाहिए कि किसी किसी बात में उस से बढ़ कर

गुप्त राजवंश १७

राजाओं को उस ने परास्त किया। वहाँ से वह दक्षिण की ओर मुड़ा ओर भारत के पूव तट की महानदी ओर कृष्णा नदी के बीच के देशों को जीतता हुआ अपने राज्य को लोट आया।

मद्रास प्रांत के कांजीवरम्‌ ( कांची ) तक समुद्रगुप्त के हमले हुए। वहाँ इस समय पल्लव वंश का राज्य था| अपने दलबल से उस ने दक्तिणा- पथ के इन अनेक राजाओं को परास्त किया, परंतु फिर अनुग्रह के साथ उन्हें मुक्त कर अपनी कीर्ति बढ़ाई उन के राज्यों को छीन कर गुप्त- साम्राज्य में मिला लेना समुद्रगुप्त को अभीष्ट था। वह तो सिफ़ यह चाहता था कि उस का एकछुनत्र शासन भारत के सभी नरेश एकमत होकर स्वीकार करें। जिन्हों ने उस की इस इच्छा का विरोध किया उन से युद्ध घोषणा कर के वह लड़ाई लड़ा यह मानना भूल है कि समुद्रगुप्त के आक्रमण दक्षिण के मालाबार, महाराष्ट्र, पश्चिमी घाट आदि प्रांतों पर हुए। दक्षिण के जितने स्थानों का उस के शिलालेख में उल्लेख है वे पूबे सटवर्ती थे। पर इस में संदेह नहीं कि उस का प्रखर प्रताप सारे ही दक्तिण देश पर लंका द्वीप तक छा गया था। सीमांत प्रदेश के राजाओं ने भी समुद्रग॒प्त के प्रभुत्व को स्वीकार किया। दक्षिण बंगाल, कामरूप (आसाम), नेपाल, कुमाऊँ, गढ़वाल आदि पूर्व ओर उत्तर के राज्यों के “प्रत्यंतः नरेश उस के अधीन हो कर उसे कर देने लगे। गुप्त-राज्य के पश्चिम ओर दक्षिण- पश्चिम में अनेक ऐसी जातियाँ पूर्व काल से बसी हुई थीं, जिन में प्रजा- तंत्र राज्य था, जो “गण-राज्य” कहलाते थे समुद्रगुप्त ने डन जातियों से

था, उस समुद्रगुप्त के नाम का निशान भी हमारी साहित्य-प्रैंथ-राशि में नहीं है उस का इतिहास उस के समय की लिखी हरिषेणक्ृत प्रशस्ति से आविभूत हुआ है भारतीय ऐतिहासिक छेखों में पूरा पूरा विशद्‌ विवरण देने के कारण यह स्त॑ंभ-लेख असाधारण महरव का है।ह*

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१८ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

भी कर वसूल किया पंजाब, राजपूताना, मालवा ओर मध्य प्रदेश में बसे हुए ऐसे अनेक “गण-राज्य” थे, जो उस के करद ओर वशंवद बन गए इन ख्तंत्रता-प्रेमी जातियों ने बड़ी कठिनाई से ही उस का सामंत बनना स्वीकार किया होगा

इन राज्यों के अतिरिक्त इस वीर विजयी ने विदेशी राजाओं के दाँत खट्टे किए वे भारतवर्ष में अब भी वतमान थे उन का बहुत बड़ा राज्य भारत के पश्चिमी प्रांत गुजरात ओर काठियावाड़ में फेला हुआ था शक जाति के “महात्षत्रप” वहाँ राज्य कर रहे थे। इस शक राज्य के अलावा पश्चिमोत्तर पंजाब से आक्सस नदी के तीर तक समुद्रगुप्त के समय में कुशन वंश के राजा शासन कर रहे थे कुशन वंश के सिक्‍कों से पाया जाता है कि ये राजा दिव पुत्र, शाही, शहानुशाही”? आदि उपाधियाँ धारण किया करते थे। समुद्रगुप्त के लेख में इन्हीं उपाधियों से इन राजाओं का उल्लेख है इस से ज्ञात होता है कि पश्चिमोत्तर भारत ओर उस के बाहर इरान तक 'शाह” ओर 'शाहंशाह” के उपाधि-धारी विदेशी राजाओं ने समुद्रगुप्तका आधिपत्य स्वीकार किया ये सारे विदेशी राजा सम्राट समुद्रगुप्त के समक्ष अनमोल उपहार ले कर उपस्थित होते ओर अपने अपने राज्य के उपभोग ओर शासन करने की उस से आज्ञा माँगते थे चीन के इतिहासकारों ने लिखा है कि लंका के राजा मेघवर्ण ने इे० स० ३६० के आस पास समुद्रगुप्त के दरबार में अमूल्य मणि-रज्रों के उपहार समेत अपने राजदूत इसलिये भेजे थे कि उसे बोधगया में सिंहल द्वीप (लंका ) से आने वाले बौद्ध यात्रियों के विश्राम के लिये एक मठ बनवाने की आज्ञा दी जाय। समुद्रगुप्त ने सिंहल के राजा की प्रार्थना को सहष स्वीकार किया तदनंतर राजा मेघवर्ण ने गया में एक विशाल मठ बनवाया और उसे बहुत कलाकोशल से सजा धजा कर उस में बुद्धदेव की रत्न जटित सुवरण-प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा करवाई सातवीं शताब्दी में भारत में पधा- रने वाले चीनी यात्री हेनसांग ने इस विशाल मठ को बोधगया में स्वयं देखा था उस के कथनानुसार उस समय इस मठ में महायान पंथ के एक

गुप्त राजवंश १९

हज़ार बोद्ध भिक्षुक रहा करते थे ओर वहाँ लंका के तीथथ यात्रियों का खूब अतिथि-सत्कार होता था

उपयुक्त वणन से स्पष्ट सिद्ध है कि समुद्रगुप्त ने हजारों कोसों की विजय- यात्रा की, भारतबष के कोने कोने में उस की विजय के डंके बजे | जहाँ कहीं वह गया वहाँ उस का लोहा माना गया पूव में त्ह्मपुत्रा नदी से पश्चिम में यमुना ओर चंबल तक, उत्तर में हिमालय से दक्षिण में नमेदा तक समुद्रगुप्त का राज्य विस्तृत था, जिस पर वह स्वयं शासन करता था इन सीमाओं के बाहर उत्तर भारत में जो जो राज्य थे वे सभी उस के साम्राज्य के अधीन हो गए। दक्षिण भारत के अनेक राजा उस के पराक्रम से वशीभूत हो कर उस के आश्रित बन गए विदेशी राजाशओं ने उस के प्रखर प्रताप के सामने अपने अपने सिर ऋुकाए | पश्चिम एशिया की ओक्सस नदी से लंका द्वीप पर्येत उस की कीर्ति-पताका फहराई इस चक्रवर्ती हिंदू सम्राद की तुलना फ्रांस के वीर योद्धा नैपोलियन बोनापाट से की जाती है। परंतु नैपोलियन की विजय-यात्रा में रूस के मोस्को नगर से पलायन करना ओर वाटरलू में योरुप की संमिलित शक्तियों से परास्त होना ये दो जैसी घटनाएं हैं वैसी समुद्रगुप्त के जीवन में कहीं भी नहीं हुई हज़ारों कोसों की दिग्विजय कर के उस ने अपने अतुल साहस, अद्भुत पराक्रम ओर अपूर्ब संगठन-शक्ति का जगत्‌ को परिचय दिया। ऐसे समय में जब रेल, तार, मोटर जैसे शीघ्रगामी यात्रा के साधन थे, जब लोग---“निस दिन चलें अढ़ाई कोस”--इस से अधिक सामथ्ये वाले थे, तब बड़ी सेना को लेकर कोसों दूर देशों पर धावा करना एक राजा का परम साहस का काम था ओर फिर उन धावों में सफल होना उस की काय-क्षमता ओर संगठन-शक्ति का ज्वलंत उदाहरण था

सम्राद्‌ समुद्रगुप्त ने अपनी दिग्विजय के उपलक्ष्य में अश्वमेध यज्ञ किया था ओर उस में दान ओर दक्षिणा देने के लिये सुबण के पदक वा सिक्‍के ढलवाए थे। उन सिक्कों पर एक ओर यज्ञ-स्तंभ में बँधे हुए घोड़े की मूर्ति ओर दूसरी ओर हाथ में चँबर लिये समुद्रगुप्त की महाराणी की

२० चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

मूर्ति अंकित हैं और उन पर “अश्वमेध-पराक्रम:' '---अर्थात्‌ अश्वमेघ-यज्ञ करने का पराक्रम जिस ने किया--लिखा रहता है। दूसरे शिलालेखों से पता चलता है कि उस ने चिरकाल से होने वाले अश्वमेध यज्ञ का अनुछ्ठान किया था और न्याय से उपार्जित अपना असंख्य धन--सुवर्ण ओर गोौओं को--उस ने यज्ञ की दक्षिणा में दिया था प्राचीन भांरत में केवल प्रतापशाली राजा ही अश्वमेध यज्ञ करने का साहस करते थे। जो राजा इस यज्ञ के लिये छोड़े हुए घोड़े को अपने राज्य में घूमने देते थे वे अश्वमेध करने वाले राजा की प्रभुता मान लेते थे, परंतु जो उस घोड़े को पकड़ लेते थे वे उस से युद्ध करने के लिये कटिबद्ध हो जाते थे। इस युद्ध में विजयी राजा का आधिपत्य विजित राजा स्वीकार कर लेता था जब बह घोड़ा दूसरे राज्यों से बिना किसी बाधा के लोट आता था तब यज्ञ होता था, जिस में दूसरे राजा संमिलित होकर विजयी राजा को “चक्र- वर्तीः--राजाधिराज'”--मान लेते थे। इस यज्ञ के करने वाले को अपने ही राज्य का नहीं वरन्‌ समस्त देश को रक्षा का भार अपने कंधे पर लेना पड़ता था। अपने देश के धर्म ओर संस्क्रति को सबत्र फेलाने का उत्तर- दायित्व भी उस के ही सिर बँधता था | जब कभी इस देश में ऐसे “चक्र- वर्ती” राजा हुए तभी इस का बहुत बड़ा भाग राजनीतिक एकता के सूत्र में बँध जाता था ओर इस की रक्षा भी भली प्रकार से होती थी। जब भारत में यवनों के आक्रमण हुए तब चक्रवर्ती मोये-नरेशों ने ओर उन के पश्चात्‌ शुंगवंशी ब्राह्मण राजाओं ने देश की रक्षा की जब शक ओर कुशनवंशी विदेशी राजाओं की इस देश पर सत्ता जमी तब चक्रवर्ती

ल्जजजनतश् नल जल तन -&-+-०+०+-००+-+ -७--++ >»लनननस.. ननत अधननाफगणण लजि,

*लछखनऊ के म्यूज़ियम में एक बदसूरत पत्थर का घोड़ा रखा है। उस पर “द गुसस देय धम्म”? टूटे अक्षरों में लिखा हुआ था। कदाचित्‌ यह समुद्रगुप्त के अश्वमेध फा स्मारक हो रेपसन को एक मुहर मिली थी जिस पर घोड़े की आक्ृति और “पराफ्रम:”” खुदा हुआ था। जे० आर० ए० एस० १९०१-- पृष्ठ १०२।

शुप्त राजवंश २१

गुप्तवंशियों ने भारत में एकछत्र शासन स्थापित किया। जब पाँचवों शताब्दी के मध्य से हूण लोगों के भारत में हमले शुरू हुए तब सम्राद्‌ स्कंदगुप्त, यशोधमंन , प्रभाकरवर्धन तथा हृषेबधन आदि महाग्रतापी हिंदू नरेशों ने विदेशियों के आक्रमण ओर पराधीनता से इस देश को बचाया | ऐसा अनुमान होता है कि विदेशियों के आक्रमण के समय धमे ओर संस्क्रति की रक्षा के लिये इस देश में 'एकाधिपत्य” राज्य स्थापित करने की तीत्र इच्छा हिंदू नरेशों के हृदय में जाग उठती थी। हमारा इतिहास इस बात का साक्षी है कि इस देश में साम्राज्य की स्थापना से हमारे धमे, संस्क्रति ओर स्वतंत्रता की रक्ता अवश्य हुई

समुद्रगुप्त केवल युद्धकला में ही पढु था, किंतु वह राजनीति में भी बड़ा दक्त था। जिस प्रकार उस ने अपने साम्राज्य की शासन-व्यवस्था की थी उस पर विचार करने से हमें उस की प्रगल्भ नीति-निपुणता का परि- चय मिलता है। गुप्त साम्राज्य को चिरस्थायी बनाना ही उस की नीति का ध्येय था। सारे विजित देशों को अपने ही राज्य में मिला कर उन पर हुकूमत करना उस ने नीतिविरुद्ध समझा | सिफ़ उत्तर भारत के कुछ छोटे छोटे राज्यों को तो उसे अपने साम्राज्य में मिलाना पड़ा | इस प्रकार आयावत के छिन्न भिन्न राष्ट्रों को एक कर उस ने वहाँ अपनी सुटृढ़ ओर निष्क॑टक सत्ता स्थापित की आयांवत के राजाओं के ग्रति उस का व्यवहार कठोर था। उस ने उन का देश छीन लिया ओर यह इसलिये कि उन के स्वतंत्र रहने से आयावते में राष्ट्रीय एकता स्थापित हो सकतीं थी ओर पश्चिमोत्तर भारत में समय समय पर होने वाले विदेशियों के हमले ही रोके जा सकते थे गुप्त-साम्राज्य के सीमा-प्रांतों को सुरक्षित रखने के लिये उस ने मगध ओर उड़ीसा के मध्य के जंगल के राजाओं को अपना सेवक बनाया | समुद्रगुप्त की इस चतुर नीति के कारण वे जंगल के लोग गुप्त-राष्ट्र के सहायक बन गए होंगे शेष सीमांत राज्यों में उस का प्रचंड शासन उसे कर दे कर, उस की आज्ञा मान कर, उसे प्रणाम कर के पूरा किया जाता था किंतु सम्राद समुद्रगुप्त सवंधा प्रचंड

२२ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

नीति का ही अवलंबन करता था। जो राजवंश अपने अपने अधिकार से भ्रष्ट हो गए थे, जो अपना राज्य खो बैठे थे, उन्हें उस ने फिर से राजा बनाया ओर स्वयं जीते हुए नरेशों का धन उन्हें फिर वापिस दे दिया। दक्षिण के दूरबवर्ती राजाओं के प्रति उस ने निग्रह की नहीं, बल्कि अनु- ग्रह की नीति का पालन किया उस ने उन्हें युद्ध से वश में कर फिर अनुग्रह के साथ उन्हें मुक्त कर दिया। उस ने दूर के राष्ट्रों के राजवंश नष्ट किए विदेशी राजा उस की विविध प्रकार से सेवा करते थे और अपने राज-शासन के लिये उस से फरमान माँगा करते थे सिंहल ( लंका ) के राजा मेघवर्ण से समुद्रगुप्त का मित्रता का संबंध था। इस प्रकार उस ने अपनी उदार ओर निर्दोष नीति की भित्ति पर गुप्त-साम्राज्य का निर्माण ओर संगठन किया था।

उपयुक्त घटनाओं पर मनन करने से यह बात स्पष्ट प्रतीत होती है कि समुद्रगुप्त 'साम” ओर “दंड” की नीति के प्रयोग में बड़ा ही दत्त था। वह अपनी नीति में बहुत तीक्षण और बहुत मृदु ही था--“न खरो भूयसा मृदुः देश-काल-पात्र को देख कर वह अपनी नीति का प्रयोग करता था। जहाँ तक हो सकता था वह पर-राष्ट्रों के साथ उदार- मनस्कता से व्यवहार करता था। विंसेंट स्मिथ का कथन है कि समुद्रगुप्त ने सिंहासनारूढ़ होते ही दूसरों के राज्यों को छीनने की नीयत से उन पर आक्रमण शुरू कर दिए थे। उस विद्वान का मत है कि पर-राष्ट्रों पर अकारण आक्रमण करना पूब देशों के लोग निंदनीय समभते थे ओर राज्य-लिप्सा ही शक्तिशाली राजाओं का उद्देश्य रहता था। समुद्र- गुप्त के विषय में विंसेंट स्मिथ की यह धारणा नितांत निराधार है। उस ने निरी राज्य-तृष्णा से वशीभूत हो कर अपनी दिग्विजय प्रारंभ की यह कहना अनुचित है। वह विजिगीषु अवश्य था और हिंदू नीतिशाञ््र के अनुसार दूसरे राष्ट्रों के मध्य अपनी ही सत्ता को सर्वोपरि ओर केंद्रस्थ बनाना चाहता था, परंतु दूसरों के राज्यों का अपहरण कर अपने साम्राज्य में मिला लेना उस का प्रयोजन था। उस के प्रयाग के शिला-

गुप्त राजवंश २३

लेख में उस की पर-राष्ट्र-नीति का स्पष्ट विवेचन किया गया है। 'दक्षिणा- पथ के सब राजाओं को उस ने क़ेद किया परंतु फिर अनुग्रह के साथ उन्हें मुक्त कर अपनी कीर्ति बढ़ाई! “आर्यावत के छोटे छोटे राजाओं से देश का उद्धार कर उस ने अपना प्रभाव बढ़ाया, आटबिक? ( जंगल के ) राजाओं को उस ने अपना परिचारक बनाया!। भ्रत्यंत ( सीमा प्रांत के ) नरेशों से कर ले कर उन से अपना प्रचंड शासन पूरा करवाया उस ने कई उत्सन्न राजवंश ओर राज्य-च्युत नरेशों की पुनः प्रतिष्ठा की?

शक, मुरंड सिंहल तथा अन्य द्वीपों के राजा भाँति भाँति से उस की सेवा में तत्पर रहने के लिये विवश हुए | कोई उस के द्रबार में आकर “आत्म निवेदन” करते थे, कोई लड़कियाँ भेट करते थे, तो कोई अपने विषय ( ज़िले ) और भुक्ति ( प्रांत ) के शासन के लिये फरमान माँगा करते थे इन उल्लेखों से यह निविवाद सिद्ध है कि समुद्रगुप्त ने साम्राज्य- निर्माण विवेक-पुरःसर किया था। जहाँ जिस नीति का आश्रय लेना उचित था वहाँ उस ने उसी का प्रयोग किया केवल राज्य-तृष्णा ही उस की पर-राष्ट्र-नीति का ध्येय था।

वह धमे-विजयी प्रसिद्ध होना चाहता था। इसलिये वह राजाओं को हरा कर छोड़ देता था।" केवल वे ही आस पास के राजा जो उस का वशंवद होना स्वीकार करते थे, अपने राज्य को खो बेठे थे, अन्यथा अधिकांश राजा तो उस की विजय के पश्चात्‌ अपने अपने राज्य का भोग करते रहे। सम्राट समुद्रगुप्त की पर-राष्ट्रनीति के नीचे लिखे उद्देश्य थे--

(१) प्रहण-मोक्षः-विजित राजाओं को फिर राज्याधिकार देना।

(२) अ्रसभोद्धारण”--बलपूबक राज्यों को छीन कर साम्राज्य में शामिल

करना

१“मृद्टीत प्रतिमुक्तस्थ घर्मविजयी नृपः। श्रिय॑ महेंद्रनाथस्य जहार तु मेदिनीम” ( रघुवै॑श, )

२४ चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

(३) 'परिचारिकीकरण'-सेवक ओर सहायक बनाना (७) 'करदानाज्ञाकरण प्रणामागमन”--कर देना, आज्ञा करना, प्रणाम के लिये आना (५) “उत्सन्न राजवंश प्रतिष्ठापन'--नष्ठ राजकुलों की स्थापना करना। (६) “आत्मनिवेदन-कन्योपायनदानः--आत्मसमपंण ओर भेट आदि स्वीकार करना (७) स्वविषय-भुक्तिशासन-याचनाद्ुपायसेवाः-विषय और भुक्ति ( प्रांत ) के शासन के लिये राज मुद्रांकित फरमान निकालना (८) 'प्रत्यय्णा'-विजित राजाओं के छीने हुए धन को उन्हें वापिस देना समुद्रगुप्त की पर-राष्ट्रनीति के जुदे जुदे पहलुओं पर विचार करते हुए स्पष्ट प्रकट होता है कि बह अपने प्रभाव” ओर '्रताप? को सारे देश में विस्तृत किया चाहता था, वह अपने बाहुबल के प्रसार से प्रथ्वी को बाँधना चाहता था" किंतु वह पर-राज्य-तृष्णा के वशीभूत था। भारत के राजनीतिक क्षेत्र में एक सुरक्षित साम्राज्य का संगठन करना ही उस का ध्येय था समुद्रगुप्त 'पराक्रमांकः को जीवन-चथो तथा चरित्र जगत्‌ के इतिहास के बीर पुरुषों की नामावली में पराक्रम का पुतला सम्राट समुद्रगुप्त अग्रगण्य है इस में किसी को कुछ संदेह नहीं। परंतु वह निरा रणरसिक योद्धा ही था। वह असाधारण प्रतिभा वाला पुरुष था। उस के चरित्र में कटोरता ओर झदुता का अद्भुत संमिश्रण था। वह जैसा शूरवीर ओर साहसी था बैसा ही सहृदय विद्वान था। प्रयाग के स्तंभ पर उस की प्रशस्ति के रचयिता महाकवि हरिषेण ने लिखा है कि १बाहुवीय्यप्रसरधरणिबंधस्य' ( पूलीट, गुप्त० शि० )

गुप्त राजवंश २७

'तीच्ण बुद्धि में वह देवताओं के गुरु बृहस्पति को ओर संगीत-कला में नारद ओर तुंबुर को भी लज्जित करता था ।” कवि की इस उक्कि पर कोई भी विद्वान विश्वास करता, क्‍योंकि अपने आश्रय-दाताओं के गुण-पर- माणु का पवत बना देना तो कवियों के बायें हाथ का खेल है परंतु कवि के कथन में बहुत कुछ सत्य है इस का हमें स्वतंत्र प्रमाण समुद्रगुप्त के सिक्कों से मिलता है इन सिक्कों पर एक ऊँचे मंच पर बैठी हुई राजमूर्ति अंकित है जिस के हाथ में एक वीणा है। इन पर एक ओर “महाराजा- धिराज श्री समुद्रगुप्त” लिखा रहता है। इन वीणांकित सिक्कों से उस के संगीत-प्रेमी होने का हमें निश्चित प्रमाण मिलता है। इसी प्रकार उस के जिन सिक्कों पर “अश्वमेध-पराक्रम:” लिखा है उन से प्रयाग की प्रशस्ति में सविस्तर वर्णित समुद्रगुप्त की बिजय-यात्रा की सत्यता सिद्ध होती है। वह बड़ा दानशील था। उस ने “आश्वमेधिक' सोने के सिक्के यज्ञ की दक्षिणा में देने के लिये ढलवाये थे | इस में संदेह नहीं कि इस प्रशस्ति के लेखक महाकवि ने समुद्रगुप्त के राज्य-काल की घटनाओं ओर उस के चरित्र के गुणों का ठीक ठीक वर्णन किया है। स्थाली-पुलाक-न्याय से इस इतिहास- कार कवि की परीक्षा कर विद्वानों ने उस के कथनों को प्रामाणिक माना है। समुद्रगुप्त बड़ा सहृदय ओर कविता-प्रेमी था। बह काव्य-रचना में ऐसा कुशल था कि विद्वान उसे 'कविराज?” कहते थे |" उस की कविता पर विद्ज्जन रीमते थे उस ने अपनो अनेक काव्य-कृतियों को विद्वानों के उपभोग के योग्य बनाया था उस ने कवि-प्रतिभा के प्रकाश करने वाले

१“यस्तु तन्न तन्न भाषाविशेषेषु, तेपु तेपु प्रबंधेषु, तरिमंस्तस्सिश्व॒ रसे स्वतंत्र: कविराज: ते यदि जगत्यपि कतिपये ।--काव्यमीमांसा, पृष्ठ १९

राजशेखर ने 'कविराज” को 'महाकवि' से उस्कृष्ट बतलाया है। कई भाषाओं में, भिन्न भिन्न प्रकार के प्रबंधों में और विविध-रसमयी रचना करने वाला कवि 'कविराज” कहलाता है | जगत्‌ में बिरले ही 'कविराज! होते हैं

२६ चद्रगुप्त विक्रमादित्य

काव्य रचे थे ।* “काव्य ओर लक्ष्मी के विरोध को उस ने मिटा दिया? “विद्वानों के लोक में उस की ग्रस्फुट कविता ने की्ति-राज्य स्थापित किया! कवि हरिषेण रचित प्रशस्ति में सहृदय सम्राट समुद्रगुप्त की कवित्व- शक्ति ओर काव्य-रसिकता की जो मुक्तकंठ से प्रशंसा की गई है उस की यथाथ्थंता उस के सिक्‍कों पर उत्कीण संस्कृत के श्लोकबद्ध लेखों से भी प्रकट होती है।

समुद्रगुप्त के चलाये हुए सिक्कों पर अंकित संस्कृत के ललित छंदों से उस का उत्कट काव्य-प्रेम सूचित होता है। सिक्कों पर 'छोक लिखने की परिपाटी सम्राट समुद्रगुप्त ने पहले पहल आविष्कृत की, जिस का उस के वंशजों ने अनुकरण किया प्राचीन मुद्रा-विज्ञान के विद्वानों का मत है कि इतने प्राचीन काल में संसार की किसी अन्य जाति के सिक्कों पर छंदोबद्ध लेख नहीं मिलते ।* यदि वह सम्राट स्वयं काव्य-रसिक होता तो सिक्कों पर कविता अंकित कराने का विचार उसे कदापि स्फुरित होता विद्वानों के सत्संग का उसे व्यसन था। उन के सहचय में वह सुख मानता था। शाम्रों के तत्वार्थ के समर्थन ओर परिशीलन में उस मेधावी का मन लगता था वह वेद-मा्ग का पक्तपाती था ओर धम की मयांदा का मानने वाला था ।* वह स्वयं विद्वान ओर विद्वानों का आदर करने वाला था ।'* प्रयाग की ग्रशस्ति के प्रणेता महाकवि हरिषेण उस सम्राट का कृपा-पात्र था, उसे राष्ट्र के शासन में बहुत उच्च अधिकार प्राप्त थे उस ने इस ग्रशस्ति में 'सांधि विश्नहिक” ( पर राष्ट्र सचिव ), 'कुमारामात्य” ( कुमार का मंत्री ) तथा 'महादंडनायक? ( प्रधान न्याया- धीश ) इन उपाधियों सहित अपने नाम का उल्लेख किया है।

१“कविमतिविभवोत्सारणं चापि कब्यम्‌ ।!

श्प्राचीन मुद्रा--प्रस्तावना *“थमंप्राचीरवंध:!--'सक्तमार्ग :---फूलीट, गु० शि० १“यस्य प्रज्ञानुपंगोचितसुखमनस:'--( वही )।

गुप्त राजवंश २७

एरण ( सागर ज़िला ) के शिलालेख से पाया जाता है कि समुद्रगुप्त के अनेक पुत्र ओर पोत्र थे ।' इस में उस के बहुत से सुवर्ण-दान का भी उल्लेख है ओर उसे “अप्रतिवाय्य॑ वीय्य” कहा गया है। उस ने अनेक युद्धों में बड़े बड़े पराक्रम दिखलाए थे ।* इसलिये वह 'पराक्रमांक' कह- लाता था। जैसा वह पराक्रमी था वैसा वह कोमल ओर दयावान था। बह कृपण, दीन, अनाथ ओर आतुर लोगों के उद्धार, शिक्षा ओर दीक्षा में संलम रहता था। काव्य ओर संगीत का प्रगाढ़ प्रेम उस को सहृद- यता सूचित करता है। शस्त्र ओर शास्त्र के धारण करने में वह परम पट था। अपने अमोघ शख््र से राष्ट्र की रक्षा कर वह शाखत्र-चिन्ता में व्यस्त रहता था किसी भी दृष्टिकोण से उस के चरित्र को देखिये, उस में अनेक असाधारण गुण मालूम होते हैं जिन का उस के सिक्के ओर शिला- लेखों से पता चलता है ।* महाकवि भतृहरि की निम्नलिखित उक्ति समुद्र- गुप्त के चरित्र में बहुत कुछ चरिताथे होती है :--

'गृहेषु मुद्िता बहुपुन्नपोन्नसंक्रामणी कुलवधु: श्रतिनी निविष्टा ।!

( फूलोठ, गु० शि० )

धयस्योजित॑ समरकर्म पराक्रमेदम!'---( वही )।

समुद्रगुप्त के सिक्कों पर खुदे हुए और शिलालेखों में लिखे हुए उस के नाम के साथ लगे हुए समान विशेषणों की तुलनाव्मक सची नीचे उद्धुत की जाती है--

मुद्रा-लेख शिलालेख (१) 'समरशतविततविजयी” (१) 'समरशतावतारणदक्षस्य'--- फ्लीट, गु०शि० (२) “सवराजोच्छेत्ता' (२) 'स्वेराजोच्छेत्ु:ः--(वही)शि० (३) 'अप्रतिरथ:' (३) 'अप्रतिरथस्य!'-- (वही) शि० (४) 'कृतांतपरशु:” (४) 'कृतांतपरशो;:!--(वही) शि०

(७५) “अप्रतिवार्य वीय्ये:” (५) “अप्रतिवाय वीय्ये;'-(वही )शि०

कक

२८ चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

'विपदि घेय्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाफपटुता युधि विक्रम: यशसि चामिरुचिव्य॑ंसनं श्रुतों। प्रकति सिद्धमिदं हि महात्मनाम ॥'

क्र 4 भढ (६) पराक्रम: (६) 'स्वभुजबलपरा-] ---(वही )शि ०५ व्याप्र पराक्रम: क्रमेक बंधो: (७) “'अश्वसेघध-पराक्रम: पराक्रमाकस्य

(७) चिरोत्सन्नाश्वमेधाहतु:

प्रथम परिशिष्ट समुद्रगुप्त पराक्रमांक' की दिग्विजय का सविस्तर विवरण

(१९ ) आयोवते को विजय

समुद्रगुप्त की प्रशस्ति में सब से पहले अच्युत, नागसेन ओर कोट कुल के राजाओं के परास्त किए जाने का उल्लेख है। अच्युत के सिक्के रामनगर (ज़िला बरेली --अहिच्छत्र) से मिले हैं कोट कुल के राजाओं के सिक्के दिल्ली ओर पंजाब के पूब प्रदेश में मिले हें ।* उक्त लेख में जितने राजाओं के नाम मिलते हैं उन सब का ठीक ठीक पता लगाना कठिन है। आर्यावत के नो राजाओं का उस में उल्लेख है जिन में सिफे दो तीन राजाओं का ही पता चलता है। उन में “गणपतिनाग? कदाचित्‌ पद्मावती (नरवर, ग्वालियर ) का नागवंशी राजा हो--जिस का सिक्कों से भी पता चलता है ।* रेप्सन का अनुमान है कि उक्त सूची का नागसेन भी पद्मावती के नागकुल ही का था हषचरित में लिखा है कि 'मैना पत्ती द्वारा कुछ गुप्त बातों के प्रकट कर दिए जाने के कारण, पद्मावती में, नागकुल का नागसेन मोरा गया था ।* रुद्रदेव संभवत: वाकाटकवंशी राजा रुद्रसेन प्रथम हो चंद्रवर्मा शायद पुष्करण (मारवाड़ ) का राजा हो, जिस का

तिन्जजजिीणी”त-+--+ वललन 3 तत+ वजन

[99897 |/प5८प्रा] (०३८० ०४2प९०, ५४०. 3, 85, 258, 264.

रचताबा। पिइटपफप्ाा (३८००४ुप९, र०|. 3, 64 478, 79.

३“नागकुरूजन्मन: सारिकाश्नावितमंत्रस्य आसीत नाशो नागसेनस्थ पद्मा- वत्याम्‌ ।! इृषंचरित

३० चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

उल्लेख सुसुनिया ( ज़िला, बाँकुड़ा, पूवे बंगाल ) के शिलालेख में मिलता है ।' बलवमा आसाम के हथष के समकालीन राजा भास्करवर्मा का पू्बज ही ।* कदाचित्‌ बुलंदशहर से मिली हुई मुहर का 'मतिल” और इस लेख का मतिल एक ही है ।' हिमालय ओर विंध्याचल के बीच का देश आयावत कहलाता था--“आरयांवत: पुण्यभूमिः मध्ये विंध्यहिमालययो:” सारा दक्षिण देश 'दक्षिणापथ” कहलाता था। नमदा से उत्तर का सारा भारत “उत्तरापथ” ओर उक्त नदी से दक्षिण का दक्षिणापथ' प्राचीन काल में कहलाता था (२ ) दक्षिणापथ को विजय-यात्रा

प्रयाग की प्रशस्ति में दक्षिणापथ के राजाओं की निम्नलिखित नामा- वली मिलती है :--

(१) कोसल के राजा महेंद्र

(२ ) महाकांतार के व्याप्रराज

(३) कोराल के मंत्रराज

(४) पिप्पुर के महेंद्र

(५) गिरिकोट्डुर के” स्वामिदत्त

(६ ) एरंडपल्चल के दमन (७)कांची के बिष्णुगोप (८) अवमुक्त के नीलराज

(९)वेज्ञी के हस्तिवर्मा नवनागास्तु भोध्ष्यंति पुरी चस्पावर्ती नृपा;। मथुरा च॒ पुरी रम्यां नागा भोक्ष्यंति सप्त पर्जिटर--कलियुग वंश० ए० ४३ १एपि० हू भाग १३, पृष्ठ १३३। *एपि० हँ० भाग १२, पृष्ठ ६९ १आहई० ए० भाग १८. प्रष्ठ ९८९

समुद्रगुप्त पराक्रमांक” की दिग्विजय का सविस्तर विवरण ३१

(१०) पालक के राजा उमग्रसेन (११) देवराष्ट्र के कुबेर (१२) कुस्थलपुर के धनंजय इत्यादि

(१) कोस्तल से यहाँ दक्षिण कोसल का तात्पये है, जिस में मध्यप्रदेश के बिलासपुर ओर रायपुर के बीच के प्रदेश का समावेश होता है

(२) महाकांतार में गोंडवाना के पूव वनमय प्रदेश शामिल हैं

(३) कौराल राज्य उड़ीसा के समुद्र तट पर के कोराल के आस पास के प्रदेश का सूचक होना चाहिये ( कि केरल का )। डाक्टर फ़्लीट ने कोराल को केरल” मान कर समुद्रगुप्त द्वारा पश्चिमी तट मलाबार पर्यन्त आक्रमण किए जाने की कल्पना की थी, किंतु फ्रेंच विद्वान जूबो-डूबरथ.ल (व0प्र५९४प-)प्07८प्रां।) ने दक्षिण का प्राचीन इति- हास” नाम की अपनी पुस्तक में सिद्ध किया है कि समुद्रगुप्त की विजय- यात्रा दक्षिण के पूवे तट तक ही परिमित थी। ऋष्णा नदी से वह आगे बढ़ा ओर उस ने केरल ( मलाबार ) पर आक्रमण किया

(४) मद्रास प्रांत के गोदावरी ज़िले में पिट्ठापुर के आस पास का प्रदेश (पिष्टपुर” कहलाता था

(५) गिरि-कोट्टूर का राज्य मद्रास प्रांत के गंजाम ज़िले में था, जिस की राजधानी कोद्टूर वतेमान कोटूर होना चाहिये

(६) एरडपह्ठल--यह राज्य गंजाम ज़िले के चिकाकोल के निकट एरंडपल्नि के आस पास होना चाहिये कलिंग के देवेंद्रवर्मा के ताम्रपत्रों में इस का उल्लेख है। ( 77%. #6. उ77, 272 )

(७) कांची वा कांजीवरम्‌ समुद्रगुप्त के समय पल्लववंशी राजा विष्णु

[0प्ररट३प-) पट; 4ै]टांए7६ ला5६0ए 0 ४८ 0९2८४), 97- 58-64.

३२ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

गोप के अधीन था। उस के साथ समुद्रगुप्त की लड़ाई कृष्णा नदी के निकट होनी चाहिये |

(८) अवमुक्त ओर कुशस्थलपुर के राज्यों का ठीक पता नहीं चला

(९) पूर्वी समुद्र तट का गोदावरी ओर कृष्णा नदियों के बीच का प्रदेश

वेंगि राज्य कहलाता था

(१०) पालक्क राज्य कृष्णा नदी के दक्षिण में था, जिस का उल्लेख पल्लव- वंशियों के ताम्रपत्नों में मिलता है

(११) देवराष्ट्र राज्य विजागापट्टम्‌ जिले के एक विभाग का नाम था। विजागापहम से मिले हुए ताम्रपत्रों से इस प्रदेश का दक्षिण के पूर्वी तट के समीप होना सिद्ध होता है

फ्रेंच विद्वान जूबो ड्बरयूल की धारण है कि समुद्रगुप्त के आक्रमण को पल्लववंशी विष्णुगोप ने बेंगी, देवराष्ट्र आदि के राजाओं से मिल कर राका हो ओर कृष्णा नदी पर ही उस का सामना किया हो कुछ भी हो, किंतु दक्षिण के इन राजाओं को समुद्रगुप्त का लोहा मानना पड़ा ।'*

(३ ) सोमांत राज्यों को विजय

समुद्रगुप्त ने सीमांत प्रदेश के राजओं को अपने अधीन कर उन्हें कर देने के लिये बाध्य किया वे राज्य निम्न लिखित थे:---

(१) समतट "- गंगा ओर ब्रह्मपुत्र की धाराओं के बीच का समुद्र

से मिला हुआ प्रदेश

(२ ) डवाक >- बोगरा, दीनाजपुर, राजशाही ज़िले

(३ ) कामरूप 55 आसाम

(४) कर्तपुरकमायूँ, अल्मोड़ा, गढ़वाल ओर कांगड़ा

(५ ) नेपाल

१गौरीशंकर ओझा--राजपूताने का इतिहास, ए० ११६, ११७

समुद्रगुप्त 'पराक्रमांक” की दिग्विजय का सविस्तर विवरण ३३

ये गुप्त साम्राज्य के पूब ओर उत्तर के सीमांत राज्य थे। इन के अति- रिक्त पश्चिम की सीमा पर नीचे लिखे गण-राज्य थे--

(१) मालव--आचीन काल में मालव जाति भारतबष के उत्तर पश्चिम प्रांत में रहती थी सिकंदर का पंजाब पर आक्रमण होने के समय मालव जाति से युद्ध हुआ था। कालक्रम से यह जाति अबंती देश में निवास करने लगी इसीलिये लोग प्राचीन अवंती वा उज्जयिनी को परवर्ती काल के इतिहास में मालव देश कहने लगे थे। इस मालव जाति के बहुत से पुराने सिक्के, विक्रम संबत्‌ पूबे की तीसरी शताब्दी के आस पास की लिपि के, जयपुर राज्य के प्राचीन नगर के खंडहर से मिले हैं जिन पर 'मालवानां जय?---/जय मालवगणस्य” लिखा रहता है। ऐसा अनुमान होता है कि मालव जाति का अधिकार जयपुर राज्य के दक्षिण, कोटा ओर भालावाड़ के प्रदेशों पर, जो मालवा से मिले हुए हैं रहा हो गुप्त-कालीन भारत में भी मालवगण मंदसोर के आस पास बसे हुए मिलते हैं ।*

(२) अर्जनायन--अजुनायन जाति के थोड़े से सिक्के मथुरा से मिले हैं जिन पर विक्रम संवत्‌ के प्रारंभ काल की लिपि में “अजुनायनानां जय:” लिखा है। इस जाति का मथुरा के पश्चिम के प्रदेश भरतपुर ओर अलवर राज्यों पर कुछ समय तक अधिकार होना अनुमान किया जा सकता है।'*

(३) यौधेय--बहुत प्राचीन काल में योधेय जाति भी भारतवर्ष के पश्चि- मोत्तर प्रांत में रहती थी। इं० स० १५० के गिरनार के शिला- लेख से पता चलता है कि महाक्षत्रप रुद्रदामा ने '"क्षत्रियों में वीर की उपाधि धारण करने वाले योधेयों को? परास्त किया था। बृहत्सं- १स्मिथ, के० को० इई० म्यू० १७०-१७३-प्राचीन मुद्रा १४७३-४६

"वही, जि० १, ४० १६१, १६६

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8४ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

हिता में गांधार जाति के साथ योधेय लोगों का भी उल्लेख है। भरत- पुर राज्य के विजयगढ़ नामक एक स्थान के शिलालेख में योधेय लोगों के अधिपति “महाराज महासेनापति” उपाधिधारी एक व्यक्ति का उल्लेख है। पंजाब की बहावलपुर रियासत में रहने वाली योहिया नामक जाति योधेय लोगों की वंशधर मानी जाती है। योधेय जाति के सिके सतलज ओर यमुना के बीच के प्रदेश में अधिक संख्या में मिलते हैं। इन के कुछ सिक्के पर “द्धण्य देवस्य भागवत: और 'योधेय गणस्य जय: आदि लेख हैं

(४) मद्रक जाति की राजधानी पंजाब में 'शाकल? स्यालकोट थी

(५) आभीर जाति बुंदेलखंड ओर मध्यप्रदेश के कई भागों में बसी हुई थी।

(६-९) प्रार्जुन, सनकानीक, काक, खपरिक--इन जातियों के निवास- स्थान भी संभवतः मालवा ओर मध्यप्रदेश में हों। शिलालेखों से पता चलता है कि सनकानीक जाति के लोग साँची के आस पास रहते थे

(४) विदेशी लोगों के राज्य

समुद्रगुप्त की प्रशस्ति में चोथी श्रेणी में नीचे लिखे विजातीय राज्यों का उल्लेख है--

(१) देवपुत्र, शाही और शहानुशाही--ये पहले कुशानवंशी राजाओं की उपाधियाँ थीं। महाराज कनिष्क के ये कदाचित्‌ वंशधर हों, परंतु तीसरी सदी में कुशन साम्राज्य के छोटे छोटे अनेक टुकड़े हो गए थे इन राजाओं का राज्य पश्चिम पंजाब से ओक्‍्सस नदी पर्यत था।

(२) शक-मुरंड--ये कदाचित्‌ उज्जेन के महाज्षत्रप थे। स्टेन कोनो ( 8६0॥ ए०॥०छ ) का कथन है कि मुरंड शब्द का अथे शक भाषा में स्वामी? होता है ओर उज्जैन के क्षत्रपों के नाम के साथ स्वामी! प्रायः प्रयुक्त होता था

समुद्रग॒प्त 'पराक्रमांक” की दिग्विजय का सविस्तर विवरण ३५

(३) तिहल से लंका का तात्पये है। चीन के इतिहासकार से पता चलता है कि सिंहल का राजा मेघबण समुद्रगुप्त का समकालीन था। डाक्टर फ़्लीट मेघवर्ण का समय इ० स० ३५१ से ३७९ प्यत मानते हैं, जिस से उस का समुद्रगुप्त के समकालीन होना सिद्ध होता है प्रयाग की प्रशस्ति में वाकाटक वंश का कहीं भी स्पष्ट उल्लेख नहीं है।

इस समय इस वंश का आधिपत्य बुंदेलखंड से कुंतल ( माइसोर ) प्रदेश

तक फैला हुआ था विंध्यशक्ति के समय इस वाकाटक वंश का अभ्युदय हुआ था। उस की वंशपरंपरा में प्रवरसेन, प्रथम रुद्रसेन, प्रथम प्रथिवी- पेण ओर द्वितीय रुद्रसेन राजा हुए थे। प्रथम प्रथिवीषेण समुद्रगुप्त के समकालीन था। उस का पुत्र द्वितीय रुद्रसेन चंद्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय के समकालीन था अजंता के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि प्रूथि- बीषेण ने कुंतल के राजा को अपने अधीन किया था। बुंदेलखंड में नचने की तलाई से मिले हुए शिलालेख से प्रकट होता है कि वाकाटक राजा प्रथम प्रथिवीषेण का सामंत व्याप्रदेव वहाँ शासन करता था जिसे संभवत: समुद्रगुप्त ने महाकान्तार के युद्ध में हराया था।'" मध्यभारत में गुप्रबंश के आधिपत्य प्रस्तत होने के पूषे बाकाटक राजा प्रथिवीषेण का प्रभुत्व दक्षिण बंश के भारत के मध्य ओर पश्चिमी प्रांतों पर स्थापित था। फ्रेंच विद्वान डूबर-योल ने सिद्ध किया है कि समुद्र- गुप्त ने महाराष्ट्र ओर खानदेश तक आक्रमण नहीं किया था, क्योंकि

“देवराष्ट्र ओर एरंडपल्ल” महाराष्ट्र ओर खानदेश के सूचक नहीं हैं।

प्रथिवीषेण का सामंत व्याघ्रदेव ओर समुद्रगुप्त द्वारा पराजित महाकांतार

का राजा व्याघराज एक ही था। इस से स्पष्ट सिद्ध है कि सम्राट समुद्र- गुप्त का आधिपत्य मध्यभारत पर स्थापित हो गया था ओर वाकाटक

'हेमचंद्र राय चौधरी--प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, पर०

२७७, २७८

१६ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य वंश के हाथ में दक्षिण के सिफ पश्चिमी विभाग बच रहे थे समुद्रगुप्त के

एरण (सागर ज़िला ) के शिलालेख से स्पष्ट प्रकट होता है कि मध्यभारत में समुद्रगुप्त ने वाकाटक वंश का प्रभाव नष्ट कर दिया था ।"

१०“बाकाटकानां महाराजश्री प्िथिवीषेण-पादानुध्यातो व्याप्रदेवोी मातापियश्नोः पुण्यार्थ कृतमिति”--- फूलीट, गुप्त-शिछालेख-सं० ५४, प० २३४

ततीय अध्याय

चंद्रगुप्त विक्रमादिय का शासन-काल ओर उस की मुख्य मुख्य घटनाएँ

सम्राट समुद्रगुप्त के राज्य-काल के शिलालेखों में तिथि-संवत्‌ का उल्लेख होने से उस के शासन-काल के घटना-क्रम का ठीक ठीक पता नहीं चलता यदि प्रथम चंद्रगुप्त ने २० वष तक राज्य किया जैसा कि जोन एलन का अनुमान है, तो समुद्रगुप्त का राज्यारोहण काल इ० स० ३३५ के लगभग होना चाहिये फ्रेंच विद्वान सिल्त्रेन लेवी ने चीनी ग्रंथों के आधार पर समुद्रगुप्त को लंका के राजा मेघवण का समकालीन होना सिद्ध किया है डाक्टर फ़्लीट मेघवण का समय ईइ० स० ३५१ से ३७९ पर्यत मानते हैं ओर समुद्रगुप्त का राज्यारोहण काल इई० स० ३३५ के निकट ही अनु- मान करते हैं। प्रयाग के स्तंभ-लेख से यही अनुमान होता है कि समुद्र- गुप्त की विजय-यात्रा के समाप्त हो जाने पर लंका से राजदूत उस के द्र- बार में आये थे। इस से स्पष्ट है कि लंका के राजदूतों का भारत में आना इ० स० ३३० के आस पास संभव नहीं था। अतणव, समुद्रगुप्त का राज्य-काल इ० स० ३३५ के लगभग आरंभ हुआ होगा | उस का राज्य दीघकालीन था जो कदाचित्‌ इ० स० ३८० के निकट समाप्त हुआ उस की महाराणी का नाम दत्तदेवी था जो उस के उत्तराधिकारी द्वितीय चंद्रगुप्त की माता थी

समुद्रगुप्त के अनेक पुत्र ओर पोत्र थे। यद्यपि द्वितीय चंद्रगुप्त उस

३८ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

का ज्यष्ठ पुत्र था, तथापि योग्यतम होने के कारण वह अपने पिता द्वारा राज्य का उत्तराधिकारी चुना गया था। चंद्रगुप्त के राज्य-काल के चार शिलालेखों पर संवत्‌ लिखे हें जिन से उस के समय का पूरा पता लगता है। इन्हीं के आधार पर इस राजा का अभिषेक इ० स० ३८० के लगभग ओर मृत्यु स० ४१३ के आस पास मानी जा सकती है। उन में गुप्त संबत्‌ ६१ (ई३० स० ३८०-८१) के मथुरा के स्तंभ-लेख, गुप्त संवत्‌ ८२ का उद्यगिरि ( ग्वालियर राज्य के भेलसा से दो मील ) की गुफा के, गु० सं० ८८ का गढ़वा (प्रयाग के समीप ) के ओर गु० सं० ९३ के सांची ( भोपाल राज्य में ) के शिलालेखों से चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का राज्य-काल भली भाँति निरधांरित हो जाता है “विक्रमादित्य! विरुद को उत्पत्ति

सम्राट्‌ समुद्रगुप्त ने कई बड़े बड़े विरुद्‌ धारण किए थे जिन में “अप्र- तिरथ?, 'कृतांतपरशु', 'सवराजोच्छेत्ता', व्याप्रपराक्रम', “अश्वमेध-परा- क्रम”, 'पराक्रमांक' आदि मुख्य थे। उस के पुत्र ओर उत्तराधिकारी द्वितीय चंद्रगुप्त के सिक्कों पर उस के भी ऊँचे ऊँचे विरुद पाये जाते हैं जिन में 'विक्रमांक', विक्रमादित्य! ,श्रीविक्रम',अजितविक्रम?,'सिंहविक्रम' आदि विशेष उल्लेख योग्य हैं। इन पूर्वाक्त विरुदों से सूचित होता है कि दोनों पिता-पुत्र बड़े ही वीर ओर विजयी योद्धा थे समुद्रग॒ुप्त ने बहुत से युद्धों में राजाओं को परास्त किया था। इसलिये वह 'सवराजोच्छेत्ता! कह- लाता था। परंतु ऐसा मालूम होता है कि द्वितीय चंद्रगुप्त को इतने अधिक युद्ध करने पड़े थे पिता व्याघ-पराक्रम” ओर पुत्र 'सिंहविक्रम! था। एक बंगाल के चीते के शिकार का शोकीन था ओर दूसरा काठिया- बाड़ के शेरों का शिकार करना पसंद करता था समुद्रगुप्त की पहुँच काठियावाड़ के जंगलों तक नहीं थी जिस पर पूण अधिकार द्वितीय चंद्रगुप्त ने ही स्थापित किया था। उक्त विरुदावली में द्वितीय चंद्रगुप्त का सब से विशिष्ट विरुद विक्रमादित्य” था| यह विरुद भारतबष में प्राचीन

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन-काल और उस की मुख्य मुख्य घटनाएँ. ३९

काल से प्रचलित था। एक समय उज्जेन के किसी राजा ने शकों को नष्ट कर के विक्रमादित्य” का विरुद धारण किया था ओर “विक्रम-संवत्‌' इ० स० ५७ में चलाया था।' यह कथा हिंदू साहित्य में परंपरा से चली

१विक्रम संवत्‌ ( ई० स० पूच ५७ ) के प्रवर्तक उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के विषय में पहले विद्वानों का मत था कि वह ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं है किंतु आज कल उस की ऐतिहासिकता स्वीकार की जाने लगी है

'कालिकाचाय कथा! नामक जैन ग्रंथ से पता चलता है कि मध्य भारत में शकों ने विक्रमाब्द के पहले अपना राज्य स्थापित किया था जिन्हें विक्रमादित्य उपाधिवाले एक हिंवू राजा ने परास्त किया। उस कथा में कहा गया है कि (६० स० पूरे ७७ से प्रारंभ होने वाले ) विक्रम संवत्‌ के प्रवतेक उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने जैन धर्म के संरक्षक शकों को मालवा में परास्त किया उक्त जैन कथा में यह भी लिखा है कि विक्रम संवत्‌ १३५ वर्ष तक प्रयोग में आता रहा, किंतु इस अवधि के पश्चात्‌ दूसरे किसी शक-विज्ेता ने दूसरा संवत्‌ चलाया। निःसंदेह, यह दूसरा-संवत्‌ शकसंवत्‌ ही था जो इं० स० ७८ में झुरू हुआ था और जिस का विक्रम संवत्‌ से १३७ वर्षों का अंतर था ई० स० ४०७५ के मंदसोर के शिलालेख में विक्रम संवत्‌ का मालव संवत्‌ के नाम से उल्लेख मिलता है। उस का 'मालव गण! में प्रचलन होने से वह संवत्‌ “मालव गणाउग्नात” कहलाता था इस से स्पष्ट सिद्ध हे कि ईै० स० पूव्वे ५७ में इस संवत्‌ का कोई श्रचारक राजा था जिस ने, जैन और हिंदू जनश्रुतियों के अनुसार, शकों को परास्त किया था। जिन शकों का विक्रमादित्य से मालवा में युद्ध हुआ था उन के राजाओं ने शाही” और 'शहानुशाही” अथात्‌ राजा- घिराज का विरुद धारण कर रखा था इस बात का भी उस कथा में उल्लेख है जिस का समर्थन शक राजाओं के सिक्कों पर उत्कीर्ण उपाधियों से पूरी तरह होता है इस में कुछ संदेह नहीं कि उक्त कथानक का आधार ऐतिहासिक है। यह अत्यंत संभव है कि इंसा के जन्म से पूव पहली शताब्दी में पद्िचिम भारत

४० चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

आती है। गुप्तवंशी द्वितीय चंद्रगुप्त ने भी इस 'शकारि विक्रमादित्य” का अनुकरण कर, गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, मालवा, राजपूताना आदि प्रदेशों पर राज्य करने वाले शक जाति के ज्ञत्रपों का राज्य छीन कर उन के वंश की समाप्ति कर दी थी। अतएव, उस “शकारि' गुप्त राजा ने भी उज्मेन पर अधिकार कर “विक्रमादित्य” का प्रतापसूचक विरुद धारण करना उचित समभा।।

'सोमदेव रचित कथासरित्सागर? में ( <-४-३ ) लिखा है--“विक्रमा- दित्य इत्यासोद्राजा पाटलिपुत्रकः--विक्रमादित्य नामक पाटलिपुन्र का राजा था। संस्क्त साहित्य में उसे उज्जयनी का भी राजा बतलाते हैं। “विक्रमादित्यः---उपाधि धारण करने के लिये शकों का नाश करना एक आवश्यक काय था, क्‍योंकि इस विशिष्ट विरुद को मालवा के राजा ने शकों को निमूल करने पर धारण किया था। द्वितीय चंद्रगुप्त के पौत्र स्कंद गुप्त ने भी यही खिताब धारण किया था, क्योंकि उस ने भी विदेशीय हूणों के हमलों से देश की रक्षा की थी। शक और हूण जाति के शत्रुओं की ओर बढ़ती हुईं शकों की प्रचंड बाढ़ को रोकने वाला हिंदू आख्यानों में प्रसिद्ध वीर विक्रमादित्य, इंसा के पूर्व पहली शताब्दी में हुआ था, जिस ने अपने देश की विदेशियों के आऋमण से रक्षा की ।*

हमारे प्राचीन लेखों में भी इस प्रथम शकारि विक्रमादित्य का अनुसंधान मिलता है। गाथा सप्ततती” नामक एक प्राचीन प्राकृत गाथाओं का संग्रष आंध्रवंशी हाल राजा के नाम से उपलब्ध है। गोदावरी के तट पर पैठन ( प्रति- ष्टान ) में उस की राजधानी थी डाक्टर रामकृष्ण भांडारकर मे हाल का समय ६० स० की पहली शताब्दी माना है।

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चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का शासन-काल और उस की मुख्य मुख्य घटनाएँ ४१

को पराजित कर ढितीय चंद्रगुप्त ओर स्कंदगुप्त ने विक्रमादित्य? का प्राचीन, प्रताप-सूचक विरुद ग्रहण किए थे गुप्त वंशियों के सिक्कों पर उत्कीण

श्रीयुत सी० वी० वेच्य और महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ई० स० पूरे ५७ में विक्रमादित्य का राजा होना मानते हैं स्टेन कोनो (80९07॥ (0०70ए ) ने सिद्ध किया है कि विक्रम संवत्‌ के पूर्व शकों का साम्राज्य सिंधु नद के प्रदेश पर स्थापित था जिन की उपाधियाँ उक्त जेन कथा और मुद्रा-लेखों के अनुसार “शहानुशाही” मिलती हैं दोलमी ( 00!0७79 ) ने लिखा है कि शक-राज्य काठियावाड़ तक फेला हुआ था। इन्हीं शकों ने उज्जैन के राजा गदभिल को जो विक्रमादित्य का पिता था, पराजित किया किन्तु उज्जैन पर शकों का अधि- कार सिफ़ चार वर्ष तक रहा जहाँ विक्रमादित्य ने उन्हें नष्ट भ्रष्ट कर दिया। तत्पक््चात्‌ उस ने ई० स० पूर्व ७७ में विक्रम संवत्‌ स्थापित किया इसके १३५७ वर्ष उपरान्त शकों का उज्जैन पर फिर अधिकार हुआ जब से शक संवत्‌ का प्रचार हुआ जैन-कथा की उक्त बातों की पुष्टि पुराणों से भी होती है जिन में लिखा है कि सात गदभिल राजा होंगे और उन के उपरान्त १८ शक-राजा ३८० वर्ष राज्य करेंगे---

“सप्त गई भिला भूयो भोक्ष्यन्तीर्मा वसुन्धराम्‌ शतानि त्रीणि अशोतिश्व शका ह्यष्टादशेव तु ॥” --मत्स्य पुराण, पाजिटर, कलियुग-राजवंश, ए० ४६

जैन-साहित्य में महावीर के निर्वाण और विक्रमाब्दु के आरंभ तक की राज-परंपरा के काल का उल्लेख मिलता है। अवन्ती ( उज्जैन ) का राजा पालक ( ई० पूर्व ५२७ में ) डीक महावीर के निवोण के दिन गद्दी पर बेठा था उस ने ६० वर्ष राज्य किया; १५५७ वर्ष नंद वंश का राज्य रहा; १०८ वर्ष मौर्य वंश का, ३० वर्ष पुष्यमिन्र का, ६० वर्ष बलमित्र और भानुमित्र का, नह- वाहन ४० वर्ष, गदंभिल का राज्य-काल १३ वर्ष का और शक का चार वर्ष

४२ चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

लेखों ओर विरुदों से उन के व्यक्तिगत गुण, कम, खवभाव तथा कार- नामों के स्पष्ट संकेत हमें मिलते हैं जिन का हम आगे चल कर विवेचन करेंगे

चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की दिग्विजय-यात्रा

[ मालवा, गुजरात और काठियावाड़ को विजय ]

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की शक-विजय के प्रमाण उस के समय के शिलालेख ओर सिक्कों तथा पश्चात्कालीन दंंतकथाओं से मिलते हैं। हरिषेण की विजय-प्रशांस्त में समुद्रगुप्त के द्वारा पराजित जातियों की नामावली में शक-मुरंड आदि का भी उल्लेख है। ऐसा मालूम होता है कि शक-राजाओं ने समुद्रगुप्त के प्रभुत्व को मान लिया था, क्‍योंकि उस के बढ़ते हुए प्रताप के सामने मस्तक भुकाने ओर “आत्म-निवेदन” करने के सिवाय वे कदाचित्‌ कुछ कर सकते थे समुद्रगुप्त ने उन के राज्य पूर्वोक्त काल-गणना के अनुसार ई० पूत्रे ७५२७ ( महावीर निवोणतिथि ) से [ ६०+-१७५७--१ ०८+-३०--६०--४०+-१३--४८८ ] ४७० घटाने से हमारा समथ विक्रमाबदद के समीप ( ई० पू० ५७ ) जाता है शकों ने ई० पूवे ६१ वा ६० में मालवा पर आक्रमण कर गद्द॑भिल्ल को परास्त किया होगा, किंतु इस से चार ही वर्ष बाद विक्रमादित्य ने शकों से मालवा को छीन छिया। पुरातव्व-वेत्ता स्टेन कोनो का कथन है कि इस जैन-कथा पर अविह्ववास करने का लेश भर भी कारण मुझे नहीं प्रतीत होता बहुत से विद्वान भारतीय फ्रमा- गत कथाओं को असत्य मान बेठते हैं और विदेशी लेखकों की मनगढ़त बातों का तुरंत विश्वास कर लेते हैं। किंतु इन कथाओं की प्रत्येक बात भिन्न भिन्न ऐतिहासिक साधनों से प्रमाणित की जा सकती है।* #स्टेन कोनो---खरोष्ठी शिलालेख, कोपैस ३० इंडिकेरम्‌, जिल्‍द २,

भाग १, एछ २५७५-२७

चद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की दिग्विजय-यात्रा ४३

को गुप्त-साम्राज्य में संमिलित नहीं किया था, क्‍योंकि पश्चिमी भारतवष में शक-क्षत्रपों के सिक्के इ० स० ३८९ तक प्रचलित रहे। चंद्रगुप्त का सब से पहला स्तंभ-लेख गुप्त संवत्‌ ६१ अथोत इ० स० ३८०-८१ का मिलता है जिस से उस का राज्यारोहण-काल इस तिथि के निकट होना सिद्ध होता है। मगध के राज-सिंहासन पर बैठने के कुछ वर्षा के बाद ही द्वितीय चंद्रगुप्त ने अपने पिता का अनुकरण कर दिग्विजय के लिये प्रधान किया होगा

सम्राट समुद्रगुप्त ने आयावत ओर दक्षिणापथ के बहुत विस्तृत प्रदेशों पर अपनी विजय-यात्रा की थी जिस का हम पहले सविस्तर वर्णन कर चुके हैं | उस युद्ध-यात्रा में कुशन, शक, मुरंड आदि विदेशी राजाओं ने उस का लोहा मान कर उस की अधीनता स्वीकार की थी। उस ने उन के राज्य नहीं छीने ओर उन की आभ्यंतरिक स्वतंत्रता में किसी तरह की बाधा डाली परंतु द्वितीय चंद्रगुप्त ने अपने पिता की युद्ध-नीति को बदल दिया। दक्षिण के प्रसिद्ध वाकाटक राज्य को तो उस ने अपनी राजकुमारी प्रभावती गुप्ता का वाकाटक वंशी राजा रुद्रसेन द्वितीय से विवाह कर अपने राज-मंडल में--अपनी प्रभाव-परिधि में--शामिल कर लिया था | इस कारण वह दक्षिणापथ की ओर से तो बिलकुल ही निश्चित हो बैठा था। परंतु भारत के पश्चिम ओर परिचमोत्तर प्रांतों पर अब भी विदेशी जातियों का अधिकार था, जिन से उसे कुछ भय की आशंका अवश्य रहती होगी अतएब, चंद्रगुप्त ने उन्हें जड़ मूल से नष्ट कर डालने का बीड़ा उठाया उस के समय के छोटे छोटे शिलालेखों ओर सिक्कों से उस की युद्ध-यात्रा का यत्किंचित्‌ वृत्तांत मिलता है। मालवा के उदयगिरि पवत की गुफाओं में एक लेख मिला है जिस में चंद्रगुप्त के युद्धअचिव वीरसेन ने कहा है कि राजा जिस समय समस्त पृथ्वी जीतने के लिये आया था, उस समय में भी उस के साथ इस देश में आया था।

डड चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

“कत्स्नपृथ्यीजयाथेंन राशेघेह सहागतः भकक्‍तया भगवतः शंभोगेहामेतामकारयत्‌ ॥”” ( उदयगिरि का गुहालेख )

वीरसेन ने वहाँ भगवान शंभु की पूजा के लिये एक गुफा बनवाई थी। “उसे कुलक्रमागत सचिव पद प्राप्त था, वह चंद्रगुप्त के संधि- विग्रह-विभाग में नियुक्त था, वह पाटलिपुत्र का रहने वाला था, वह व्याकरण, साहित्य, न्‍न्याय-शास्र ओर लोकनीति का पंडित ओर साथ साथ कवि भी था, इत्यादि बातें उस ने अपने विषय में लिखी हैं। उस ने अपने स्वामी चंद्रगुप्त का इस शिलालेख में उल्लेख करते हुए ऐसे विशेषण उस के नाम के साथ जोड़ दिए हैं कि जिन के लेषालंकार से उस राजा की उपाधि “विक्रमादित्य' ध्वनित होती है। “अंतर्ज्योति आदित्य को आभा वाला ओर विक्रम के मोल से राजाओं को खरीदने वाला? इत्यादि विशेषणों से चंद्रगुप्त का विरुद “विक्रमादित्य” स्पष्ट ध्वनित होता है अतएव, इस शिलालेख में पहले चंद्रगुप्त का नहीं किंतु दूसरे का ही उल्लेख है। इस में तिथि-संवत्‌ होने से यह शंका हो सकती थी कि यह शिलालेख प्रथम चंद्रगुप्त के समय का है। परंतु, उदयगिरि की गुफा का दूसरा शिलालेख जिस में 'परमभद्वारक महाराजाधिराज श्री चंद्रगुप्त के सामंत! सनकानिक महाराज विष्णुदास के पुत्र के दान का उल्लेख है, गुप्त संवत्‌ ८२ (इ० सं० ४०१) का है। इस से अनुमान होता है कि ई० सं० ४०१ के पूर्व ही चंद्रगुप्त का मालवा पर अधिकार हो चुका था, जहाँ वह अपने “सांधि-विग्नहिक” सचिव वीरसेन को साथ लेकर अपनी युद्ध-यात्रा समाप्त कर कदाचित्‌ लोटा था। उस का यह युद्ध पश्चिमी भारत के शक जातीय ज्षत्रप राजा से हुआ था जिस में उस की विजय हुईं। उस ने मालवा, गुजरात ओर सुराष्ट्र गप्त-साम्राज्य में मिला लिए।

चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की दिग्विजय-यात्रा ४७

पश्चिमी भारत के शक राजवंश का संज्षिप्त इतिहास

पश्चिमी भारत के शक राजवंश के इतिहास के निर्माण करने में हमें कुछ शिलालेख ओर कई हज़ार सिक्कों से सहायता मिलती है। इसा की पहली शताब्दी में शकों ने मालवा ओर सोराष्ट्र ( काठियावाड ) में एक नवीन राज्य स्थापित किया था इस वंश के राजाओं की उपाधि “्षत्रप” ओर 'महाक्षत्रप? थी। ईरान में “क्षत्रप” शब्द का सूबेदार के अथ में प्रयोग होता था ये शक सूबेदार जब स्वाधीन हो गए तब “महाक्षत्रप” की उपाधि धारण (करने लगे। “महाज्षत्रप” उपाधि वाले शक जाति के दो राजवंशों ने भिन्न भिन्न समय में मालवा ओर सोराष्ट्र में अधिकार प्राप्त किया था। प्रथम शक वंश के केवल दो राजाओं के सिक्‍के मिले हैं पहले राजा भूमक के ताँबे के सिक्के पर खरोष्ठी ओर बत्राह्मी अक्षरों में “चज्षहरातस क्षत्रपस भूमकस” लिखा है ज्ञदरात उस के वंश का नाम होना चाहिये। भूमक का कोई शिलालेख वा तिथि-युक्त सिक्का नहीं मिला जिस से उस का काल निणय किया जा सके। क्ञषहरात वंश का दूसरा राजा नह- पान था। नहपान की पुत्री दक्षमित्रा का विवाह शक जातीय उषवदात से हुआ था उषवदात के लेख नासिक ओर कार्ले की गुफा में मिले है जिन से पता लगता है कि नहपान का राज्य नासिक ओर पूना से लगा कर, मालवा, गुजरात सुराष्ट्र ओर राजपूताने में पुष्कर से उत्तर तक था उस के लेख से मालूम होता है कि वह नहपान की आज्ञा से मालवों से घिरे हुए उत्तमभाद्र क्षत्रियों को छुड़ाने के लिये राजपूताने में गया था ओर उन्हें भगा कर उस ने पुष्कर तीथ में स्नान कर तीन सहस्न गो ओर एक गाँव दान किया था ।" दानी उषवदात ने प्रभास-क्षेत्र (काठियावाड़)

१(१) ए० हूं, जिल्‍द ८, ७८ ओझा-राजपूताने का इतिहास, भाग १०३॥ (२) वही; जिल्‍द ८, पृ० ६०

४६ चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

में आठ ब्राह्मण कनन्‍्याओं का विवाह करवाया ओर कितने ही गाँव ब्राद्यण और बोद्धों को दिए। उस ने जगह जगह धमेशाला, घाट ओर कूएँ बनवाए। इन लेखों में नहपान के राज्यांक वा किसी दूसरे संवत्‌ के ४१ वें, ४७२ वें ओर ४५ वें वर्ष का उल्लेख है। कुछ विद्वान इन वर्षा को शक संवत्‌ के अंक मानते हैं ओर तदनुसार इसा की दूसरी शताब्दी के प्रारंभ में नहदपान का समय निश्चित करते हैं। नहपान की मत्यु के उपरांत दक्षिण के आंधवंशी राजा गोतमीपुत्र शातकर्णी ने शकों के इस पहले क्षत्रप वंश का अधिकार नष्ट कर दिया और नहपान के चाँदी के सिक्कों पर अपना नाम लिखवाया पश्चिमी भारत के शक ओर दक्षिण के शातकर्णियों का संघर्ष ईसा की पहली ओर दूसरी शताब्दी में बराबर जारी रहा | शक संवत्‌ के पहले शतक में शक जाति का मालवा ओर सुराष्ट्र पर फिर से अधिकार हो गया। इस दूसरे क्षत्रप वंश का संस्थापक चष्टन था। उस ने नहपान के पश्चात्‌ नष्ट हुए क्षत्रपों के राज्य को फिर से स्थापित किया। उसी ने उज्जैन को अपनी राजधानी बनाया। चष्टन के वंश के सिक्कों पर राजा के नाम ओर उपाधियों के साथ उस के पिता का नाम ओर उपाधियाँ तिथि-समेत अंकित मिलती हैं जिन के आधार पर इस ज्षत्रप वंश का श्ृंखलाबद्ध इतिहास लिखा जा सकता है। चष्टन् का पोत्र महाक्षत्रप रुद्रदामा उस के वंश में सब से प्रतापी राजा हुआ उस ने मालवा, सुराष्ट्र, कच्छु, राजस्थान, सिंध ओर कोंकन आदि प्रदेशों पर अधिकार कर के बहुत बड़ा साम्राज्य स्थापित किया था। उस ने दक्षिणापथ के राजा शातकर्णी को दो बार परास्त किया था ओर योधेय नाम के वीर ज्षत्रियों को हराया था। सुराष्ट्र के गिरनार पवंत पर शक संवत्‌ ७२ ( इ० सं० १५० ) का खुदा हुआ एक बड़ा संस्कृत भाषा का शिलालेख मिला है,' जिस में रुद्रदामा के साम्राज्य का विवरण है ओर

१गिरनार का रुद्दामा का शिलाछेख--एपिग्राफिका इंडिका जिसद

चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की दिग्विजय-यात्रा ४७

अतिवृष्टि के कारण सुदशन नामक भील के टूटे हुए बाँध को उस के सूबे- दार पह्चव वंशी सुविशाख द्वारा जीर्णोद्धार करवाने का उल्लेख है उज्जैन के क्षत्रप वंश में २२ राजाओं की नामावली मिलती है और उन का राज्य-काल शकाब्द ( ई० सं० ७८ ) के आरंभ से इ० सं० के चतुर्थ शतक के प्राय: अंत तक रहा प्रयाग के समुद्रगुप्त के लेख से पता चलता है कि शक लोगों ने भी उस की अधीनता स्वीकार की थी। स्वामी रुद्र- सिंह शकजातीय क्षत्रपवंश का अंतिम राजा था, जिस के सब से पिछले चाँदी के सिक्कों पर महाक्षत्रप उपाधि ओर शकाब्द ३१० (१) (ई० स० ३८८-३९७ ) मिलता है। चंद्रगुप्त ठ्वितीय के समय का मालवा में उदयगिरि का शिलालेख गुप्त संवबत्‌ ८२ (३० स० ४०१-२ ) का है उसी स्थल के दूसरे शिलालेख से पता चलता है चंद्रगप्त देग्विजय करता हुआ मालवा पहुँचा था | बहुत संभव है कि इसी यात्रा में चंद्रगुप्त ने गुजरात ओर काठियावाड पर भी अधिकार कर लिया हो। अतएव उस की विजय-यात्रा का समय ईं० सं० ३८८ से ४०१ के मध्य होना चाहिये। गुजरात और सोराष्ट्र पर से शकों का अधिकार उठ गया तद्नंतर, चंद्र- गुप्त द्वितीय ने क्षत्रपों के सिक्रों के ढंग पर बने हुए अपने नाम के चाँदी के सिक्‍के गुप्त संवत्‌ ९० ( इ० स० ४०९ ) के आस पास ढलवाये थे। इन सिकों से स्पष्ट सिद्ध होता है कि ३० सं० ४०९ के करीब भारत के पश्चिमी प्रदेश गृप्त-साम्राज्य में शामिल कर लिये गए थे

मालवा, गुजरात, सोराष्ट्र आदि प्रांतों में क्षत्रपों का राज्य तीन शतक से कुछ अधिक काल तक रहा महाकवि बाण ने जनश्रुति के आधार पर हर्षेचरित में लिखा है कि शत्रु के नगर में पर-सत्री-कामुक शक्रपति को ख््री के वेष में प्रच्छन्न चंद्रगुप्त ने मार डाला संभव है कि इस किंवदती में चंद्रगुप्त के सौराष्ट्रविजय के समय की घटना का संकेत हो ।'

१“अपिपुरे परकलश्रकामुक॑ कामिनीवेशगुप्तरच॑द्गुप्त: शकपतिमशात्तयत्‌' --थाण, हषेचरित

४८ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

इस महान विजय से बड़े विभवशाली प्रदेश गुप्त-साम्राज्य में मिल गए अति प्राचीन काल से भड़ोच, सोपारा आदि पश्चिमी ससुद्र-तट के बंदरगाहों द्वारा भारत का पाश्चात्य देशों से निरंतर व्यापार होता चला आता था। वहाँ की शुल्क की आमदनी से इस समय गुप्त-नरेश धनकुबेर बन गए होंगे। जान पड़ता है कि द्वितीय चंद्रगुप्त ने शक-विजय के समाप्त हाने पर “विक्रमादित्य” की उपाधि अपने नाम के साथ जोड़ी होगी और उच्लैन को अपने पश्चिमो प्रांतों को राजधानी बनाया होगा ।" प्राचीन समय से उज्मेन विद्या ओर व्यापार का बड़ा केंद्र था। हिंदुओं की सात पवित्र पुरियों में इस की गणना थी।

“अयोध्या मथुरा माया काशी काञ्ली अवंतिका पुरी द्वावती चेव सप्तते मोक्षदायका: ॥”!

कविकुलगुरु कालिदास ने अपने मेघदूत काव्य में इस का वणन करते हुए लिखा है कि यह विभवसंपन्न पुरी स्वग का चमकता हुआ टुकड़ा है---'दिवः कांतिमत्खण्डमेकम” विद्या ओर वैभव का प्रसिद्ध केंद्र होने से इस पवित्र पुरी पर हिंदू नरेशों का बड़ा अनुराग रहता था। भारत

१“बंबई प्रांत के धारवाड़ ज़िले के गुत्तल के पिछले कुछ गुप्तवंशी राजा अपने शिलालेखों में “उज़यिनों पुरवराधोशवर”' की उपाधि धारण करते थे जिस का तात्पय यह होगा कि वे उज्जैन में राज करने वाले पूर्व के किसी प्रतापी राज- वंश के वंशधर थे | वे अपना वंशक्रम उज्जैन के विक्रमादित्य से आरंभ हुआ मानते थे और चंद्रभुप्त के कुलरूपी सुधा-सम्लुद्र के पू्णचंद्र अपने आप को कहते थे उन के शिलालेखों में जो विक्रमादित्य और चंद्रगुप्त के उल्लेख हैं वे एक ही ध्यक्ति के वाचक हैं, क्योंकि उसी चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने उज्जैन पर, विदेशियों को निकार कर, अधिकार जमाया था एक स्थल पर उज्नयिनी की जगह उन्हों ने 'पाटलिपु रवराधीश्वर' अपनो उपाधि लिखी है जिस से स्पष्ट है कि दक्षिण के गुप्तवंशी अपनी मूल राजधानी पाटलिपुमत्र को भूले थे।” घोम्बे गज़ेटियर, जि० १, भाग २, फ्लोट, कनारीज़ ज़िले के राजवंश, पृष्ठ ५७८

चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की दिग्विजय-यात्रा ४९

के इस प्रसिद्ध विद्यापीठ में रह कर विजातीय महाज्षत्रप रुद्रदामा ने भी संस्कृत काव्य-कला में कोशल प्राप्त किया था यह उस की गिरनार की प्रशस्ति में लिखा है

पश्चिमी भारत का बड़ा भारी व्यापारिक केंद्र होने से उज्मेन नगर पाश्चात्य देशों में भी प्रसिद्ध था। ग्रीस के भूगोलज्ञ टालेमी ने इं० स० १३० के करीब भारत के प्रसिद्ध बंदरगाहों ओर व्यापारिक नगरों का बणान करते हुए अपने पंथ में उज्जेन (ओज़ीन) का भी उल्लेख किया है।

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य को दक्षिण के वाकाटक वंश से संचि ओर उसका राजनोतिक महरव [ दक्षिण के वाकाठक वंश का संक्षिप्त परिचय ] वैज्ञानिक आविष्कारों के पूव भारतवष तीन प्राकृतिक विभागों में बैँटा हुआ था | हिमालय ओर विंध्य पवेतमालाओं के बीच का प्रदेश “आर्यावत” वा “उत्तरापथ” कहलाता था नमेदा नदी के दक्षिण से तुंग- भद्रा नदी तक का देश “दक्षिणापथ? माना जाता था। भारत के सुदूर दक्षिण प्रांत को तामिल वा द्राविड़ देश कहते थे। दक्षिण भारत के इन दोनों प्रांतों का परस्पर घना संबंध रहता था, किंतु आयांवत से इन देशों का राजनीतिक पार्थक्य पूवकाल में अक्सर रहता था। राजनीतिक वि- भिन्नता के होते हुए भी समस्त देश की संस्क्रति का तीनों ही विभागों पर कालक्रम से एक सा प्रभाव पड़ता था | विद्या, कला वा धमे संबंधी जो आंदोलन आर्यावत में होते थे उन का असर धीरे धीरे दक्षिण की चरम सीमा तक पहुँच जाता था। प्राचीन काल में भाषा, वेष, जाति ओर राज- नीति के विभेद होते हुए भी समस्त भारत का जीवन समान संस्क्रति के सूत्र में ओतग्रोत रहता था। गुप्त-साम्राज्य के समय में तो आयावत ओर दक्षिण प्रांतों का राजनीतिक पार्थक्य भी बहुत कुछ मिट गया था। समुद्र- गुप्त के चक्रवर्ती-क्षेत्र” में प्रायः दक्षिण के समस्त राज्य गए थे।

५० चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

दक्षिण राज्यों को स्वाधिकार में कर उन पर स्वयं शासन करना गुप्त वंशियों को अभीष्ट था | कदाचित्‌ वे ऐसा कर भी नहीं सकते थे, क्‍यों कि दक्षिण के राजवंशों में तीसरी से छठी सदी तक वाकाटक वंश का प्रताप बहुत बढ़ा चढ़ा था तीसरे शतक में दक्षिण के आंध्रवंश की शक्ति के क्षीण होने पर वाकाटक वंश का ग्रभुत्व धीरे धीरे सारे दक्षिणापथ पर फैल गया था। गुप्न-सम्राटों से वाकाटक वंशियों का घनिष्ठ संबंध था। वे गुप्त वंशियों के मांडलिक नहीं, मित्र थे। इस से स्पष्ट है कि उन का प्रताप ओर वैभव कुछ कम था वाकाटक-वंशपरंपरा' में विंध्यशक्ति का नाम सब से पहले मिलता है। उसी ने इस बंश की पहले पहल प्रताप-पताका फहराई उस के पुत्र महाराज प्रवरसेन प्रथम ने अश्वमेध यज्ञ किए ओर सम्राट की पदवी प्राप्त की। उस के उत्तराधिकारी क्रम से गोतमीपुत्र, रुद्रसेन प्रथम, प्रथ्वीषेण प्रथम, ट्वितीय रुद्रसेन ओर

बराकाठक राज-परंपरा विध्यशक्ति

प्रवरसेन प्रथम रुद्रसेन पृथ्वीषेण प्रथम | रुद्र सेन द्वितीय > प्रभावतीगुत्ना (द्वितीय चं॑द्रगुप्त और | कुबेरनागा की राजपुश्री ) प्रवरसेन द्वितीय नरेंद्रसेन | पृथ्वीषेण द्वितीय

| हरिषेण --बालाघाट ताम्रपन्न, एपि० है जि० ९, सं० ३६।

चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की दिग्विजय-यात्रा ५१

द्वितीय प्रवरसेन हुए अजंता के शिलालेख से पता चलता है कि पहले प्रथ्वीषेण ने कुंतल ( माइसोर ) के कदंबवंशी राजा को परास्त किया वाकाटकों की वंशावली अजंता की १६ वीं ओर १७ वीं गुफाओं के दो शिलालेखों से मिली है चम्मक, सिवानी ओर छिंदवाड़ा के ताम्रपत्रों में भी उस का उल्लेख है इन ताम्रपत्रों में लिखा है कि ह्वितीय रुद्रसेन ने महाराजाधिराज देवगुप्त की राजकुमारी से विवाह किया। पूना से मिले हुए एक ताम्रपत्र के लेख से पता चलता है कि देवगुप्त चंद्रगुप्त द्वितीय का ही नामांतर था। इस में गुप्त वंशावली का भी उल्लेख है इस ताम्र- पत्र में चंद्रगुप्त की राजपुत्री ओर वाकाटक रुद्रसेन की महाराणी प्रभा- वती के भूमि दान करने का उल्लेख है। रुद्रसेन की म्र॒त्यु के बाद युवराज दिवाकरसेन के बाल्य-काल में महाराणी प्रभावती ने स्वयं राज्य-प्रबंध करते समय यह दान दिया था। गुप्त ओर वाकाटक वंशों का घनिष्ठ राजनीतिक संबंध इस लेख से प्रमाणित होता है। इस में महाराणी प्रभावती ने अपने पिता और पति के वंश की कीर्ति पर खाभिमान प्रकट किया है ओर अपने पति रुद्रसेन को वैष्णव धर्मानुयायी बतलाया है उस का पिता चंद्रगुप्त भी 'परम भागवत? कहलाता था कनूल जिले में श्रीशील नाम का प्रसिद्ध मंदिर था। वहाँ के स्थल-माहात्म्य में

““वाकाटकललामस्य (क्र) म-प्राप्त॒नुपश्रियः जनन्या युवराजस्य शासनं रिपु शासनम्‌ ”?

33082 स्वस्ति नंदिव्धनादासीदूयुप्तादिराजो महाराज श्रीघटोस्कचस्तस्य सप्पुश्रो श्रीचंद्रगुप्तस्तस्य सत्पुग्रो5नेकाश्रमेधयाजी ' ** *** श्री समुद्गगुस्त:--तत्पाद- परिगृहदीत: एथिव्यामप्रतिरथ: स् राजोच्छेत्ता चतुरुदघिसलिलास्वादितयज्ञा अनेक- गोहिरण्यकोटिसहस्रप्रद: परमभागवतो महाराजाधिराज श्री चंद्रगुप्तस्तस्प दुह्िता नागकुलसंभूतायां श्रीमहादेव्यां कुबेरनागायामुत्पन्नोभयकुछालंकार भूतात्यंत- भगवद्धक्ता वाकाटकानां महाराजश्रीरव्सेनस्याग्रमहिषी युवराज श्रीदिवाकरसेन- जननी श्रीप्रभावतीगुप्ता '** ***”?”? पूना प्छेट्स एपि० ६० जिबद १५।

५२ चेद्रगुप्त विक्रम[दित्य

यह कथा लिखी है कि चंद्रगुप्त की राजकुमारी चंद्रावती को श्रीशैलेश्वर पर अनन्य भक्ति थी ओर वह प्रतिदिन उस पर मल्लिका की माला चढ़ाया करती थी

ह० सन्‌ ४००-५०० के मध्य में वाकाटकों का साम्राज्य दक्षिण भारत के अधिकांश भाग पर फेल चुका था कुंतल के राजा इन के सामंत बन चुके थे वाकाटक राज्य की दक्षिण सीमा ऋष्णा नदी के तटस्थ वतमान कनूल नगर थी। गुप्तराज्य से प्रथक्‌ करने वाली नमंदा नदी इस की उत्तरी सीमा थी। दक्षिण के ठीक मध्य भाग में वाकाटकों का अधिकार था ओर उन के ही द्वारा गुप्कलीन कला-कोशल, संस्कृत वाहइमय ओर ब्राह्मण-धर्म का प्रसार ओर अभ्युत्थान सारे दक्षिण देशों में हुआ होगा

शिल्प-कला में दक्षिण ने उत्तर भारत से भो कहीं अधिकतर उन्नति प्राप्त की थी अजंता विहार की अद्भुत चित्र-कला, उद्यगिरि, जुन्नार, इलोरा, नासिक, कान्हेरी, कार्ले की चट्टानों से खोद कर बनाई गुफाओं के शिल्प ओर निर्माण कला दक्षिण भारत की सभ्यता के उत्तरोत्तर उन्नति के ज्वलंत उदाहरण हैं वाकाटकों के राज्य-काल में बेदिक यज्ञ-यागा- दिक का ओर ब्राह्मण घम्म के शैव ओर भागवत संप्रदायों का प्रचार भी दक्षिणापथ में बढ़ा, क्योंकि इस वंश के राजा ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे। साहित्य की भी श्रीवृद्धि उन के समय में हुईं। महाकवि बाण ने हषचरित में पूवकालीन प्रसिद्ध कवियों का उल्लेख करते हुए लिखा है कि प्रवरसेन ने 'सेतु काव्य” रचा था, जो सूक्षिरत्नों का सागर है।' यह प्रवर- सेन ( द्वितीय ) वाकाटक नरेश द्वितीय रुद्रसेन का पुत्र ओर उत्तराधि- कारी था रुद्रसेन के पश्चात्‌ चोथा प्रतापी राजा हरिषेण हुआ, जिस के राज्य-काल में अजंता के शिलालेख वाली गुफाएँ खोदी गई थीं

कीतिप्रेवरसेनस्य भप्रयाता कुम्र॒ुदोज्ज्वला सागरस्य पर पार कपिसेनेव सेतुना॥ बाण, हर्षचरित जूबो डयूबरयोल (7०४ए०प 7प्र0/०प) दक्षिण का प्राचीन इतिहास

चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की दिग्विजय-यात्रा

हरिषेण ओर इन गुफाओं का काल लगभग द० स० ५०० अनुमान किया जाता है। गुप्तवंश ओर वाकाटक वंश के बीच मित्रता का संबंध पाँचवीं सदी के अंत तक बना रहा, जो दोनों ही के लिये बड़ा हित कर सिद्ध हुआ होगा। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का वाकाटक नरेश रुद्रसेन के साथ अपनी कन्या प्रभावती के विवाह करने का एक मुख्य कारण यह भी होगा कि ई० स० ४०० के लगभग ज्षत्रपों से जीते हुए मालवा ओर सुराष्ट्र प्रांत दक्षिण-नरेशों के हमलों से सुरक्षित रहें | नमंदा के उस पार के एक शक्तिशाली राजवंश से 'समसंधिं? और मित्रता की नीति का अनु- सरण कर चंद्रगुप्त ने अपनी प्रगाढ़ नीतिनिपुणता ओर दूरदर्शिता का परिचय दिया। गुप्त-साम्राज्य की रक्षा ओर चिरस्थिति के लिये यही नीति परम उपादेय थी ओर कदाचित्‌ पश्चिमी क्षत्रप वंश के नाश करने में भी बहुत उपयोगी सिद्ध हुई

बंगाल के विलोचिस्तान तथा दक्षिण समुद्र पयंत

सम्राट्‌ “चंट्र! को विजय-यात्रा

दिल्ली के समीप कुतुबमीनार के पास के लोह-स्तंभ पर खुदे हुए लेख में “चंद्र! नाम वाले जिस विजयी राजा का वृत्तांत लिखा है बह “चंद्र! कोन था ? क्या बह पहला वा दूसरा गुप्त सम्राद्‌ चंद्रगुप्त था वा अन्य कोई राजा था ? इन प्रश्नों पर पुरातत्वविदों में परस्पर बड़ा मतभेद रहा है। अन्य गुप्त शिला-लेखों की शैली से भिन्न उस चंद्र की विजय-अ्रशस्ति में कहीं भी संवत्‌ अथवा राजवंश का उल्लेख होने से उस वीर विजयी का ठीक ठीक पता नहीं लगता इस लेख का प्रतापशाली राजा चंद्र यदि चंद्र- गुप्त विक्रमादित्य मान लिया जाय तो हमें उस के समय की दो महान घटनाओं का पता चलता है पहली यह घटना थी कि बंगदेश में शत्रुओं ने मिल कर उस के विरुद्ध राज-द्रोह का मंडा उठाया, किंतु राजा चंद्र ने युद्ध में अपने खज्न से उन्हें धराशायी कर दिया सिंधु नद के सात मुखों

५४ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

को लाँघ कर समर में विजातीय वाह्नलीकों को उस ने जीता यह दूसरी घटना थी इन दो घटनाओं के उल्लेख के अतिरिक्त इस स्तंभ-लेख में कहा गया है कि उस के पराक्रम रूपी पवन के भकोरों से दक्तिण समुद्र अब तक सुवासित हो रहा है ।” 'डस ने एकाधिराज्य अपनी भुजा से प्राप्त किया और चिरकाल तक उसे भोगा,” भक्तिभाव से विष्णु में निविष्मति हो कर उस राजा ने भगवान विष्णु का एक ऊँचा ध्वजस्तंभ विष्णुपद्‌ नामक पहाड़ी पर स्थापित किया? | इस उपयुक्त लेख की बातों पर विचार करने से प्रतीत होता है कि जिस प्रतापशाली चंद्र का इस में वर्णन है वह सवा चंद्रग॒प्त द्वितीय ही हो सकता है। वह अपने आप को “परम भागवत” मानता था ओर प्रजा भी उसे ऐसा ही कहती थी

(१) इस लेख की अंतिम पंक्तियों में राजा चंद्र की भगवद्धक्ति का विशद वणन है।

(२) इस लेख में चंद्र के 'एकाधिराज्य” का उल्लेख है। चंद्रगुप्त द्वितीय ने अपने पिता समुद्रग॒प्त से एक विशाल साम्राज्य प्राप्त किया था ओर मालवा, गुजरात ओर सोराष्ट्र देशों को जीत कर पश्चिम पयोधि तक अपना साम्राज्य बढ़ाया था। समुद्रपयत प्रथ्वी का राजा 'एकराट्‌? कह- लाता था। “चिरकाल तक एकाघिराज्य? के भोगने वाला प्रथम चंद्रगुप्त नहीं हुआ, बल्कि द्वितीय चंद्रगुप्त था, जिस का शासन-काल लगभग इ० स० ३८० से ४१४ तक रहा था।

(३) दक्षिण समुद्र तक जिस शूरवीर का यश फैल रहा हो ऐसा राजा अवश्य ससुद्रगुप्त ही होना चाहिये--“चतुरुदधिसलिलास्वादितयशस:?, परंतु जो यश पिता ने पाया उसे उस के पुत्र ओर उत्तराधिकारी चंद्रगुप्त द्वितीय ने बढ़ाया ही, घटाया नहीं, इस का इतिहास साज्ञी है। उपयुक्त विशेषण से दोनों पिता-पुत्र का वर्णन करना नितांत उचित है। पूना से मिले हुए प्रभावतीग॒प्ता के ताम्रशासन में चंद्रगुप्त ठितीय का भी उक्त विशेषण मिलता है

चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की दिंग्वजय-यात्रा ५५

(४) बंगाल में चंद्र के विरुद्ध शत्रुओं का मिल कर युद्ध के लिये कटि- बद्ध हो जाने की घटना समुद्रगुप्त के परवर्ती काल में ही होना संभव है, क्योंकि बंग-देश के राजाओं ने चंद्रग॒ुप्त द्वितीय को भारत के पश्चिम ग्रांतों में युद्ध में व्याप्त देख कर कदाचित्‌ गुप्त-साम्राज्य से स्वतंत्र हो जाने का उद्योग किया होगा।' समुद्रगुप्त के समय बंगाल तो गुप्त-साम्राज्य के अधीन हो ही चुका था। प्रयाग की प्रशस्ति में यद्यपि बंग-देश का उल्लेख नहीं है तथापि समुद्रगुप्त के साम्राज्य के अधीन 'डवाक' (ढाका ओर सुनार गाँव) ओर 'समतट? (न्रह्मपुत्रा नदी के तटस्थ प्रदेश ) ओर कामरूप (आसाम) नाम के बंगाल के ही राज्य थे दामोदरपुर (जिला दीनाजपुर) से मिले हुए ताम्रपत्र से ज्ञात होता है कि उत्तरी बंगाल (पुंडबधेन भुक्ति) इ० स० ४४७३-४४ में गुप्त-साम्राज्य में शामिल था। अतएवं, यही अनु- मान ठीक मालूम होता है कि बंगाल के राजविद्रोह को चंद्रगुप्त द्वितीय ने शांत किया होगा

(०) सिंधु के सात मुखों को पार कर चंद्र ने वाह्नीक लोगों को जीता था। बलख का माग सिंधु के मुख की ओर से नहीं था। जोन एलन के मतानुसार 'वाह्नीक' शब्द से यवन ओर पह्मव की भाँति सिंधु के पारवर्ती किसी विदेशी जाति का तात्पये हो सकता है जो कदाचित्‌ बलो- चिस्तान के आस पास बसी हुईं थी। इसलिये चंद्र ने बलख़ तक जा कर बलोचिस्तान पर आक्रमण किया होगा

(६) प्राचीन लिपि-तत्व के अनुसार, फ्लीट, होनले, स्मिथ आदि विद्वान इस लोहस्तंभ के अक्षरों को गुप्त-काल के प्रारंभ का ही मानते हैं।इस समय ऐसा प्रतापशाली ओर कोई चंद्र नाम का राजा होने से इस लेख को चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का ही समभना युक्ति-संगत मालूम होता है।

तुलना कीजिए---बड्जाजुत्खाय तरसा नेता नौसाधनोथतान निचवखान जयस्तम्भान्‌ गंगासत्रोतोंतरेषु सः रघवंद्या,

५६ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

पूर्वाक्त लेख के संबंध में महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि यह लेख चंद्रवर्मा का है जिस का उल्लेख समुद्रगुप्त के जीते हुए आययावत के नो राजाओं में है। इस मत के समर्थन में उन्हों ने दो शिलालेखों के प्रमाण दिए हैं। पहला लेख बंगाल को सुसुनिया पहाड़ी का है, जिस में पुष्करण (मारवाड़) के राजा महाराज सिंहवर्मा के पुत्र महाराज चंद्रवर्मा के द्वारा चक्रस्वामी के मंदिर में चक्र अपण करने का उल्लेख है। इसी आधार पर उक्त शास्त्री महोदय ने चंद्रवर्मा को बंग-विजेता मान कर महरोौली के स्तंभ पर के चंद्र से मिला दिया है दूसरा शिलालेख मंदसोर से मिला है जिस में लिखा है कि मालव संवत्‌ ४६१ (इ० स० ४०७ ) में सिंहवर्मा का पुत्र नरबर्मा ( पश्चिम ) मालवा का शासक था। अतएब चंद्रवर्मा नरवर्मा का बड़ा भाई होगा इे० स० ४०४ में नरवर्मा चंद्रगुप्त द्वितीय का समकालीन था। नरवर्मा के राज्य-काल के पूव समुद्रगुप्त ने (इं० स० ३४५-३८० ) चंद्र- वर्मा को परास्त किया था। मालवा के इन वमीत राजाओं की निम्न- जयवमन्‌

संहवमन्‌-( सुसुनिया, मंदसोर ) |

(मलिक? चंद वर्मन-* ( समुद्गगुप्त से विजित ) नरवमन्‌ (ई०स०४०४) चं० गु० की [ ३४५--३८० हूँ० स० ] समकालीन विश्ववरम न्‌*े

बंधुवमन्‌ (ई० स० ४३६ ) कुमारगुप्त का सामंत

१८पुष्करणाधिपते महाराज सिहवर्मण: पुश्रस्य महाराज श्री्च॑द्ववर्मण: कृति: घक्रस्तामिन: दासाग्रेणातिसष्ट: ।”! एपि० ई० १३ देखो पृ० ५७ |

चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की दिग्विजय-यात्रा ५७

लिखित वंशावली गंगधार ( फालरापाटन ) और मंदसोर के संवत्‌ समेत शिलालेखों से मिलती है:--

समुद्रगुप्त ओर कुमारगुप्त के शासन-काल के मध्य में चंद्रवर्मा आदि राजाओं का स्वाधीन हो जाना असंभव प्रतीत होता है। द्वितीय चंद्रगुप्त ने अपनी युद्ध-यात्रा मालवा आदि पश्चिमी भारत के प्रांतों में विशेष रूप से की थी। उस के उत्तराधिकारी कुमारगुप्त के समय में मालवराजा बंधु- वर्मा गुप्त-साम्राज्य का सामंत ( मालवा का गोप्ता ) था। इ० स० ४०४ से इ० स० ४७३६ तक की ३२ की अवधि में उक्त चंद्रवमो, नरबमों आदि राजा द्वितीय चंद्रगुप्त वा कुमारगुप्त से स्वतंत्र हो गए इस का कोई प्रमाण नहीं मिलता महाराजाधिराज चंद्रगुप्त प्रथम वा समुद्रगुप्त के काल में चंद्रवर्मा का, सारे आर्यावत के राज्यों को लांध कर ओर मगध-सम्राटों को कुछ समभ कर, बंग-विजय करना हमें असंभव लगता है। सुस॒- निया के लेख में केवल चक्रदान का ही वर्णन है अतः चंद्रवर्मा बंगाल में तीथे-यात्रा के निमित्त गया होगा अतएव, उक्त शासत्री जी की “चंद्र” संबंधी कल्पना हमें निरी निमूल मालूम होती है

महरोली के स्तंभ पर का “चंद्र! प्रथम चंद्रगुप्त भी नहीं हो सकता, क्यों- कि सिंधु के उस पार बसे हुए वाह्वीकों पर मगध से चल कर आयावते के ओर शक, कुशन आदि अनेक राज्यों को लांघध कर उस का आक्रमण करना दुष्कर ही नहीं, असंभव जान पड़ता है। वस्तुतः उन अनेक राज्यों से प्रथम चंद्रगुप्त के पश्चात्‌ समुद्रगप्त को युद्ध करना पड़ा था जैसा कि उस के प्रयाग के स्तंभ लेख में वर्णित है। इस के अलावा प्रथम चंद्रगुप्त के “परम भागवत! होने की प्रसिद्धि नहीं हुईं। गुप्तकाल के सिक्‍के ओर शिलालेखों में 'परम भागवत? कहलाने वाला पहला राजा द्वितीय चंद्रगुप्त

कुमारगुप्ते प्थिवरीं अरशासति २३ बभूव गोप्ता नृपविश्ववर्मों | २४ , तस्यात्मज ... शपर्बधुवसों २६

मंदसोर का स्तंभलेख, हं० स० ४३६ फ्लीट, गु० शि० १८

५८ चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

ही था अतएव, हमारा अनुमान है कि बंगाल से बलोचिस्तान के देशों तक दिग्विजय करने वाला, शकारि, परम भागवत, महाराजाधिराज द्वितीय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ही था, जो दिल्ली के लोह-स्तंभ पर उत्कीण प्रशस्ति में “चंद्र” के नाम से प्रथित हुआ है उस के कुछ सिक्‍के ऐसे भी मिले हैं जिन पर एक ओर “श्रीचंद्र” ओर दूसरी ओर 'गुप्त' लिखा रहता है उस के कलशांकित सिक्कों पर सिफ़ एक ओर “चंद्र! लिखा रहता है ओर इस नाम के ऊपर अधे चंद्र का आकार बना होता है चंद्र की विजय-प्रशस्ति के 'ोकबद्ध होने से उस में चंद्रगुप्त के पूरे नाम का निवेश नहीं हो सकता था। अतणएव उक्त सिक्कों की तरह “चंद्र” से ही उस के नाम का संकेत किया गया है। बंगाल की खाड़ी से सिंधु के पार तक जिस की विजय-बैजयंती फहराती थी, जिस ने समस्त प्रथ्वी के विजय की यात्रा के लिये चल कर शक वंश को समूल उच्छिन्न किया था, जिस का प्रताप दक्षिण के विशाल वाकाटक-राज्य के कुंतल ( मैसोर ) देश पर्यत छाया हुआ था, जिस के पराक्रम का द्योतक विरुद विक्रमादित्य! था वह 'पराक्रमांक” सम्राद समुद्रगुप्त का पुत्र द्वितीय चंद्रगुप्त ही था कदाचित्‌ महाकवि कालिदास ने इंदुमती के स्वयंवर में एकत्र राजाओं का वरणन करते हुए, केषालंकार से, अपने आश्रयदाता इसी 'मगधेश्वर की प्रशंसा नीचे के 'छोक में की हो-- काम जहृपाः संतु सहस्मशो5न्ये राजन्वतीमाहुरनेन भूमिम नक्ष्त्रताराप्रहसंकुलापपि ज्योतिष्मतों चंद्रमसेव रात्रि: ( रघुवंश, )

चोथा अध्याय

द्वितीय चंद्रगुप्त का चरित्र

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के विषय में कोई ऐसा बृहत्‌ शिलालेख नहीं मिला जैसा उस के पिता सम्राट समुद्रगुप्त के विषय में मिलता है अत- एवं, इस महाप्रतापी सम्राट के जीवन-बृत्तांत के लिखने के ऐतिहासिक साधन बहुत ही कम हैं उस के चरित्र की रूप-रेखा विशद्‌ रूप से नहीं लिखी जा सकती यदि कोई महाकवि हरिषेण के सद्ृश प्रशस्ति-लेखक उस का आश्रित होता तो कदाचित्‌ उस के जीवन के बृत्तांत ओर चरित्र की चारुता का परिचय हमें मिलने का सोभाग्य होता उस के अधिकार- काल के शिलालेखों और सिक्कों से जो कुछ थोड़े बहुत उस के जीवन संबंधी संकेत मिलते हैं उन्हें एकत्र कर लेने पर हमें वह अपने प्रतापी पिता के सदृश कई बातों में प्रतीत होता है समुद्रगुप्त की भाँति द्वितीय चंद्रगुप्त ज्येष्ठ पुत्र होने पर भी अपने भाइयों में योग्यतम होने के कारण अपने पिता द्वारा राज्य का उत्तराधिकारी चुना गया था। गुप्र-सम्राटों की बंशावलियों में प्रायः उल्लेख मिलता है कि चंद्रगुप्त समुद्रगुप्त का पुत्र था, वह अपने पिता द्वारा उत्तराधिकारी चुना गया था--“तत्परिग्रहीत:” ओर महादेवी दत्तदेवी की कोख से उत्पन्न हुआ था समुद्रगुप्त की प्रशस्ति में स्पष्ट लिखा है कि उस के पिता प्रथम चंद्रगुप्त ने अपने सब राजकुमारों में ज्येष्ठ होने पर भी समुद्रगुप्त को ही अपना उत्तराधिकारी बनाया था। समुद्रगुप्त ने भी उस की नीति का अनुसरण कर अपने योग्यतम पुत्र द्वितीय चंद्रगुप्त को साम्राज्य के शासन का भार सुपुद कर, 'सवत्र

६० चद्रगुप्त विक्रमादित्य

जयमिच्छेत्युत्रादिच्छेत्पराजयम्‌? इस नीति को चरिताथ किया ।' समुद्रगुप्त ने चंद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी बना कर अपने अभीष्ट में पूण सफ- लता पाई यह उस के परवर्ती काल के इतिहास से निर्विवाद सिद्ध है। चंद्रगुप्त द्वितीय निरा रणरसिक सम्राद था अपने पिता की भाँति वह विद्वानों का आश्रयदाता ओर विष्णु का परम भक्त था। पुरानी दिल्ली की प्रसिद्ध लोह की लाट (जो कुतुब मीनार क्रे पास एक प्राचीन मंदिर के बीच खड़ी हुई है ) चंद्रगुप्त ने बनवा कर विष्णुपद नाम की पहाड़ी पर किसी विष्णु-मंद्र के आगे बड़ी श्रद्धा-भक्ति पूवक ध्वज-स्तंभ के रूप से स्थापित करवाई थी उद्यगिरि की गुफा के तथा साँची के शिलालेखों से विदित होता है कि उस ने विद्वानों को ऊँचे ऊँचे अधिकारों पर नियत किया था चंद्रगुप्त के संधि-विग्नह-विभाग का मंत्री पाटलिपुत्र निवासी कबि वीरसेन था जो व्याकरण, साहित्य न्याय ओर लोकनीति का ज्ञाता था। उस ने उदय गिरि में राजा के साथ रह कर भगवान शिव के अचनाथथ एक गुफा उत्सग की थी। इस से स्पष्ट है कि परम वैष्णव होते हुए भी चंद्रग॒प्त शैव मतावलंबियों का आदर करता था। साँची के शिलालेख से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त के यहाँ किसी बड़े सैनिक पद पर बोद्ध अम्रकादेव* नाम का अफसर नियुक्त था, जिस ने साँची के काकानोबोट नाम के महाविहार के आयेसंघ को २५ दीनार और एक गाँव प्रतिदिन भिक्षुओं के भोजन के लिये ओर रलह्न-य॒ह में दीपक जलाने के लिये दान दिए थे

'परम भागवत” कहलाने वाले महाराजाधिराज चंद्रगुप्त का उच्च पदस्थ अधिकारी, जो अपने आप को राजा का परम क्ृपापात्र ओर ऋृतज्ञ मानता था, यदि बोद्ध भिक्ुओं के लिये ओर रत्नग्रह में दीपक जलाने के लिये दान दे तो इस से प्रकट होता है कि गुप्त-सम्राट ओर उस के अधि-

१८“रूप तदोजस्वि तदेव वीये तदेव नेसगिंकमुनच्नतत्वम्‌ कारणात्स्वाद्ि भिदे कुमार: प्रवतितो दीप इृच प्रदीपात्‌॥”! रघुवंश १“अनेक समरावाप्तविजययशस्पताक: फूछीट, गु० द्े०

द्वितीय चंद्रगुप्त का चरित्र ६१

कारी बोद्ध, शैव, वेष्णब आदि संप्रदायों के प्रति आदर-सत्कार वा दान करने में किसी पर भेद-भाव रखते थे। ऐसे उदास्मनस्क सम्राट के शासन में भिन्न भिन्न संप्रदायों में परस्पर विद्वेष होने का कोई अवसर होता था। चीनी यात्री फाहियान ने भी अपने भारत के भ्रमण-वृत्तांत में उस समय के राजा और प्रजा की उदारता ओर दानशीलता की भूरिशः प्रशंसा की है।

द्वितीय चंद्रगुप्त ने अनेक खिताब धारण किए थे, जो उस के विविध प्रकार के सिक्कों पर अंकित मिलते हैं इन उपाधियों में विक्रमांक, विक्र- मादित्य, श्रीविक्रम, अजितविक्रम, सिंहविक्रम, नरेंद्रचंद्र, परम भागवत, महाराजाधिराज, इत्यादि मुख्य हैं ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी भग- वद्धक्ति, वीरता ओर प्रताप को जगत्‌ में प्रख्यात करने के लिये ही उस ने इन सब महान उपाधियों को अपने सिक्कों पर खुदवाया होगा। समुद्रगुप्त की भाँति उस ने भी अपने सिक्कों पर ललित संस्कृत छुंदों में अपना नाम ओर कारनामे लिखवाए। उदाहरणाथे, सिंहवधांकित सिक्कों पर संस्कृत के वंशस्थ छंद में यह पद्‌ लिखा रहता है :---

नरेंद्रचंद्र: प्रथितश्रिया दिव॑ जयत्यजेयो भुवि सिहविक्रम:

उस के छन्नधरांकित सिक्कों पर उपगीति छंद में लिखा रहता है-- “क्षितिमवजित्य सुचरितेर्दिवंजयति विक्रमादित्य:”

“पृथ्वी को जीत कर विक्रमादित्य सुचरितों से ( पुण्यकर्मा से ) स्वग को जीतता है ।”

सुचरित एवं उत्तम कर्मोा' से स्वग के जीतने का साधन हिंदू धमे के अनुसार यज्ञयागादिक का अनुष्ठान है। “स्वगे कामो यजेत्‌”--स्वग की इच्छा करने वाला यज्ञ करे इस प्रकार की विधि हिंदू शात्रों में मिलती है। यज्ञ-जनित पुण्य से मनुष्य देवता और इंद्र की पदवी पा सकता है, ऐसा हिंदुओं का बहुत पुरातन विश्वास है। इस से स्पष्ट प्रकट होता है

६२ चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

कि चंद्रगुप्त विक्रमादित्य को यज्ञ, दान आदि वैदिक कर्मोा' के अनुष्ठान में बड़ी अभिरुचि थी ।*

संभवत:, परम भक्त ओर धमंपरायण होने के कारण द्वितीय चंद्रगुप्त “राजाधिराजर्षि? कहलाता था, जैसा कि उदयगिरि के लेख में वीरसेन ने उल्लेख किया है। कई एक शिलालेखों में उस के नाम के साथ 'परम भागवत? जोड़ना आवश्यक सममभा गया था उस का कोटुंबिक जीवन भी धार्मिक भाव से प्रभावित मालूम होता है उस की राजपुत्री प्रभावतीगुप्ता अपने पिता की तरह अपने आप को “अत्यंतभगवद्धक्ता! अपने ताम्रशासकों में लिखा करती थी चंद्रगुप्त विक्रमांक के कुछ सिक्कों पर 'रूपकृती”? लिखा होने से मुद्रातत्वज्ञ विंसेंट स्मिथ ने अनुमान किया है कि वह नास्य-कला में प्रवीण ओर नाटकों का रचयिता था, क्योंकि रूप वा रूपक शब्द का अथे नाटक है ओर कृती का अर्थ रचने वाला है। परंतु जोन एलन इस पद्‌ का पाठांतर “रूपाकृती” बतलाते हैं ओर रूप और आकृति इन दो पदों से उस के शारीरिक ओर आध्यात्मिक गुण सूचित होते हैं ऐसा मानते हैं।* चंद्रगुप्त विक्रमांक खय॑ कदाचित्‌ नाट्यकार हो, पर साहित्य का प्रेमी ओर पोषक अवश्य होगा, जैसा कि भारत की साहित्यिक कथाओं में उज्जेन के राजा विक्रमादित्य के विषय में प्रसिद्ध है। संस्कृत के प्रसिद्ध गद्य-कवि सुबंधु ने--जो छठे शतक के अंत में हुए थे--अपनी 'वबासव- दत्ता! नाम की आख्यायिका में लिखा है :--

“सा रसवत्ता विहता नवका विलसंति चरति नो कक: सरसीव कीतिशेष॑ गतवति भुवि विक्रमादित्ये ॥?”

अर्थात्‌ 'रसवत्ता नष्ट हो चुकी, नये लोग विलास करने लगे | कोन किसे नहीं खा जाता ? सरोवर की भाँति जब प्रथ्वी पर विक्रमादित्य की कीर्ति शेष रह गई ।!

१जोन एलन---गुप्तवंश के सिफ्क्रे---प्रस्तावना--9० १०७ वही पूृ० ११२

द्वितीय चंद्रयुप्त का चरित्र

महाकवि राजशेखर ने साहसांक नाम के आदश साहित्य-प्रेमी उज्मेन के राजा का उल्लेख किया है ओर कहा है कि उस को संस्कृत विद्या में इतना उत्कट प्रेम था कि उस ने अपने अंतःपुर में भी संस्कृत बोलने का नियम कर दिया था ।' यह हम पर सुविदित है कि चंद्रगुप्त द्वितीय के सिक्कों पर “विक्रमांक” उपाधि मिलती है। साहसांक ओर विक्रमांक दोनों पर्यायवाची पद हैं। संभवत: यह उज्जन का राजा साहसांक चंद्रगुप्त विक्रमांक ही हो राजशेखर ने लिखा है कि उज्मेन में काव्यकारों की परीक्षा हुआ करती थी ओर वासुदेव, सातवाहन, शूद्रक, साहसांक आदि पहले नरेश उन्हें दान मान से परितुष्ट करते थे। राजशेखर ने जिन “ब्रह्मसभाओं” का वणन किया है उन के सभापति राजा होते थे ओर वे स्वयं विद्वान्‌ होते थे

राजशेखर ने लिखा है कि कालिदास, मेंठ, भारवि, चंद्रगुप्त आदि काव्यकारों की उज्जयिनी में परीक्षा हुई थी। कदाचित्‌ पूर्वाक्त चंद्रगुप्त उज्मेन का गुप्त-सम्राद विक्रमादित्य ही हो। पाटलिपुत्र में शाख्रकारों की परीक्षा होती थी। वहाँ से परीक्षोत्तीण हो कर उपवर्ष, वषे, पारिनि, पिंगल, व्याडि, वररुचि, पतंजलि ने शाख्रकार रूप से ख्याति प्राप्त की थी इस पुरानी क्रमागत कथा का राजशेखर ने उल्लेख किया है सम्राद्‌ समुद्र- गुप्त को तो विद्वानों के सत्संग का व्यसन ही था--प्रज्ञानुषंगोचितसुख- मनसः”, वह कविगोष्ठी में बैठ कर अनेक अपनी काव्य की रचनाओं से

“स्भवने हि भाषा नियमन॑ यथा प्रश्ुविदधाति तथा भवति श्रयते हि उज्नयिन्या साहसाको नाम राजा ते संस्क्ृतभाषात्मकमंत :पुर एवं प्रवतितो नियम: |” --काव्यमीमांसा, ए० ५० | श्रुयते चोज्नयिन्यां काव्यकारपरीक्षा-- “हह कालिदासमेंदावन्ना मररूपसूरभार वयः हरिद्च॑द्रच॑द्रगुप्तो परीक्षिताविह्ठ विशालायाम्‌ ॥।”! “वासुदेवसातवाहनशृद्रकसाइस|कादीन्सकर्ांसभापततीनू दानमानास्यामजु- कुयोत ।! --काथ्यमीमांसा, ए० ५५

६४ चंद्रयुप्त विक्रमादित्य

विद्वनों का मनोरंजन किया करता था--“विद्वज्ननोपजीव्यानेककाव्य- क्रियाभि:', विद्जज्ञोक में उस को कविता का कीर्ति-राज्य मिला था-- “बिदल्लोके स्फुटबहुकविताकीतिराज्य॑ भुनक्तिग, शाखज्ञों की सभा में शाल्र के तत्त्वाथ का वह समर्थन करता था--शाम्ततत्त्वार्थभतु:। उस का शाख- पांडित्य तलस्पर्शी था--ेदुष्य॑ तत्त्वभेदि! कबि राजशेखर ने जैसे बि- द्वानों के आश्रयदाता आदर्श राजा का वर्णन किया है वह समुद्रगृुप्त और विक्रमादित्य में सबंथा चरिताथ्थ होता है विद्वानों का दानमान से सत्कार करना तो गुप्त-सम्राटों ने अपना कुल-धर्मे मान रखा था। काव्यालंकार सूत्रवृत्ति में बामन ने (३० स० नवम में ) चंद्रगाप्त के “चंद्रप्रकाश! नाम वा उपाधि वाले नवयुवक पुत्र को विद्वानों का आश्रयदाता लिखा है-- सोञ्यं संगप्रति चंद्रगुप्ततनयः चं॑द्रप्रकाशो युवा जातो भुपतिराश्रय: कृतधियां दिष्ल्या कृतार्थश्रम:॥

जोन एलन के मतानुसार “चंद्रप्रकाश” द्वितीय चंद्रगुप्त के पुत्र और उत्तराधिकारी कुमारगुप्त का विशेषण कदाचित्‌ हो सकता है, क्‍योंकि कुमारग॒प्त के सिक्कों पर गुप्तकुलामलचंद्र” और “गुप्तकुलव्योमशशी” आदि उपाधियाँ मिलती हैं। इसी प्रकार संस्कृत के अनेक लेखकों ने विक्रमादित्य को विद्वानों के आश्रय-दाता होने का उल्लेख किया है ओर उस की दान- वीरता की प्रशंसा की है चीनी यात्री हयेनसंग के समय में विक्रमादित्य दानशूरता के कारण लोक में प्रख्यात था उस ने लिखा है कि 'वसुबंघु के समय में श्रावस्ती के राजा विक्रमादित्य का प्रभाव चारों दिशाओं में व्याप्त हो रहा था। उस ने जब भारतीयों को वश में किया उस दिन द्रिद्र ओर अनाथ प्रजा में पाँच लाख सुबण मुद्रा का दान किया ।”'

चंद्रगप्त विक्रमादित्य के समय के शिलालेख अपूण ओर टूटे होने से उस के व्यक्तिगत गुणों का विशेष परिचय नहीं मिलता, परंतु तत्कालीन सब प्रकार के ऐतिहासिक उपकरणों पर पूर्वापर विचार करने से यह

2 हे बॉट्स--छ्ेनसांग का प्रवास-वर्णन, १, पृष्ठ २११

द्वितीय चेंद्रगुप्त का चरित्र ६५

स्पष्ट प्रतीत होता है कि वह भी अपने महाप्रतापी पिता की भाँति शूर- वीर, बुद्धिमान, गुणग्राहक ओर नीति-निष्णात था। वह साहस ओर पराक्रम का पुतला था। बाण ने कदाचित्‌ हषचरित में उस के ही विषय में लिखा है कि शत्रु के नगर में परख्री की कामना करने वाले शकराजा को स्त्री के वेष में छिपे हुए चंद्रगुप्त ने मार डाला इस कथा में तथ्य हो वा हो, पर चंद्रगुप्त की मुद्राओं से इतना तो स्पष्ट है कि उसे अपनी वीरता और साहस का अभिमान था उस के कुछ सिक्कों पर राजा के पैर के नीचे सिंह की मूर्ति ओर कुछ पर घायल हो कर भागते हुए सिंह की मूर्ति अंकित है, जिन से उस की वीरता ओर साहस व्यक्त होता है। उस के समय में प्रचलित भाँति भाँति के सोने, चाँदी ओर ताँबे के सिक्कों की प्रचुरता से अनुमान किया जाता है कि द्वितीय चंद्रगुप्त का शासन- काल शांतिपूर्ण ओर चिरस्थायी रहा होगा ओर उस की प्रजा अपने योगक्षेम के साधक उद्योग-धंधों में लग रही होगी चीनी यात्री फाहियान के यात्रा-बृत्तांत से पाया जाता है. कि चंद्रगुप्त की प्रजा धनधान्यसंपन्न ओर सुखी थी, लोग उस समय बहुत कुछ स्वतंत्र थे, प्राणदंड किसी को नहीं दिया जाता था, धमेशालाओं ओर ओषधालयों का प्रबंध उत्तम था ओर विद्या का अच्छा प्रचार था।

द्वितीय चंद्रगुप्त को देवगुप्त ओर देवराज भी कहते थे। साँची के लेख में 'महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्तस्य देवराज इति प्रिय नाम? लिखा है जो उस का ही दूसरा नाम प्रतीत होता है। उस का दूसरा नाम दिवगुप्त' चामुक से मिले वाकाटक महाराज हितीय प्रवरसेन के लेख में मिलता है, जिस में उस के पिता रुद्रसेन ( द्वितीय ) का महाराजाधिराज देवगुप्त की कन्या 'प्रभावतीगुप्ता” से विवाह करने का उल्लेख है। चंद्रगुप्त की दो राशियाँ थीं,--एक तो नागकुल को कुबेरनागा जिस से प्रभावती का जन्म हुआ ओर दूसरी राणी ध्ुवदेवी से दो पुत्र कुमारगुप्त और गोविंद- ग॒प्त उत्पन्न हुए जिन में से कुमारगुप्त अपने पिता के पश्चात्‌ गुप्त-साम्राज्य के सिंहासन पर बैठा।

६६ चंद्रयुप्त विक्रमादित्य

गुप्तवंशी सम्राटों ने अपने विवाह-संबंध द्वारा उस समय के बड़े बड़े राजघरानों से मित्रता स्थापित की थी। उन के विवाह-संबंध बड़े राजनीतिक महत्त्व के थे। प्रथम चंद्रग॒प्त ने प्रसिद्ध लिच्छिवि वंश में अपना विवाह किया था जिस के कारण मगध में उस का अधिकार रढ़ हो गया उस के बंशधर अपने लिच्छिवि-संबंध का बड़ा गोरव मानते थे ओर कदाचित्‌ उस रिश्तेदारी को अपने अभ्युदय का कारण भी समभते थे। आर्यांवत के राजाओं की विजय के पश्चात्‌ उन्हों ने दूसरे राजकुलों में विवाह किए जिन से उन को सत्ता विजित राज्यों में टढ़ हो सकती थी इस नीति के अनुसार द्वितीय चंद्रगप्त ने 'नागकुलोत्पन्न! महाराणी कुबेरनागा' से विवाह किया था। मथुरा ओर पद्मावती के आस पास के प्रदेशों पर शासन करने वाला नागवंश प्राचीन काल से प्रसिद्ध था। गुप्रबंश के उदय के पहले इस वंश के राजाओं ने अनेक अश्वमेध-यज्ञ किए थे। चंद्रगुप्त द्वितीय ने कुबेरनागा से उत्पन्न अपनी राजकुमारी प्रभावतीगुप्ता का विवाह दक्षिण के वाकाटक महाराज द्वितीय रुद्रसेन से किया था। यह भी संबंध बड़े राजनीतिक महत्त्व का था डाक्टर स्मिथ का मत है कि वाकाटक महाराज का राज्य ऐसे देश पर था कि जहाँ से वह गुजरात ओर सुराष्ट् के शकों के राज्य पर उत्तरी भारत से चढ़ाई करने वाले के लिये साधक ओर बाधक हो सकता था अतएव चंद्रगुप्त ने अपनी दूरद्शिता से वाका- टक राजा को अपनी राजपुत्री दे दी ओर उसे अपना अधीन सामंत बना लिया

नागवंश का अस्तित्व महाभारत युद्ध के पहले से पाया जाता है यह वंश एक समय बहुत प्रसिद्ध था विष्णुपुराण में नागवंशी राजाओं का पद्मावती ( ग्वालियर राज्य में ), कांतिपुरी और मथुरा में राज्य करना लिखा है उन के सिक्के भी मालवा में कई जगह मिले हैं। कुबेरनागा भी इसी वंश की थी

गौ० ओझा, राजपूताने का इतिहास, प्रथम भाग, ए० २३०

4 / पाचवा अध्याय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समसामयिक चीनी यात्री फाहियान का भारत-श्रमण-वृत्तांत

प्राचीन भारत के इतिहास का थोड़ा बहुत पता जो हमें लगता है वह यूनानी ओर चीनी यात्रियों के यात्रा-ब्त्तांत से लगता है सिकंदर के समय से ( ई० सन्‌ पूव ) यूनान वाले इस देश में सेनिक, शासक तथा राजदूत बन कर आए थे उन्हों ने अधिकतर इस देश की राजनीति, सामाजिक रीति-रस्म ओर भोगोलिक बातों ही का उल्लेख अपने यात्रा- वृत्तांतों में किया है। उन्‍्हों ने भारतीय घमे और शास्त्रों की छान बीन करने की विशेष परवाह नहीं की किंतु चीनी यात्री विद्ान थे और बोद्ध- धमे पर उत्कट श्रद्धा रखते थे उन्हों ने हजारों मीलों की यात्रा इसलिये की थी कि वे पुण्य भूमि भारतव् के बोद्ध तीथे-स्थानों का दशेन करें, बोद्ध धमे-ग्ंथों को एकत्र करें ओर उन्हें समभने के लिये यहाँ के विख्यात विद्यापीठों में संसक्त ओर पाली भाषा को सीखें इन यात्राओं में उन्हें अनेक संकट सहने पड़े, कभी वे लूटे गए, कभी मार्ग-भ्रष्ट हो कर भयंकर स्थानों में भटकते फिरे, परंतु निडर हो कर बीहड़ जंगल, ऊँचे परत ओर नीची घाटियों को पार करते हुए वे केवल विद्या ओर धमे के प्रेम के कारण अपने देश से भारतवर्ष की ओर चल पड़े। चीनी यात्रियों में चार के नाम बहुत प्रसिद्ध हैं--पहला फाहियान, दूसरा सुंगयान, तीसरा हेनसांग ओर चोथा इत्सिंग इन चारों ने अपनी अपनी यात्रा का वृत्तांत लिखा . है। इन से उन के समय की भारतीय सभ्यता का बहुत कुछ पता चलता है

६८ चद्रगुप्त विक्रमादित्य

ईसा के जन्म से बहुत पहले ही चीन देश में बोद्ध धर्म का प्रचार हो चला था चीनी इतिहासकारों ने लिखा है कि चीन के सम्राट मिंगटो ने इ० स० ६७ के लगभग भारतवष्ष से बोद्ध आचार्यो' को बुलाने के लिये अपने दूत भेजे। वे राज-दूत कश्यप-मातंग ओर धमेरक्षक नामक दो आचार्या' को उद्यान ( काबुल ) से अपने साथ चीन देश को ले गए। इन्हों ने बौद्ध धर्म के अनेक म्ंथों का अनुवाद चीनी भाषा में कर वहाँ बौद्ध धमे का प्रचार किया इस प्रकार भारत का चीन देश से गुरु-शिष्य संबंध सुदृढ़ होता गया ओर तब से अनेक चीनी भिक्षु भारत में तीर्था- टन तथा ज्ञानोपाजन के लिये आते रहे ऐसे यात्रियों में जो अपनी भारत की यात्रा का वृत्तांत लिख कर छोड़ गए हैं फाहियान सब से पहला चीनी यात्री है

फाहियान मध्यचीन के चांगगान नगर का रहनेवाला था | ई० सन्‌ ४०० में वह भारत के लिये रवाना हुआ चीन से भारत आने के लिये उस समय जल ओर स्थल दोनों प्रकार के मार्ग थे इन दोनों देशों के बीच का व्यापार अधिकतर स्थल-मार्ग से होता था जो खुतान नगर के पश्चिम से होता हुआ भारतवष की उत्तर पश्चिमी सीमा पर पहुँचता था। जल का माग जावा सुमात्रा ओर लंका आदि द्वीपों से हो कर यात्रियों को दक्षिण भारत में पहुँचाता था। दोनों मार्ग भयंकर थे। जल-मार्ग कुछ सीधा पड़ता था, पर पीले समुद्र के तृफ़ानों के कारण जहाज़ सदेव खतरे में रहते थे फाहियान ने दोनों मार्गो' के संकटों का सामना किया वह अपने देश से भारत को स्थलमाग से आया और भारत से अपने देश को जलमाग से लोटा

कई जनपदों को पार कर के कुछ साथियों के साथ वह ख़ुतान पहुँचा। खुतान पहुँचने तक उसे कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा लाप नामक मरुभूमि में उस की सहन-शक्ति और घैये की सब से बड़ी परीक्षा हुईं ऊपर से सूय की प्रखर किरणों निदयता से पड़ रही थीं, नीचे से तची हुईं बालू आग उगल रही थी ओर गरम हवा बीच में और बुरी “गत

चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समसामयिक चीनी यात्री ६५९

कर रही थी प्यास के मारे उस के नाकों दम था कोसों तक पानी नहीं मिला कभी कभी वह राह से बे राह हो जाता था जिस से ओर आपत्ति उठानी पड़ती थी। एक स्थान पर फाहियान स्वयं लिखता है कि “नदी उतरने में ओर मार्ग में चलने में जितने दुःख उठाने पड़े उतने किसी ने उठाए होंगे।” इन आपत्तियों से उस के कई साथियों का साहस छूट गया ओर उन्हों ने यात्रा पूरी करने का विचार छोड़ दिया, परंतु फाहियान ओर उस के कुछ मित्रों ने अपना संकल्प छोड़ा

खुतान में उस की बड़ी आवभगत हुईं | खुतान में उस समय बोद्ध-धर्म का प्रचार था। राजा प्रजा दोनों बोद्ध-धर्म के महायान पंथ को मानने वाले थे राजा ने फाहियान को गोमती नामक संघाराम में ठह- राया फाहियान ने इस देश को हरा भरा देखा था| खुतान की आबादी घनी थी ओर लोग समृद्ध थे। उन का सामाजिक जीवन धमंभय ओर आनंदपूर्ण था। घर घर के दरवाजे पर छोटे छोटे स्तूप बने हुए थे। अतिथि-सत्कार का बड़ा ध्यान रक्खा जाता था। फाहियान जिस संघा- राम में ठहराया गया था उस का नाम गोमती संघाराम था उस में तीन हज़ार भिक्तु रहते थे जो बड़े संयमपूवंक जीवन बिताया करते थे फाहियान ने वहाँ एक रथ-यात्रा भी देखी थी यह उत्सव बड़े समारोह से मनाया जाता था इस यात्रा में राजा-प्रजा का वेभव अच्छी तरह प्रकट होता था। रतन्नमय तोरण, चाँदी के डंडों पर रेशम की ध्वजाओं ओर रेशमी वितानों से सजाया हुआ रथ चलता हुआ महल सा लगता था उस में सोने चाँदी की मूर्तियाँ रहती थीं। जब रथ नगर में आता था तो राजा मुकुट उतार कर नंगे पैरों उस की अग॒वानी के लिए जाता था ओर साष्टांग दंडवत्‌ प्रणाम कर पूजा करता था। रानी अपनी दासियों के सहित राजद्वार के ऊपर से फूलों की वर्षा करती थी। नगर से कुछ दूर पर पश्चिम की तरफ़ राज्य की ओर से एक संघाराम बना हुआ था जो अस्सी वे में बन कर तय्यार हुआ था। इन अस्सी वर्षा में तीन राजा सिंहासन पर-बैठ चुके थे इस विहार पर सुंदर खुदाई ओर पश्चीकारी का काम

७० चद्रगुप्त विक्रमादित्य

था ओर भाँति भाँति के सोने चाँदी के पत्र ओर रत्न जड़े हुए थे विहार के पिछवाड़े बुद्धवेव का एक रमणीय मंदिर था जिस की शोभा फाहियान के अनुसार वाणी से व्णन नहीं की जा सकती इस के धरन, खंभों, किवाड़ों ओर उन की चोखटों तथा जंगलों आदि पर सोने के पत्र मढ़े हुए थे। परंतु उन राजाओं की यह राजधानी जो इस प्रकार “अपने धन ओर बहुमूल्य रत्नों का अधिकांश धर्मार्थ में लगाते थे” अब बिल्कुल उजाड़ पड़ी है। उस के वेभव के चिह्न भू-गर्भ में पढ़े हुए इतिहास के खोजने वालों की प्रतीक्षा कर रहे हैं हाल ही में डाक्टर स्टीन को खोज में वहाँ प्राचीन महलों, स्तूपों, विहारों और बगीचों के बहुत से चिह्न मिले हैं, जो मृक भाषा में खुतान की प्राचीन समृद्धि की कथा सुनाते हैं वह कथा उन से सुन कर डाक्टर स्टीन ने अपनी महत्त्वपूर्ण पुस्तक में लिखी है। इस से फाहियान के कथन की सत्यता भी सिद्ध होती है

खुतान से वह काबुल आया काबुल उस समय भारत का ही एक प्रांत था। वहाँ से खवात, गांधार और तत्षशिला होता हुआ वह पुरुषपुर या पेशावर पहुँचा पेशावर में उस ने एक बहुत ऊँचा, सुंदर ओर मज़बूत स्तूप देखा इस के संबंध में फाहियान ने लिखा है कि अनेक स्तृप ओर मंदिर यात्रा में देखे पर इतना सुंदर ओर भव्य कोई ओर मिला। वहाँ से आगे बढ़ कर सिंधु नद को पार करके वह मथुरा देश में पहुँचा इस बीच उसे बराबर बहुत से विहार मिलते रहे जिन में उस ने लाखों श्रमणों का दर्शन किया मथुरा नामक जनपद में यमुना के दाहिने बायें बीस विहार थे जिन में तीन सहस्न से अधिक भिक्षु रहते थे

इस प्रकार असंख्य संकटों को झेल कर फाहियान ने अपने हृदय की चिरकाल-संचित अभिलाषा पूण की अब उस का एक ही साथी उस के साथ बच रहा था। अपने आप को बोद्ध-धर्म की जन्म देने वाली पवित्र भारत-भूमि में पा कर उस ने अपना जन्म धन्य माना ओर अपनी धार्मिक जिज्ञासा की पूर्ति में जी जान से लग गया जहाँ जहाँ वह गया उस ने बोद्ध भिक्षओं के साथ उन के विहारों ओर संघारामों में विश्राम किया

चद्रगुप्त विक्रमादित्य के समसामयिक चीनी यात्री ७१

ओर अपना सारा समय बोढ़ तीर्था' के दशन ओर विनयपिटक आदि धर्म-प्रंथों ओर बुद्ध की जन्म-कथाओं की खोज, संग्रह और अध्ययन में बिताया साधारण सैलानी यात्रियों की तरह वह राजाओं के आतिथ्य का अभिलाषी और उन के आश्रय का भूखा था। अपनी खोज ओर अध्ययन में वह इतना लबलीन था कि धार्मिक बातों को छोड़ कर उस का मन व्यावहारिक जगत की ओर जाता ही था उस का ध्यान केवल धरम की ओर था जिस स्थान पर वह जाता था वहाँ की ओर विशेष- ताओं के विषय में जानकारी प्राप्त करने का वह विशेष यत्न नहीं करता था। वह केवल यही जानने के लिए उत्सुक रहता था कि बुद्ध ओर उन के चलाये धम से उस का क्या संबंध है। तक्षशिला में कभी एक बहुत प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था, इस तथ्य की ओर उस का ध्यान नहीं जाता। परंतु वह यह्‌ खोज निकालता है कि जब बुद्धदेव बोधिसत्त्व थे तब उन्हों ने इस स्थान पर अपना सिर काट कर एक मनुष्य को दान किया था। धमे से बाहर की बातों से उस की विरक्ति इतनी बढ़ी हुई थी कि उस ने अपने यात्रा-विवरण में आरयावत के तत्कालीन सम्राट महाप्रतापी चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का ज़िक्र तक नहीं किया यद्यपि वह उस के राज्य में पूरे छः साल रहा ! इतना होने पर भी गुप्त साम्राज्य का अपरोक्षलिखित वन एकमात्र फाहियान के ही म्ंथ के प्रष्ठों में मिलता है यद्यपि तत्कालीन भारत का उस ने इतना विशद वर्णन नहीं किया है जितना कि हम चाहते हैं, फिर भी जो कुछ थोड़ी बहुत बातें उस ने लिखी हैं उन से चंद्रगुप्त के साम्राज्य की सामाजिक, धार्मिक ओर राजनीतिक दशा का बहुत कुछ पता चल जाता है | जहाँ तहाँ जनसाधारण के जीवन के मनोरम दृश्यों ने फाहियान के ध्यान को आकर्षित किया। इस देश के लोगों की समृद्धि ओर उन के सुखशांतिमय जीवन को देख कर वह उन्हें अंकित किए बिना रह सका भारत की कई बातों ने चीन की अपेक्षाकृत अवनत ओर दुःखपूरण दशा के विरोध में खड़ी हो कर उस के हृदय में स्थान कर लिया इस कारण उस के ग्रंथ में कितनी ही जगह ऐसे वर्णन *गए हैं

७२ चंद्रयुप्त विक्रमादित्य

जिन को पढ़ कर उस समय का जीता जागता चित्र हमारे सामने खिंच जाता है। उस से पता चलता है कि उस समय इस देश की प्रजा धन- धान्य से संतुष्ट हो कर सुख शांति पूवक जीवन व्यतीत करती थी। उस के यात्रा-वृत्तांत से यह भी पता चलता है कि चंद्रगुप्त की शासन-व्यवस्था न्याययुक्त ओर हृढ़ थी, क्‍योंकि न्‍्याययुक्त और दृढ़ शासन के बिना देश में धन-धान्य और सुख-शांति हो नहीं सकती

मशुरा और उस से दक्षिण का देश फाहियान को विशेष हरा भरा मिला उस समय यह देश मध्यदेश कहलाता था वहाँ का प्राकृतिक सोंद्ये उस को बहुत पसंद आया, जलवायु भी बहुत अच्छा था--न बहुत ठंडा ओर बहुत गरम फाहियान को यहीं यह मालूम हुआ कि भारतवासियों को अपने परिवार के लोगों के नाम सरकार में दज नहीं कराने पड़ते लोग जहाँ चाहते हैं बिना सरकारी आज्ञा-पत्र के आ-जा सकते थे। “लोग राजा की भूमि जोतते हैं ओर लगान के रूप में उपज का कुछ अंश राजा को देते हैं। ओर जब चाहते हैं तब उस की भूमि को छोड़ देते हैं ओर जहाँ मन में आता है जा कर रहते हैं। राजा प्राण दंड देता है ओर शारीरिक दंड। अपराध के गौरव ओर लाघव के अनु- सार हलका या भारी दंड दिया जाता था जो विशेष कर जुर्माने के रूप में ही होता था। बार बार राजद्रोह करने पर कहीं अपराधी का दाहिना हाथ काटा जाता था। राजा के पारिवारिक ओर राजकीय दोनों प्रकार के कमचारियों को नियत वेतन मिलता था। देश भर में नीच चांडालों के सिवाय और कोई तो जीव-हिंसा करता है, मदिरा पीता है ओर लहसुन-प्याज़ खाता है। चांडाल शहर से बाहर रहते हैं और जब वे नगर में आते हैं तो दो लकड़ियाँ बजाते हुए चलते हैं जिस से लोगों को उन के आने की सूचना हो जाय ओर वे उन की छूत से बच कर चलें। वहाँ कोई सूअर और मुर्गी नहीं पालते हैं, बूचड़खाने ओर शराब की भट्ठियाँ कहीं नहीं हैं जीवित पशु भी नहीं बेचे जाते हैं मछली मारने ओर मृगों

चद्रगुप्त विक्रमादित्य के समसामायेक चीनी यात्री ७३

का आखेट करने का काम नीच जाति के व्याधों का ही है ओर वही मांस भी बेचते हैं बाज़ारों में मोल तोल कोड़ियों में ही होता है ।”

बुद्ध भगवान के निर्वाण प्राप्त करने के समय से ही सारे देश में राजाओं ओर धनियों ने ओर साधारण ग्रहस्थों ने भिक्षओं के रहने के लिये विहार बनाए हैं ओर उन के भरण-पोषण के लिये खेत, घर, बगीचे, परिचारक ओर पशु दान किए हैं | दान-पत्र ताम्र-पत्रों पर लिखे गए हैं इन दान- पत्रों को पीढ़ी दर पीढ़ी सब राजा लोग मानते आए हें किसी ने उन के प्रतिकूल कोई काम नहीं किया विहारों में संघ के भिज्नुओं को खान-पान ओर पहनने के वश्रन ओर ओढ़ना बिछोना मिलता है। विहारों में रहने वाले भिक्ु करुणा के कृत्य, सूत्र-पाठ और ध्यान में लगे रहते हैं। विहारों में आए गए को वर्षा में आश्रय मिलता है। अतिथि-सत्कार का ध्यान रखा जाता है। वृद्ध भिक्तु अतिथि का स्वागत करते हैं। उस के कपडे ओर कमंडल उस के हाथ से ले लेते हैं ओर स्वयं उस के लिये नियत स्थान तक ले जाते हैं उसे पाँव धोने को जल ओर सिर पर लगाने को तेल दिया जाता है और भोजन बनाया जाता है विश्राम कर लेने पर उस से पूछते हैं कि कितने समय से प्रत्रज्या (संन्यास) ग्रहण की है ओर उस की योग्यता ओर पद के अनुसार उसे कमरा ओर ओढ़ना बिछोना दिया जाता है। वर्षा के एक महीने बाद उपासक लोग दान देने में एक दूसरे से बढ़ने का यत्न करते हैं। चारों ओर से लोग भिक्षुओं को पेय भेजते हैं। संघ के संघ भिक्ु कर धर्मोपदेश किया करते हैं ब्राह्मण ओर धनी लोग बख्र ओर अन्य आवश्यक सामग्री भी बाँटते हैं भिक्तु उन्हें आपस में बाँट लेते हैं। बुद्ध देव के बोध लाभ करने के समय से ही यह रीति ओर आचार-व्यवहार के नियम बराबर चले रहे हैं ओर पालन किए जाते हैं ।”

कान्यकुब्ज', श्रावस्ती ' आदि जनपदों ओर नगरों को पार करते हुए फाहियान पाटलिपुत्र पहुँचा पाटलिपुत्र उस समय मगध की

३९ कान्यकुब्ज-कन्नीज आवस्ती-साहेत माहेत

रा १०

७४ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

राजधानी थी आजकल यह नगर पटना के नाम से प्रसिद्ध है ओर अब भी बिहार की राजधानी है। फाहियान ने इस नगर को अपने पूरे ऐश्वय में देखा था। अशोक के समय की बनी इमारतें अभी खड़ी थीं। उस के बनवाये हुए महल को देख कर वह चकित रह गया वह इतने भारी भारी पत्थरों से बना था ओर उस पर ऐसे सुंदर सुंदर बेल बूटे खुदे हुए थे कि उस के मन में यह बात समाई कि यह मनुष्यों का काम है। इतने भारी पत्थरों को मनुष्य केसे उठा सकता है ! यह सफ़ाई मनुष्य के हाथ की नहीं हो सकती ! उसे बह मायावी राक्षसों का शिल्प-कोशल मालूम हुआ अशोक के बनवाये हुए मंडप भी वास्तुकला के सुंदर नमूने थे महायान ओर हीनयान पंथियों के लिये अलग अलग दो विहार थे। इन दोनों में कुल मिला कर छः सात सो भिक्षु रहते थे। उन के पांडित्य की ख्याति दूर दूर तक फेली हुईं थी, उन के व्याख्यानों को सुनने के लिये लोग देश-देशांतरों से आते थे फाहियान ने तीन वर्ष तक यहीं रह कर संस्कृत सीखी फाहियान की भारत में आने की विशेष प्रेरणा इसलिये हुई थी कि चीन में विनयपिटक की संपूर्ण प्रति नहीं मिलती थी जिसे वह भारत के ग्रसिद्ध विद्यापीठों में खोज कर पढ़ना चाहता था। भारत में भी उसे कहीं अब तक यह पूरा ग्रंथ नहीं मिला था। पाठिलपुत्र में उस की वह अमिलाषा पूण हुई ओर उसे वह अलभ्य ग्रंथ अखंडित रूप में प्राप्त हुआ

फाहियान का कथन है कि भारतवासी उस समय बड़े धर्मनिष्ठ ओर दयावान थे जिन लोगों को परमात्मा ने धन ओर वैभव दिया था उन के हृदय में करूणा ओर उदारता भी भर दी थी वे केवल स्वार्थ ही के लिये अपनी संपत्ति का उपयोग नहीं करते थे, परोपकार में भी साधारणतया उस का कुछ भाग लगाया करते थे। देश में धर्मार्थ संस्थाएँ बहुत थीं, जगह जगह अन्नसत्र खुले हुए थे। मार्गो' पर यात्रियों के रहने के लिये

पाटलिपुत्र का वर्णन

चंद्रग॒ुप्त विक्रमादित्य के समसामयिक चीनी यात्री ७५

धमंशालाएँ बनी हुईं थीं। राजधानी में एक धमोथे ओषधालय भी खुला हुआ था जिस में असहाय-अनाथ तथा दीन-दुखिया रोगियों की मुफ्त चिकित्सा की जाती थी। सब रोगों के रोगी इस अस्पताल में लिए जाते थे। उन को देख भाल के लिये सदा वहाँ एक वेद्य रहता था। उन की दशा के अनुकूल पथ्य भी उन्हें ओषधालय ही से मिलता था। पूरा आराम होने तक वे वहाँ रह सकते थे इस ओषधालय के व्यय का सारा भार नगर के कुछ दानशील धनाह्य पुरुषों ने अपने ऊपर ले रक्खा था इतिहासकार विंसेंट स्मिथ का कथन है कि “उस समय संसार भर में ओर कहीं भी ऐसा अच्छा सावेजनिक ओषधालय बना हो इस में संदेह है। अशोक की मृत्यु के सदियों बाद भी उस के उपदेशों का इस प्रकार शुभ फल फलते रहना उस की दूरद्शिता की अपने आप प्रशंसा कर रहा है ।”

पाटलिपुत्र में भी फाहियान ने रथयात्रा देखी | यहाँ के रथ उतने ऊँचे नहीं थे जितना खुतान का रथ था। पर बीस रथ होते थे। इस से दृश्य ओर भी रमणीक लगता होगा। रथयात्रा प्रतिवर्ष दूसरे मास की आठवीं तिथि को होती थी। अन्य जनपढदों में भी यह उत्सव बड़े समारोह के साथ मनाया जाता था।

मध्यदेश में पाटलिपुत्र ही सब से बड़ा नगर था इधर कई शताब्दियों से प्रायः सारा उत्तर भारत एक ही साम्राज्य के अंतगत हो रहा था ओर उस का शासन मगध ही से होता था। इस से पश्चिम में नगर छोटे छोटे थे मगध के नगर अपेक्षाकृत बड़े थे।

फाहियान ने अपने ग्रंथ में जो कुछ भारतीय शासन के संबंध में लिखा है उस से स्पष्ट मालूम होता है कि राजा सर्वप्रिय था और शांति- मय उपायों से काम लेता था। प्रजा पर कोई कठोर अंकुश नहीं था राज्य की ओर से प्रजा के कामों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जाता था। दूसरों की स्वतंत्रता में बाधा डाले बिना लोग जो चाहते थे कर सकते थे। सारा

शासन-

व्यवस्था

७६ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

मध्यदेश कई जनपदों में विभक्त था | जनपदों के अधिपति भी दयालु थे ओर शासन करने में अपने सम्राट का अनुकरण करते थे प्रजा भी नागरिकों के उच्च आदश को जानती थी ओर उस के अनुसार व्यवहार करती थी। फाहियान ने उन्हें सद्गुणों में परस्पर स्पर्धा सा करते देखा। अतएव अपराध बहुत कम होते थे। हज़ारों मील के लंबे सफ़र में फाहियान को कोई डाकू या ठग नहीं मिले। इसलिये राज-नियम भी कड़े थे। राष्ट्र में मृत्यु-दंड का अभाव ओर शारीरिक दंड की न्यूनता यह प्रमाणित करती है कि राजसत्ता के लिये लोगों के हृदय में अत्यंत ऊँचा स्थान था। साधारणत: जुमोना ही काफ़ी समझा जाता था। राजद्रोह सरीखे घोर अपराध के लिये कभी कभी हाथ काटने का दंड दिया जाता था। पदाधिकारियों के नियत वेतन-भोगी होने से उन को प्रजा पर अत्याचार करने का अवसर नहीं था। उदार ओर चतुर शासक के शासन में प्रजा सब प्रकार से सुखी थी देश की संपत्ति अपार थी चाँदी सोने की कमी थी। पर खाने पीने के पदार्थ ओर अन्य नित्य के व्यवहार की चीज़ें इतनी सस्ती थीं कि कोड़ियों से ही काम चल जाता था। फ्राहियान ने भारतवासियों को अत्यंत सुख ओर समृद्धि में पाया ओर उन के भाग्य की सराहना की | ऐसा सुखशांतिमय शासन उस के देश-वासियों को प्राप्त था यह बात उसे भारत में रह रह कर याद आती थी।

चंद्रगुप्त के राज्यकाल में प्रजा को सब प्रकार से धार्मिक खतंत्रता प्राप्त थी। अपने अपने धम के अनुसार चलने में सब खतंत्र थे। यद्यपि बोद्ध-धर्म राजधर्म रहा था फिर भी देश भर में उस का प्रचार था। फाहियान ने सैकड़ों बोद्ध-विहार देखे ओर हज़ारों श्रमणों के दशन किए देश भर में महात्मा बुद्ध के प्रचार किए हुए करुणा ओर अहिंसा के धर्मो' का पालन होता था। बोद्ध सिद्धांतों का ऊँची जातियों के जीवन पर पूरा प्रभाव था| हाँ, नीची जातियों में भक्याभक्ष्य का विचार नहीं था ओर वे जीवहिंसा करते थे जाति-पाँति ओर छञआछत के भेदभाव को

चद्रगुप्त विक्रमादित्य के समसामयिक चीनी यात्री ७७

बोद्ध-धर्म का चिरकालिक प्रचार भी मिटा सका था। इस समय ब्राह्मण धर्म का अभ्युदय ओर बोद्ध धमे का हास आरंभ हो गया था। पर वह इतनी मंदगति से हो रहा था कि इस चीनी यात्री को उस ह्वास के कोई लक्षण देख पड़े। दानशील धनिकों की संरक्षता भिक्षुओं को अब तक प्राप्त थी उन को अपने धार्मिक कृत्यों को करने के सब साधन प्रस्तुत थे ओर नित्य की आवश्यकताओं की पूर्ति की सब सामग्री मुफ़ मिलती थी पर बुद्ध का जन्मस्थान कपिलवस्तु ओर निर्वाण-स्थान कुशीनगर निजन हो गए थे वहाँ थोड़े से मिक्तु रहते थे। बोधगया की जन संख्या भी बहुत कम थी यह बोढ़ों का एक प्रधान तीर्थ था। यहीं एक पीपल के वृक्ष के नीचे गोतम को बोध हुआ था जब फाहियान दशन के लिये वहाँ गया था तब यह तीथे चारों ओर से बीहड़ जंगल से घिर गया था। हो सकता है कि इन नगरों की इस दुदेशा के कोई और भी कारण हों जिन का धार्मिक ह्वास से कोई संबंध हो, पर वे ज्ञात नहीं हैं हिंदूधमे इस समय उन्नति के मार्ग पर अग्रसर था। सम्राट्‌ परम भागवत? वैष्णव था, पर वह किसी प्रकार का धार्मिक पक्षपात नहीं करता था

समग्र विनयपिटक के मिल जाने से फाहियान का उद्देश्य पूण हो गया था| उस का एकमात्र अवशिष्ट साथी तावचिंग यहाँ के संघ के उत्कृष्ट आचार-वयवहार ओर बात बात में उन के विनय के अनुसरण को देख कर बहुत प्रसन्न हुआ इस के सामने उसे चीन देश का अधूरा विनय हेय लगने लगा उस ने इस बात की शपथ कर ली कि जब तक में बुद्ध हो जाऊँ तब तक चीन की भूमि में जन्म लूँ। पर फ़ाहियान का तो उद्देश्य था अपने देश में जाकर संपूण विनय का प्रचार करना इसलिये वह अकेला ही लोट चला अंगदेश की राजधानी चंपा में हो कर वह ताम्रलिप्ति पहुँचा ताम्नलिप्ति आजकल का तमलुक है जो बंगाल के मेदिनीपुर जिले में हैं वहाँ वह दो वष रहा इस समय में उस ने कई धर्म-म्ंथों की नकल की ओर कुछ मूर्तियों के चित्र बनाए | तमलुक में फाहियान ने बोद्ध धर्म का खूब प्रचार पाया। वहाँ चोबीस संघाराम थे

७८ चद्रगुप्त विक्रमादित्य

वहाँ से वह एक जहाज़ पर बैठ कर १४ दिन में सिंहल पहुंचा सिंहल में वह दो वर्ष रहा यहाँ के लोगों में सफ़ाई का बहुत विचार था। राजा ब्राह्मणों की तरह शुद्ध आचार वाला था हर महीने अष्टमी चतुदंशी ओर पूर्णिमा तथा अमावस को विशेष प्रकार से धर्म-चर्चा होती थी जिस में ग्रही ओर यती सब भाग लेते थे। हज़ारों भिक्नुओं को संघाराम से भोजन मिलता था। राजा का सत्र अलग था। राजधानी के उत्तर में एक बड़ा ऊँचा विहार था जिसे चैत्य कहते थे यहाँ लगभग दो हज़ार भिन्तु रहते थे

इस समय फ़ाहियान के हृदय में स्वदेश लोटने की इच्छा बहुत बल- बती हो गई एक दिन उस ने चीनी व्यापारी को पंखा बेचते देखा तो वह रो पड़ा आख़िर उसे चीन जाने वान्ता एक जहाज़ मिल गया इस में सो यात्री थे | मार्ग में तूफान आया ओर जहाज़ की पेंदी पर छेद हो गया ओर उस के अंदर पानी भरने लगा जहाज़ को हलका करने के लिये बहुत सा सामान समुद्र में डाल दिया गया। फ़ाहियान ने भी अपने बतन समुद्र में फेंक दिए भाग्यवश एक छोटा टापू मिल गया। वहाँ जहाज़ की मरम्मत की गई ओर वहाँ से वह सकुशल जावा पहुँच गया जावा में उस समय ब्राह्मण घम का प्रचार था। बोद्ध-धर्म की वहाँ उसे कोई चर्चा सुनाई दी पाँचवें महीने फ्राहियान वहाँ से एक ओर दूसरे जहाज़ पर चढ़ा मागे में इस जहाज़ पर भो विपत्ति आई | आँधी ओर वर्षा से यात्री व्याकुल हो उठे। पुरोहित ने विचार करके कहा कि इस श्रमण को साथ लेने के कारण हमें इस विपत्ति का सामना करना पड़ रहा है इस को कहीं किसी द्वीप में उतार देना चाहिए। यात्री लोग अवश्य ऐसा कर देते परंतु एक दयालु यात्री के हृदय में करुणा का स्रोत उमड़ पड़ा ओर उस ने इस बात का घोर विरोध किया ओर कहा कि पहले मुझे मार डालो तब इसे उतारो, नहीं तो में देश में पहुँच कर अवश्य बोद्ध राजा के पास इस बात की शिकायत करूँगा डर के मारे यात्रियों ने फ्राहियान को उतारने का विचार छोड़ दिया। अंत में कई दिन के बाद जहाज़ चीन देश की भूमि पर जा लगा ओर सब ने परमात्मा को धन्यवाद दिय़ा।

छठा अध्याय

गुप्तकालीन शासन-व्यवस्था

गुप्त सम्राटों के शिला-लेखों ओर चीनी यात्री फाहियान के यात्रा- विवरण से चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ओर अन्य गुप्त-नरेशों की शासन-पद्धति का बहुत कुछ पता लगता है। यद्यपि चीनी यात्री ने तत्कालीन शासन- व्यवस्था के संबंध में बहुत सी जानने योग्य बातें नहीं लिखीं तथापि गुप्त-साम्राज्य के शासन-प्रबंध का जो चित्र उस ने खींचा है वह अत्यंत हृदयग्राही है। राज्य की सुव्यवस्था के कारण प्रजा सुखी और घनधान्य- संपन्न थी। सत्र पूरा शांति का राज्य था। मार्ग सुरक्षित थे। प्रजा के योगक्षेम के प्रचुर साधन मोजूद थे प्रजा के जीवन में राजा की ओर से अधिक हस्तक्षेप होता था। आने जाने में लोगों को किसी प्रकार की रोक टोक नहीं थी। अपनी जायदाद ओर माल का ब्योरा उन्हें सरकार में लिखाना पड़ता था ओर सरकारी अफ़सरों की हाज़िरी देनी पड़ती थी | लोग राजा की भूमि जोतते थे ओर उस की उपज का कुछ अंश उसे कर रूप से दे देते थे। वे अपनी इच्छानुसार जा सकते थे

फाँसी अथपा अन्य शारीरिक दंड नहीं दिए जाते थे। अपराधी को उस के अपराध के गोरत्र-लाधव के अनुसार केवल अर्थ-दंड दिया जाता था हाँ, यदि कोई बार बार चोरी वा उपद्रव करता था तो उस का दाहिना हाथ काट लिया जाता था। राजा के सेवक नियत वेतन पाते थे। सारे देश में सिवाय चांडालों के तो कोई जीव-हिंसा ही करता था, मद्य ही पीता था, ओर लहसुन प्याज ही खाता था। राजा

८० चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

ओर प्रजा का सावेजनिक हित के कार्या' की तरफ़ भी बहुत ध्यान रहता था। धार्मिक सत्रों में निधनों को अन्नवख्र मिलता था ओर सावेजनिक ओषधालयों में गरीब रोगियों की मुफ्त चिकित्सा की जाती थी। राज्य में अनेक खेत, घर, बगीचे मिछुओं को दिये हुए थे ओर उनका वृत्तांत ताम्र- पत्रों पर खुदा हुआ था वे प्राचीन राजाओं के समय से चले आते थे ओर उस समय तक किसी ने उन में हस्तक्षेप नहीं किया था। नगरों में वैश्यों के स्थापित किए अन्नसत्र ओर ओषधालय थे दान करने में, दया करने में, धमे करने में, लोग परस्पर में स्पर्धा रखते थे।

चीनी यात्री फ़ाहियान के पूर्वाक्त विवरण से स्पष्ट प्रकट है कि गुप्त- सम्राट की छत्रछाया में देश में 'राम-राज्य” की सी सुख-शांति बिराजती थी ओर उस समय राज-धमे का हिंदू आदर्श पूर्ण रूप से चरितार्थ हो रहा था।' फाहियान ने गुप्त-साम्राज्य की राजनीतिक ओर सामाजिक दशा का जो चित्र अंकित किया है उस की यथाथेता का प्रमाण गुप्त-कालीन सिक्कों ओर शिला-लेखों से मिलता है। इंसा की पाँचवीं सदी के प्रारंभ में चीनी यात्री फ़ाहियान चंद्रगुप्त द्वितोय के साम्राज्य के प्रायः सभी मुख्य कालिदास ने “अभिज्ञान-शाकंंतल'” में राजा की प्रजावव्सलता को दिख- लाया है एक घनात्य किंतु संतान-हीन व्यापारी नाव के इब जाने से समुद्र में इब मरा अमात्य ने इस दुघटना का हाल राजा के पास छिख भेजा नियमानुसार उस व्यापारी की संपत्ति राजकोष में आनी चाहिए, किंतु राजा इस घटना का उचित अन्वेषण कराकर उसकी एक गर्भवती ख्री को उस धन की स्वामिनी बना देता है। इस के बाद राज्य में यह घोषणा की जाती है कि राजा

दुष्यंत प्रजा के दुःख में साथ देने के लिये सवंदा तत्पर है :---

थेन येन वियुज्य॑ते प्रजा: स्निग्धेन बंधुना।

स॒ पापाइहते तासां दुष्यंत इति घुष्यताम' अभिज्ञान शाकुंतल, अंक ६।

शुप्तकालीन शासन-व्यवस्था है

मुख्य प्रांतों ओर नगरों में भ्रमण करता हुआ पहुँचा था, किंतु आश्रये की बात है कि इतनी लंबी चोड़ी यात्रा में उसे किसी तरह की बाधा का सामना करना पड़ा, हज़ारों मील के सफ़र में उसे कहीं भी ठग, चोर वा डाकू नहीं मिले उस समय इस देश का शासन दृढ़ और सुगठित था नियम ओर शांति का सबंथा आधिपत्य था इस समय प्रायः सारा भारतवर्ष राजनीतिक एकता के सूत्र में ओतप्रोत हो चुका था। शख्त्र से रक्षित राष्ट्र में शात्र-चिंता होने लगी थी। प्रजा बिभव-संपन्न थी राज्य की सुव्यवस्था के कारण भारत का व्यापार ओर उद्योग-धंधे इस समय उन्नत दशा में थे। देश के आंतरिक ओर वैदेशिक व्यापार की वृद्धि के कारण ह्वितीय सम्राद्‌ चंद्रगुप्त को भिन्न भिन्न प्रकार के सोने, चाँदी ओर ताँबे के सिक्के ढलवाने पड़े थे उसके सिकों के प्रचुर प्रचार से यह मालूम होता है कि देश के व्यापार की बहुत अच्छी दशा थी, राजकोष धन से परिपूर्ण था ओर प्रजा लक्ष्मी के उपाजन में संलग्न थी। यह सब गुप्त-सम्राद्‌ के सुशासन का परिणाम था। मालवा, गुजरात ओर सुराष्ट्र की विजय के पश्चात्‌ द्वितीय चंद्रगुप्त ने शकजातीय ज्षत्रपों के ढंग पर बने हुए चाँदी के सिक्के चलाये थे। इन में राजा का मुख, यूनानी अक्षरों के चिह् ओर वष, ओर दूसरी ओर गरुड़ की मूर्ति ओर त्राह्मी लिपि मिलती है। कदाचित्‌ , भारत के पश्चिमी प्रांतों की प्रजा को पूबकाल से प्रच- लित चाँदी के सिक्क ही ग्राह्म थे ग॒प्त-साम्राज्य के अन्य प्रांतों में सोने ओर ताँबे के सिक्के प्रचलित थे। गुप्त सम्राटों की सुबरण-मुद्रा, पहले कुशान राजाओं के सोने के सिक्कों के ढंग पर, रोम देश की तोल की रीति के अनु- सार बनते थे। तदनंतर रोम की तोल की रीति के बदले में प्राचीन भारत की तोल की रीति का अवलंबन होने लगा था। रोम की तोल की रीति के अनुसार बने हुए सोने के सिक्के १२४ ग्रेन ओर भारतीय तोल की रीति के अनुसार १४९ ग्रेन के थे ह्वितीय चंद्रगप्त ओर प्रथम कुमारग॒ुप्त के दोनों प्रकार की तोल की रीति के अनुसार बने हुए सोने के सिक्के मिले हैं।. वे क्रम से 'दीनार' ओर 'सुवणण” कद्दलाते थे इस समय के शिला- ११

८२ चद्रगुप्त विक्रमादित्य

लेखों में कई स्थलों पर दीनारों के दान किये जाने का उल्लेख है। इस से यह निर्विवाद सिद्ध है कि रोम-साम्राज्य की सुबण-मुद्रा (दीनार ) का भारत में इस समय ख़ूब प्रचार था ओर वह प्रजा को ग्राह्मय थी। अत- एव, गुप्त सम्राटों को उस का अनुकरण करना पड़ा था। पाश्चात्य देशों के व्यापारियों ने भारतीय वस्तुओं के बदले में रोम की सुबण-मुद्रा से इस देश को आप्लाबित कर दिया होगा इस देश के विभव-संपन्न होने का प्रमाण हमें द्वितोय चंद्रगुप्त के चलाये हुए बहुसंख्यक ओर विभिन्न प्रकार के सिकों से मिलता है। गुप्त सम्राटों के संस्क्रत-विरुदों से अंकित सोने के सिक्कों का सोंद्य और वैचित््य दर्शनीय है। कहीं राजा-रानी की प्रतिक्ृति अंकित है, कहीं अश्वमेध का धोड़ा मुद्रित है, किसी मुद्रा पर शिकार खेलती हुई राजमूर्ति है, तो किसी पर वीणा बजाती हुई इन मुद्राओं के आकार-प्रकार और उन के सुबर्ण की शुद्धता आदि देख कर मुद्राशाख्न॒ज्ञ अनुमान करते हैं कि गुप्त-साम्राज्य में सुशासन के कारण प्रजा में सुख, शांति ओर सम्रद्धि का दोरदौरा था

राजा सबंदा राज-काज की बागडोर अपने हाथों में रखता था, मंत्रियों ओर अमात्यों के ऊपर ही सारा भार नहीं छोड़ देता था। यात्रा में भी राजा राज-काज का संचालन स्वयं किया करता था। उस समय सेनिक या नागरिक, कायकारक या न्याय- विभाग आज-कल की तरह अलग अलग नहीं थे एक ही पदाधिकारी एक से अधिक विभागों का काम कर सकता था। पदाधि- कारी बहुधा एक ही कुलों से चुने जाते थे। ओर कभी कभी पद्‌ वंशानु- गत भी हो जाते थे। इससे यह लाभ होता था कि उन वंशों का भाग्य राज्य के उत्थान-पतन के साथ बँध जाता था जिससे वे राज्य की सम्रद्धि के लिए सदा यत्र में लगे रहते थे | महाभारत में इस प्रकार के पदाधि- कारियों ओर मंत्रियों को सब से उत्तम बताया है। महाभारत के समय में ऐसे पदाधिकारी 'भजमान? कहलाते थे। संभवतः वंशक्रमानुसार पदाधि-

गुप्तकालीन शासन-व्यवस्था <८

कारियों को चुनने की प्रथा बहुत प्राचोन काल से चली रही थी ओर ग॒प्तों के समय में भी उसका अनुसरण किया जाता था

सेना का सब से बड़ा पदाधिकारी महासेनापति था। उस से छोटा अफ़सर सेनापति कहलाता था इन्हीं के समान महाबलाधिकृत ओर

बलाधिकृत या महाबलाध्यक्ष ओर बलाध्यक्ष भी सेना

सेना. के दो बड़े अफ़सर थे। शायद सेनापति खय॑ लड़ाई में

भाग लेते होंगे ओर बलाध्यक्ष का काम सैनिकों को

भरती करने से अधिक संबंध रखता होगा घड़सवारों का प्रधान नायक

भटाश्वपति? कहलाता था ओर हाथियों का सेनानायक 'कटुक युद्ध-

सामग्री जिस अफ़सर के अधिकार में रहती थी उस की उपाधि “रणभांडा-

गाराधिकरण' थी। संभवत:, सेना के आय-ठ्यय का हिसाब भी इसी अफ़-

सर के अधीन रहता था। सेना की एक टुकड़ी के नायक को “चमृूप? कहते थे

राज्य की अंतर्राष्ट्रीय नीति का निर्धारण 'महासंधि-विग्नहिकः करता था किस देश से मित्रता करनी चाहिए ओर किस देश से युद्ध करना

अंतराष्ट्ीयपी. चाहिए, यह सलाह राजा को वही देता था। संधिविग्र-

मंत्री हिक उस का एक अधीन कमेचारी था।

“दंडनायक', 'महादंडनायक?, 'सवदंडनायकर' ओर 'महासवदंडनायक! न्याय विभाग के भिन्न भिन्न पदाधिकारियों को उपाधियाँ थीं। संभवत: महासवंदंडनायक सब से बड़ी अदालत के न्यायकर्ता रहे हों ओर दूसरे छोटी छोटी अदालतों के जज रहे हों यह भी असंभव नहीं कि राजा भी स्वयं न्‍्यायकतोी का आसन ग्रहण करता रहा हो 'दंडपाशाधिकरण?” पुलिस के सब से बड़े अफ़सर को कहते थे पुलिस के ओर कई कमेचारी होते थे। दंडपाशिक? पुलिस का साधारण सिपाही होता था जो सामान्यतया शांति ओर नियम की रक्षा करता था। जहाँ कहीं चोरी हो जाती थी वहाँ जा कर तहक़ीक्रात ( जाँच ) कर के चोर को पकड़ने का काम

न्याय और अपराध

८४ चद्रगुप्त विक्रमादित्य

“चोरोडरणिक? का होता था। न्यायालय की आज्ञानुसार शारीरिक दंड देने वाला 'दंडिक' कहलाता था। “चाट” ओर “भाट” भी पुलिस के कमे- चारी होते थे ओर अपराधों की जाँच करते थे। मालूम होता है कि आगे चल कर चाट अपने कतेव्य से च्युत हो गये जिससे वे जनता को बहुत अप्रिय हो गये। चाट” का अथे ही चोर हो गया। भूमिदान संबंधी कई शासन-पत्रों में लिखा मिलता है कि इस भूमि में “चाट” ओर “भाट? अवेश करने पावेंगे इससे पता चलता है कि वे कितने अप्रिय हो गए थे। “दूत” शायद खुफिया पुलिस का काम करता था। राजा की आज्ञा को अफ़सरों ओर जनसाधारण को सुनाने वाला “आज्ञापकः कहलाता था।

कभी कभी दूत ही आज्ञापक का भी काम करता था राज-महलों में '्रतिहार' ओर “महाप्रतिहारः होते थे ये महलों की रक्षा किया करते थे। जब कोई राजा का दशन करने आता था तब वे ही राजा की आज्ञा ले कर उसे राजसभा में उपस्थित महल करते थे कहीं कहीं वे 'विनयशूर” भी कहे जाते थे। राजा की विरुदावली वर्णन करने वाला चारण अपरति-

नतक” कहलाता था

गुप्त-कालीन शिला-लेखों से मालूम होता है कि शासन की सुविधा के लिये गुप्त-साम्राज्य कई छोटे बड़े ग्रांतों में विभक्त था जिन्हें देश” वा भुक्ति' कहते थे। एक 'भुक्ति! के अंतगत कई “विषय! वा प्रदेश” होते थे ओर विषयों के अंतर्गत ग्राम! भुक्ति के शासक को 'भोगिकः? या “भोगपति” कहते थे राजा का स्थानापन्न होने के कारण वह “राजस्थानीय” भी कहलाता था। कभी कभी वह "गोप्ता! या 'उपरिक महाराज” भी कहलाता था। इस पद पर विशेष कर राजकुमार नियुक्त किए जाते थे। दामोदरपुर ( ज़िला दीनाजपुर, बंगाल ) से मिले हुए ताम्रपत्र में' 'पुंडबधेन भुक्ति! ( उत्तरी

प्रादेशिक

विभाग

एपि० हं० जिलद १७५, ए० १३४--१४१

गुप्तकारडीन शासन-व्यवस्था ८५

बंगाल ) के शासक का “उपरिक महाराज राजपुत्रदेव भट्टारक' उपाधि से संबोधित किया गया है। बसाढ़ (वेशाली) की मुहरों (8०४७) में तीरभुक्ति ( तिरहुत ) के शासक राजकुमार गोविंदगुप्त का उल्लेख है। विषय-पतियों को भोगपति ही नियुक्त करते थे। विषय-पति का शासन- केंद्र नगर में होता था जो “अधिष्ठान' कहलाता था। उसका कार्यालय “अधिकरण' कहलाता था। अधिकरण में कई कायस्थ (लेखक ) होते थे जिन में मुख्य प्रथम कायस्थ” कहलाता था विषयपति को ग्रबंधसंबंधी सलाह देने के लिये एक समिति होती थी। इस में एक “नगर-श्रेष्ठी' (नगर का बड़ा सेठ), एक 'साथंवाह! ( बड़ा व्यापारी ), एक 'अरथम कुलिक ओर एक “प्रथम कायस्थ! (चीफ़ सेक्रेटरी ) रहता था। शांतों ओर विषयों के शासकों को दूसरे बड़े बड़े कमेचारियों से सहायता मिलती थी ग्राम का शासन ग्रामिक! के हाथ में होता था। पहले पहल ग्रामिक की नियुक्ति कैसे हुईं होगी यह निश्चय पूवक नहीं कहा जा सकता। राज्य की ओर से ग्राम के प्रबंध में कोई हस्तक्षेप नहीं किया ग्राम पंचायत जाता था भारतवष में ग्राम-संस्था का अत्यंत ग्राचीन काल से प्रचार था।* राजनीतिक विप्लवों ओर परिवतनों का ग्राम-संस्था पर कोई प्रभाव पड़ता था आरामिक गाँव के बड़े बूढ़ों से प्रबंध विषयक सलाह लिया करता होगा इस समय के दान-पत्रों में ग्राम-महत्तरों? का उल्लेख मिलता है, जो ञ्राम के प्रबंध में भाग लिया करते थे।

आ० स० रिपोर्ट-१९०३-४

साँची के स० ४१३ के शिलाछेख में द्वितीय चंद्रगुप्त के सेनापति आम्र- कादंव के गाँव की पंचायत के सामने एक गाँव और २७ दीनारों के दान का वर्णन है * गाँव के आय-व्यय का हिसाब 'तल्वाटक' के पास रहता था।

+“पत्चमंडल्याम्‌ पणिपत्य ददाति पंच विशतीशच दीनारानू”। --फ्लीट, गु० शि० ५।

८६. चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

नगर का प्राधन शासक 'द्रांगिक' कहलाता था। उसे भोगपति या प्रांतीय शासक नियुक्त करता था। नगर के व्यवसा- यियों ओर व्यापारियों से कर बसूल करने का काम भी 'द्वांगिकः का ही था

राज्य की आय का सब से प्रधान साधन लगान था लगान के रूप में कृषक लोग उपज का कुछ भाग राजा को दिया करते थे ।१ इस कर को उद्रंग कहते थे। आजकल के सेस की तरह उद्रंग के बाद एक 'उपरिकर” भी लगता था। संभवतः यह उपरिकर उन कृषकों को देना पड़ता हो जिनका भूमि पर अपना स्वत्व नहीं था जैसा कि फ़्लीट साहब ने अनुमान किया है भूमि नापी जाती थी ओर जमींदारों का नियमानुसार लेख रखा जाता था। प्रत्येक जमींदार की भूमि की सीमा निर्धारित की जाती थी ओर सरकारी लेखों में उस का पूरा विवरण दिया जाता था भूमि को नापने वालों को 'प्रमात! ओर सीमा निर्धारित करने वालों को 'सीमा-प्रदातृ? कहते थे | लगान नियत करने के लिये कुछ निश्चित नियम बने हुए थे जो 'भूमिछिद्वन्याय! के नाम से प्रचलित थे। भूमि छिद्र का अथे काश्त करने योग्य भूमि माना गया है। भूमि की उपज-शक्ति की कमी बेशी के अनुसार ही लगान भी कम या ज्यादे लगता था भूमि ओर लगान संबंधी झगड़ों का निपटारा करने के लिये एक अलग पदाधिकारी होता था जिस को 'न्यायाधिकरण” कहते थे। लगान ओर कृषि संबंधी निरीक्षण करने वाले अफ़सर 'ध्रुवाधिकरण” कहलाते थे। लगान आदि से संबंध रखने वाले सब लेखों को सुरक्षित रखने के लिये कई कमेचारी नियत थे। “पुस्तपाल,” 'अक्षपटलिक' ओर 'करणिक' कुछ इसी संबंध

) राजा भूमि की उपज का छठा हिस्सा कर रूप से छेता था | इसलिये ठसे 'षष्ठांशश्ृत्ति' कहा जाता था

नगर

लगान ओर कृषि-

विभाग

गुप्तकालीन शासन-व्यवस्था ८७

के अफ़सर थे। आज कल की भाषा में 'करणिकः रजिस्ट्रार, अक्षपटलिक', रेकडे कीपर ओर पुस्तपाल उससे बड़ा अफ़सर रहा होगा | पर संभवत: इन को ओर प्रकार के राजकीय लेख भी रखने पड़ते थे। केबल लगान ओर कृषि से ही इन का संबंध रहा होगा उस ज़माने में भी ज़मीनों के नकशे बनाये जाते थे। नकशा खींचने वाले 'कतृ” या 'शासयित्‌' कहाते थे। लगान के अलावा ओर भी कई प्रकार के करों से राज्य की आय होती थो। गोचर भूमि, चमड़ों, कोयला, भाँति भाँति को खानों और नशीली चीज़ों पर भी कर लगता था बेगार की प्रथा प्रचलित थी ओर “विष्टिक' कहलाती थी। अशथदंड से भी राज्य को काफ़ी आमदनी होती थी चुंगी की भी प्रथा थी। चुंगी का विभाग 'शोल्किक! के श्रधीन था। जंगलों का प्रबंध 'गौल्मिक' के श्रधिकार में था। जंगलों से भी अच्छी आमदनी होती थी। इन के अतिरिक्त अधीन राजा-महाराजाओं ओर सामंत आदिकों से जो कर मिलता था उस से भी राजकोष की अच्छी पूर्ति होती थी। राज्यकोष का प्रबंध-भार भांडागाराधिकृतों के ऊपर रहता था। इन बिषयों में सामंतगण भी अपने राज्यों के शासन में प्राय: सम्राद्‌ के राज्य-शासन के आदश का ही अनु- सरण करते थे। चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय की प्रांतीय शासनविधि का हमें प्राचीन वैशाली ( बसाढ़, जिला मुफ्फरपुर, बिहार ) से मिली हुईं बहुत सी मिट्टी की मुहरों से पता चलता है। इन में एक मुहर “महादेवी प्रांतीय शासन श्रीभुवस्वामिनी? की भी है इस पर लिखा है-- “महाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्रपत्नी महाराजश्रीगोविंदगुप्त- माता महादेवी श्रीधुवस्वामिनी ।? यह भुवस्वामिनी महाराजाधिराज श्री चंद्रगुप्त द्वितीय की ख्री ओर महाराज श्रीगोबिंदगुप्त की माता थी। कदा- चित्‌ , इस वैशाली प्रांत का शासन महाराणी श्रीभुवस्वामिनी के पुत्र महाराज श्रीगोविंदगुप्त के अधीन था। दूसरी मुहरें महाराज गोविंदगुप्त

अन्य राज्यकर

८८ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

के अधीन प्रांत के अन्य राज-कमैचारियों, मुख्य मुख्य नागरिकों ओर संस्थाओं की थीं। इन में एक मुहर “श्री घटोत्कच गुप्तर की थी जो गुप्त- बंश की होनी चाहिए श्रीयुत डी० आर० भांडारकर का अनुमान है कि जहाँ पर ये मुहरें मिली हैं वहाँ मिट्टी की मुहरों के साँचे बनाने वाले का कारखाना होगा ओर ये मिली हुई मुहरें उस समय के अधिकारियों की असली मुहरों के नमूने होंगे ।' इन मुहरों पर प्रांतीय सरकार के भिन्न भिन्न कर्मचारियों की निम्नलिखित उपाधियाँ मिलती हैं---

“कुमारामात्याधिकरण”---कुमार का प्रधान मंत्री। प्रांत के शासन में राजकुमार अपने मंत्री-मंडल से सलाह लिया करता था। सेना का प्रधान सचिव 'बलाधिकरण?” कहलाता था ।'* युद्ध-सामग्री का कोषाध्यक्ष 'रण- भांडागाराधिकरण' ओर पुलिस का अफ़सर 'दंडपाशाधिकरण” कहलाता था। इन के अतिरिक्त राजभवनों का निरीक्षक “'महाप्रतीहार! वा विनय- शुरः ओर न्यायाधीश 'महादंडनायक” कहे जाते थे। वेशाली की पूर्वोक्त मुहरों में एक पर “तीरभुक्तो विनय-स्थितिस्थापकाधिकरण” लिखा है। डाक्टर ब्लीच का अनुमान है कि इस राजमंत्री का वही काय होगा जो अशोक के नियत किये हुए “धमं-महामात्रों' का था। अर्थात्‌ थे धम की रक्षा करने के लिये, धर्म की वृद्धि करने के लिये ओर धमौत्मा जनों के हित ओर सुख के लिये सब संप्रदायों में काय करने को नियत किये

आकफियोलोजिकेल सर्वे रिपोट, १९०३-७४, ए० १०१३-२० श्रीयुत ब्लौच की बसाढ की खुदाई

'कुमारामात्याधिकरण' तथा 'बलाधिकरण” इन उपाधियों के साथ जुड़ी हुईं भट्टारक' और “युवराज” की भी उपाधियाँ मिलती हैं। इससे प्रकट होता है कि इन मुद्राओं के 'युवराज” पद से राजा के उत्तराधिकारी का तात्पय॑ नहीं है। संभवत: ये 'कुमारामात्य' के उच्चश्रेणी के खिताब होंगे गुप्त-साम्राज्य के राज- फर्मेचारियों को कई प्रफार के ऊँचे ऊँचे शानदार खिताब और रुतबे मिछा करते थे, यह बसाढ़ की मुद्राओं से सूचित होता है

शुप्तकालीन शासन-व्यवस्था ८९

गये थे।”' “श्री परम भट्टारक पादीय कुमारामात्याधिकरण” यह किसी दूसरे मंत्री की उपाधि एक मुद्रा पर लिखी मिलती है। यह मुद्रा संभवत: सम्राद के नियत किये हुए राजकुमार के प्रधान मंत्री की होगी। “तीर- भुक्त्युपरिकाधिकरण”” -- तिरहुत प्रांत के शासक के दफ़॒र की सूचक राज- मुद्रा पर यह लेख है। एक दूसरी मुद्रा पर “वैशाल्यधिष्ठानाधिकरण” लिखा है। यह कदाचित्‌ वैशाली नगर के शासक की मुद्रा थी। एक मुहर पर “उदनकूप परिषद्‌” का उल्लेख है। इस से सूचित होता है कि परिषद्‌ अथवा पंचायत जो हिंदू शासन-पद्धति का सदा से महत्त्वपूर्ण अंग रही है, गुप्तकाल में भी विद्यमान थी। “श्रेष्ठी-साथंवाह-कुलिक निगम” का उल्लेख कुछ मुद्राओं पर मिलता है। इस से स्पष्ट ज्ञात होता है कि उस समय पूँजीपति (श्रेष्ठी ), व्यापारी (सारथवाह) और अन्य व्यवसायियों के सुव्यवस्थित संघ मोजूद थे। राज्य भी इन के संघ की सत्ता मानता था। गुप्तकाल में भी सेठ, साहूकार ओर व्यापारियों के बहुत से संघ थे। इन में एक मुहर “प्रथम कुलिक” की है जो कदाचित्‌ अपने संघ का प्रधान होगा ये निगम वा गण बेंक का भी काम करते थे। प्रायः भारतवर्ष का संपूर्णा व्यापार और व्यवसाय इन्हों निगमों- द्वारा होता था

दामोदरपुर ( ज़िला दिनाजपुर--बंगाल ) से दो ताम्रपत्र मिले हैं जो क्रम से इ० स० ४४३-४४४ और इ० स० ४४८-४४९ ( गुप्त संवत्‌ १२४ ओर १२९ ) के हैं ।* इन में धमेकाय के लिये सरकार से भूमि खरी- दने ओर उस का सुवरण मुद्राओं में ( दीनार ) मूल्य देने का उल्लेख है भूमि खरीदनेवाले को अपने विषयपति ( ज़िला अफ़सर ) के पास आवे- दनपत्न देना ओर वहाँ की प्रचलित प्रथा के हिसाब से उसको क्रीमत का उल्लेख करना पड़ता था। जब उस के प्राथेना-पत्र पर राज्य का पुस्त-

खतुरदंश शिलालेख, छेख-सं०

एपि० हंड० जिलद १७, पृष्ठ १३४-१४१ १२

९० चंद्रगुप्त विक्रमादित्य पाल ( रैकडे-कीपर ) अपनी अनुमति दे देता था तब प्रार्थी को उतनी भूमि माप कर दे दी जाती थी। इस से स्पष्ट है कि शासन के छोटे बड़े सभी काय सरकारी दफ़रों में नियमानुसार लिखे जाते थे। वैशाली की अनेक प्रकार की मुहरों से सिद्ध होता है कि शासन के विभिन्न विभागों की जुदी जुदी तरह की मुहरें होती थीं जिन का उपयोग तत्तद्‌ विभाग की कायवाही में हुआ करता था। प्रांतीय शासकों के पास राजा की लिखित आज्ञाएँ जाती थीं। एक ताम्रपत्र से पता लगता है कि ये आज्ञाएँ तभी ठीक मानी जाती थीं, जब कि उनपर सरकारी मुहर हो, प्रांतीय शासक की स्वीकृति हो, राजा का हस्ताक्षर ओर तत्संबंधी सब क्रियाएँ ठीक हों ।' राजा की तरफ़ से दी गई तमाम सनदों ओर दान-पत्रों पर राज-सुद्रा की छाप होती थी। सम्राट समुद्रगुप्त के सन्धिपत्रों ओर सनदों पर गरुड़ का चिह्न ' रहता था यह प्रयाग की ग्रशस्ति में लिखा है

राजा के बड़े कमचारियों में “मंत्री', 'सांधिविग्नहिक', 'अक्षपटलाधि- कृत” * और “महादंडनायक?' आदि का उल्लेख शिलालेखों में मिलता है। प्रांत के शासक को “'उपरिक महाराज?” कहते थे। कई शिलालेखों में प्रांतीय शासकों के गोप्ता, भोगिक, भोगपति, राजस्थानीय आदि नाम भी मिलते हैं। प्रांतीय शासक विषय या ज़िले के शासक को नियुक्त करता था जिसे 'विषयपति? वा “आयुक्तक” कहते थे। वैशाली की दो मुद्राओं पर (तीर भुक्त्युपरिकाधिकरणस्य” लिखा है, जो तिरहुत ग्रांत के शासक के

तल वि िकननीनल िनततन-

मुद्राशुरुं क्रियाशुर्र भुक्तिझुद् सचिहृक राश्ष: स्वहस्तश॒ुद्ध॑ शुद्धिमाप्रोति शासनम्‌ ओझा, मध्यकालीन भारत--एपि० इंडिको, ३. ३०२

धरुप्मर्दकस्वविषय-भुक्ति-शासन याचनाशुपाय सेवाकृत बाहूवीयप्रसरधर- णिबंधस्य' फुलीट, गु० शि०

श्राय-ध्यय का हिसाब रखनेवाला

न्यायाधीश

जज

गुप्तकालीन शासन-व्यवस्था

दफ़्तर की मुद्रा है। गुप््कालीन शिलालेखों ओर मुद्राओं में कुछ और भी राजक्रमंचारियों के नामों का उल्लेख मिलता है, जैसे शोल्किक ( कर लेनेवाला कमेचारी ), गौल्मिक ( दुरगपाल ), भुवाधिकरण ( भूमि-कर लेनेबाला ), भांडागाराधिक्रत ( कोषाध्यक्ष ), तलवाटक (ग्राम का हिसाब रखनेवाला ), करणिक ( रजिस्ट्रार ) अग्रहारिक ( दानाध्यक्ष ) ।' संपूरो सेना के अधिकारी को 'महाबलाधिकृत” कहते थे। 'भटाश्व सेनापति', पैदल ओर घोड़ों की सेना के अध्यक्ष को कहते थे। कमंचारियों की उपयुक्त नामावली से स्पष्ट सिद्ध है कि गुप्तकालीन शासन-व्यवस्था सुसंग- ठित थी। गुप्तवंश के सम्राट विशिष्ट विद्वान और योग्यतम व्यक्तियों को ही शासन के काम में नियुक्त करते थे। समुद्रगुप्त की प्रशस्ति के लेखक महाकवि हरिषेश ऐसे विद्वान, न्यायाधीश, सन्धि-विग्रह-विभाग ओर राजकुमार के मन्त्रिपद पर नियुक्त थे। चन्द्रगुप्त द्वितीय के संधि- विग्नह-विभाग का मंत्री कबि वीरसेन था जो व्याकरण, साहित्य, न्याय ओर लोकनीति का विद्वान था--'शब्दाथे न्‍न्यायलोकज्न:? | उसकी सचिव- पदवी कुल-क्रमागत थी “अन्वयप्राप्त साचिव्य!। साँची के लेख में आम्र- कादव नाम के चन्द्रगुप्त द्वितीय के एक बड़े अफ़सर का पंचमंडली ( पंचा- यत ) को प्रणाम कर एक गाँव ओर २५ दीनारों के दान करने का उल्लेख है उसने अनेक युद्धों में विजयी होकर यश प्राप्त किया था--अनेक समरावाप्त विजय यशस्पताकः? गुप्तवंश के राजा लोग सावजनिक हित के कार्यो" के लिये बहुत कुछ दान किया करते थे। ऐसे दान का विभाग “अग्रहारिक:--उपाधिधारी अफ़सर के अधिकार में रहता था। राजा ही नहीं, उसके परिवार के लोग ओर उच्च पदाधिकारी उनका अनुकरण कर बहुत-सा दान दिया करते थे। उदाहरणाथे, इं० स० ४२३-४२४ में मयू- राक्ष नामक मंत्री ने दो मंदिरों के साथ साथ अपने नगर के लोगों के

गुप्त लेख--सं० १२

९२ चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

सुख के लिये सभा-भवन बनवाये, बगीचे लगवाये, कूृएँ, तालाब आदि कई प्रकार के साधन प्रस्तुत किये थे।'

उस समय दानपत्र को शासन कहते थे प्रत्येक शासन में दान में दी गई भूमि की सीमा ओर क्षेत्रफल बड़ी सावधानी के साथ लिख दिया जाता था जिससे आगे चलकर कोई गड़बड़ हो। भूमिदान हमेशा के लिये होता था ।* राजा के सामन्त, कमंचारी ओर प्रजा सब को शासन ही के द्वारा दान की गई भूमि पर हस्तक्षेप करने से स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया जाता था।

एकछत्र शासन के अधीन अनेक राष्ट्रों के राजनीतिक संगठन से गुप्त- साम्राज्य बना था। इस राष्ट्र-मंडल में गुप्तवंशी राजा चक्रवर्ती थे। उन के विरुद 'महाराजाधिराज?, परमेश्वर”, 'परम भट्टारक” आदि होते थे। उन की प्रभुता सबंतोमुखी कही जाती थी। चारों समुद्र पयेत उन का यश फैला हुआ था, ऐसा कवि लोग उन के विषय में वन करते थे ।* उत्तर में

सन्त अधिल्सनननन “-- जल >+-+ >जल के अिनाओित3 -+ ४७

“वापी तड़ागसुरसभ्न सभोदुपाननानाविधोपवनसंक्रम दीधिकाभि: ।?? पूलीट--गुप्त लेख, १७ * बष्टिवबसहसत्राणि रुतर्गे मोद॒ति भूमिदः आक्षेप्ता चानुमन्‍्ता तान्येव नरके वसेत्‌ भूमिप्रदानज्न पर प्रदान॑ दानाद्विशिष्ट परिपालनञ्ञ सर्वे$3तिसृष्टा परिपाल्य भूमि नृपा नृगाद्यास्रिदिव॑ प्रपन्ना: --महाभारत का अवतरण, सं॑क्षोभ के खोह से मिले ताम्रशासन में, फूलीट, गु० शि० सं० २५ ““चतुशदधि सलिला स्वादित यशसः:” ।--मथुरा का शिलालेख, फूलीट, स॑ं० ४। “बतुरुदधि जलान्ता स्फीतपय॑न्तदेशाम्‌ अवनिम वनतारिये इ्वकारास्मसंस्थास! | ---स्कन्द गुप्त का जुनागढ़ का शि०

ले० पुरीट, सं० १४।

गुप्तकालीन शासन-व्यवस्था ९३

हिमालय से दक्षिण में महेंद्र पबत तक ओर पूबे में लोहित्य ( त्रह्मपुत्र ) नदी से पश्चिम में समुद्र तक जिस के शासन को सामंत राजा स्वीकार करते थे वही भारत के प्राचीन नीतिशाख्रों ओर काव्यों में आदश चक्र- वर्ती सम्राट कहा जाता था।' ऐसे ही प्रतापी राजा पूर्वोक्त उपाधियाँ धारण करते थे। साम्राज्य के अधीन राष्ट्रों के राजा अपने अपने देश के शासन करने में स्वतंत्र थे। उन की आशभ्यंतर नीति पर चक्रवर्ती राजा का कुछ भी अंकुश रहता था। भिन्न भिन्न देश, कुल, जाति आदि के धर्मा' का आदर करना--उन के नीति-नियमों ओर प्रथाओं में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करना--यह हिंदू राजनीति का पुराना सिद्धांत था गुप्त-सम्राट भी अपने सामंत राजाओं के साथ व्यवहार करने में इसी नीति-रीति का अनुसरण करते थे सम्राट समुद्रगप्त ने अपने निकटवर्ती राजाओं के देशों को स्वाधीन किया था, पर॑तु उसने बहुत से अन्य राजा- ओं को जीत कर फिर उन्हें स्वतंत्र कर दिया था। बहुत से राजघराने जो उस के द्वारा परास्त हो चुके थे, फिर से स्थापित कर दिये गये थे अनेक गण-राज्य भी उस का प्रभुत्व स्वीकार कर स्वाधीन बने रहे सामंत राजा- ओं के दरजे ओर अधिकार कई प्रकार के थे उदाहरणाथ, सीमांत प्रदेशों ““चतुस्समुद्रान्त विछोल मेखलां सुमेरु केलासबृहस्पयोधराम वनान्तवान्तस्फुट पुष्प हासिनीं कुमारगुप्ते ए्थिवीं प्रशासति ॥”” --मंद्सोर का शि० ले० फूलीट स॑० १८ “आसमुद्रक्षितीशानाम!---रघुवंश, “उद्धिश्यामसीमां धरिन्रीम!ः--शाकुन्तछ, ५। आलोहित्योपकंठात्तलवऊगहनो पत्यका दा महे न्द्वात्‌ आगड्भराइलिष्ट सानोस्तुहिन शिखरिण: पर्चिमादापयोधे: सामन्तैय॑स्य बाहु द्रविण हृतमदे: पादयोरानमद्ति इसूड़ार॒त्नांशुराजिब्यतिकरशबला भूमिभागा: क्रियन्ते --मंदसोर का यशोधम का स्तंभ लेख, फूलीट, गु० शि० ३३

९४ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

के राजा सामंतों की अपेत्ता उच्चश्रेणी के थे। महाराज” और “महासामंत” कदाचित्‌ एक ही दरजे के थे गुप्त शिलालेखों में महाराज? उपाधिधारी सामंतों के नाम के साथ 'पादानुध्यात” विशेषण भी मिलता है, अर्थात्‌ वे अपने सम्राट के चरणों का ध्यान करनेवाले थे। जिस साम्राज्य के वे अधीन थे उस का उल्लेख वे अपने शिलालेखों ओर ताम्र-शासनों में बड़े आदरपूण शब्दों में किया करते थे। डहाला ( बुंदेलखंड ) के महा- राज संक्षोभ के ईं० स० ५२९ के ताम्रशासन में “गुप्तन॒प राज्य भुक्तो श्रीमति प्रवर्धभान विजय राज्ये”' इन आदरसूचक शब्दों में गुप्त-साम्राज्य का उल्लेख किया गया है। कहीं कहीं शिलालेखों में गुप्त-संबत्‌ भी, “अअभिवधमान विजय-राज्य-संवत्सर' इन गोरवान्वित शब्दों में लिखा मिलता है।

गुप्त-काल में भारत को सांपत्तिक अवस्था

गुप्त-साम्राज्य में प्रजा धनधान्यपू््णो थी। देश का व्यापार भी बहुत उन्नत दशा में था। राजा ओर प्रजा पुण्याथ बहुत-से धन का विनियोग करते थे। सम्राद समुद्रगुप्त ने अश्वमेध का अनुष्ठान कर असंख्य गो ओर सुवर्ण का दान किया था---न्यायागतानेक गो हिरण्य कोटि प्रदस्य!। मंदिर, अन्नसत्र, पांथशाला, ओषधालय, कूएँ, बावड़ी, तड़ाग, उपवन आदि राजा ओर प्रजा द्वारा किये हुए अनेक धार्मिक कार्यो' का गुप्त-काल के शिलालेखों से पता चलता है जिन से हंमें राष्ट्र की तत्कालीन सम्रद्धि का दिग्दशन होता है। इलाहाबाद ज़िले में गढ़वा नामक ग्राम से ग॒प्त-संवत्‌ ८८ (ई० स० ४०७) के शिलालेख में एक ब्राह्मण के नित्य भोजन--सदासत्र' के लिये १० दीनारों के दान का उल्लेख है इस से स्पष्ट है .कि एक मनुष्य के नित्य भोजन के लिये उस समय की दस सुवण मुद्राएँ पर्याप्त होती थीं। गुप्त संवत्‌ ९३ (इ० स० ४१२) के साँची के शिलालेख में चंद्रगुप्त

पूलीट, गु० शि० स॑० २५

गुप्तकालीन शासन-व्यवस्था ९५

विक्रमादित्य के सेनापति आम्रकादंव ने दस बोद्ध भिक्लुओं को “यावश॑द्रा- दित्यो? भोजन दिये जाने ओर बुद्धदेव के मंदिर में एक दीपक जलाने के लिये १०० दौनारों के दान का उल्लेख किया है। अथोत्‌ दस भिक्षुओं के नित्य के भोजन के लिये उस समय सिफ़ १०० दीनारों का सूद काफ़ी होता था गुप्त संवत्‌ १३१ (इ० स० ४५०) के साँची के एक दूसरे शिलालेख में १२ दीनारों के ब्याज से सदा संघ में एक भिक्तु को भोजन कराने तथा भगवान बुद्ध के मंदिर में तीन दीनारों के ब्याज से सदा तीन दीपक जलाने का दाता की ओर से आदेश है।' गुप्त राजाओं के दीनार रोम देश की सुबर्ण मुद्रा की तोल के अनुसार १२४ ग्रेन के होते थे जो हमारी वतमान तोल के अनुसार आठ माशे से कुछ अधिक होते थे ।' दस दीनार आजकल के लगभग सात तोले सुबण के बराबर होंगे। इतनी थोड़ी रकम के ब्याज से एक मनुष्य उस समय आजीवन निवाह कर सकता था। आजकल की अपेक्षा खाद्य पदार्थ अत्यन्त सस्ते होंगे। चीनी यात्री फ़ाहियान ने भी लिखा है कि हमारे देश में उस समय साधारणतया निर्वाह के लिये केबल कौड़ियों की ही आवश्यकता होती थी। गुप्त सम्राटों के भिन्न भिन्न प्रकार के सोने, चाँदी ओर ताँबे के सिक्कों का प्रचुर प्रचार होते हुए भी साधारण वस्तु-विनिमय के लिये कोड़ियाँ ही काफ़ी होती थीं। उस समय के बढ़े चढ़े व्यापार की सुविधा के लिये ही गुप्त नरेशों को तरह तरह के सिक्के चलाने पड़े होंगे। प्रजा की आर्थिक उन्नति के साधनों पर उस समय खूब ध्यान दिया जाता था। हिंदू राजधमे के अनुसार प्रजा के भूत्यथथ ही राजा

आयंसंघाय अक्षयनीवी दक्ता दीनारा द्वादश एपां दीनाराणां या दृद्धिरुप- जायते तया दिवसे दिवसे'''भिक्षुरकेक: भोजयितब्यः रत्गृहे5पि दीनारश्रयं दुस्‍्तं तद्दीनारश्रयस्य बृद्धधा रक्षयुद्दे भगवतों बुद्धस्य दिवसे दिवसे दीपन्रयं प्रज्वालयि- तब्यम (--फ्लीट, गु० शि०; स॑

सेप्सन--भारतीय सिक्‍के, पृष्ठ १७, ७० |

९६ चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

को बलि लेना चाहिए ।' न्याय से अथे का उपाजन करना, उस की रक्षा तथा वृद्धि करना ओर उस का प्रजा के हिताथे उचित उपयोग करना यह हिंदू राजनीति का पुराना सिद्धांत था। गृप्त-नरेश भी इसी नीति का अनुसरण करते होंगे--इस में संदेह नहीं। जूनागढ़ के शिलालेख से प्रकट होता है कि स्कंदगुप्त ने उक्त सिद्धांत को लक्ष्य में रखकर अपने सारे भ्रृत्य-मंडल में से पणशदत्त को ही सुराष्ट्र (काठियावाड़) का शासक नियुक्त किया था। पणदत्त ने अपने पुत्र चक्रपालित को गिरिनगर की रक्षा का भार सोंपा था। वहाँ चंद्रगुप्त मोय के समय का एक विशाल सुदर्शन! नामक सरोवर बना था, जिस में से अशोक ने नहरें निकलवाई थीं जिन- से कृषक सिंचाई करते थे। स्कंदगुप्त के समय वह सरोवर धोरबृष्टि के कारण टूट गया, किंतु चक्रपालित ने अमित द्रव्य लगा कर उस का पुन: जीर्णद्धार किया---४धनस्य कृत्वा व्ययमप्रमेयम! ग॒प्त-काल के उद्योग-धंधे श्रेणियों के अधीन थे भिन्न भिन्न पेशेवाले अपना अपना नियमबद्ध समुदाय बनाते थे। ये श्रेणियाँ अपना अपना व्यवसाय करती थीं। उनके प्रत्येक सभ्य को अपनी अपनी संस्था के नियमों का पालन करना पड़ता था। बसाड़ (ज़िला मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार ) से बहुत सी मिट्टी की मुहरें मिली हैं जो चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय के आसपास की हेैं। उन में कुछ मुहरों पर “श्रेष्ठिसारथवाह-कुलिक-निगम! लिखा है इन से प्रकट होता है कि सेठों, व्यापारियों ओर अन्य व्यव- सायियों की श्रेणियाँ ( निगम ) उस समय बनी हुई थीं और वे अपनी अपनी संस्थाओं की खास मुहर-छाप रखते थे उक्त मुद्रा के लेख से यह प्रजानामेव भृत्यर्थ ताभ्यो बलिमगृहीत्‌ सहस््रगुणमुत्सष्दु मादसे हि रस॑ रखिः ॥! --काछिदास, रघु० न्‍्यायाजेने5थेस्य 'च कः समर्थ: स्यादर्जितस्थाप्यथ रक्षणे गोपायितस्यापि बृद्धिद्ेतो वृद्धस्य पान्नप्रतिपादुनाय --फूलीट, सँ० १४, १०

गुप्तकालीन शासन-व्येवस्था ९७

अनुमान होता है कि भिन्न भिन्न निगमों के प्रधानाध्यक्ष प्रतिनिधि रूप से

स्थानिक शासन में भाग लेते होंगे। इस अनुमान की पुष्टि दामोदरपुर से मिले हुए ताम्रपत्र के लेखों से भी होती है। वे विषयपतियों को राज्य-

प्रबंध में सलाह दिया करते थे। राज्य के अधिकारी उन के नियमों का आदर करते थे। ये निगम-संस्थाएँ बहुत समय से प्रचलित थीं। मंदसोर से मिले हुए एक शिलालेख से पाया जाता है कि रेशम के कारीगरों का एक समुदाय ( श्रेणी ) गुजरात ( लाटदेश ) से चलकर मालवा में बसा था ओर वहाँ कुमारग॒प्त के राज्यकाल में मालव संवत्‌ ४९३ ( ई० स० ४३७ ) में सूय का विशाल मंदिर बनवाया था ।' उन्हीं उदार व्यव- सायियों ने मालव संबत्‌ ५३० ( इ० स० ४७३ ) में उस मंद्रि का पुनः संस्कार कराया था। अपने कलाकोशल से उन्होंने ख्नूब संपत्ति प्राप्त की थी स्कंदगुप्त के समय इई० स० ४६५ में किसी देवविष्णु नामक ब्राह्मण ने इंद्रपुर ( ज़िला बुलंदशहर ) के सूय-मंदिर में अपने दान की रक़म के ब्याज से दीपक जलाने का काम तेलियों की एक श्रेणी को सोंपा था।' ये श्रेणियाँ बेंक का भी काम करती थीं। धम्म-कार्यो' के लिये, ये लोगों का धन जमाकर उसपर बराबर ब्याज दिया करती थीं गुप्तकाल में भारत का वैदेशिक संबंध

कुछ विद्वानों की धारणा है कि हिंदू लोग सदा से एकांतवासी थे ओर विदेशों से वे किसी तरह का संपक रखते थे उनके धार्मिक बंधन उन्हें देश के बाहर निकलने से रोकते थे। उनके आचार-विचार दूसरी जातियों के संसग से कलुषित हो जाय, इस शंका से बे विदेशों में जाने

“शिल्पावाप्तेर्थनसमुदयेः पद्टवायेरुदारम्‌

श्रेणी भूतेभवनमतुल॑ कारित॑ दीघ्तरइमे: ॥” “स्रयशोबृद्धये सवमत्युदारमुदारया संस्कारितमिद॑ भूयः श्रेण्या भानुमतो गृहस्‌ ॥”! * फ्लीट--गु० शि० इंदौर का ताम्रपश्र--सं० १६।

थे्से

९८ चद्र॒गुप्त विक्रमादित्य

से घबड़ाते थे। फिर, भारत की रल्नगर्भा वसुंधरा में जन्म लेकर कोन भला विदेशों की परवा करता था ! परंतु ये सब भ्रांतिपूर्ण उद्गार भारत के प्राचीन इतिहास से अनभिज्ञ लोगों के हैं। भारतीय इतिहास इस बात का साक्षी है कि प्राचीन हिंदुओं ने कभी अपना जीवन कूपमंडूकवत्‌ नहीं बिताया। अपने देश की संस्कृति के प्रचार ओर व्यापार की वृद्धि करने में हिंदू लोग सदा से उत्साहशील थे। वे केवल अपनी ही उन्नति ओर मुक्ति से संतुष्ट नहीं थे, किंतु उनमें जो कुछ उत्कृष्ट था उसे बिना क्रिसी जाति, मत वा संस्कृति के भेद्‌-भाव के अपने प्राचीन पड़ोसियों में वितरण करने के लिये वे सदा से उत्सुक थे। वेद्युग से ही आये-संस्क्रति का प्रभाव भिन्न भिन्न देशों और जातियों में परस्पर के शांतिमय संपर्क द्वारा फैला था गंगा, यमुना ओर सरस्वती नदी की संकीण भूमि में जो संस्क्रते विकसित हुई बह समस्त भारतवष में ओर इसके बाहर एशिया-खण्ड के लगभग भागों में काल-क्रम से फैल गईइ। यह मनुष्य-जाति के इतिहास-प्रष्ठ पर लिखे हुए बड़े से बड़े आश्वर्यो' में एक आश्चरये है। बोद्ध धर्म के प्रारंभ- काल से तो भारतीय संस्क्रति का संक्रमण जहाँ तहाँ बड़े तीत्र वेग से होने लगा अशोक के धमे-शिक्षक 'धमे-बिजय” करने के लिये एशिया, यूरोप और अफ्रीका को पधारे। वे जहाँ गये वहाँ उन्होंने इस देश की विद्या, कला ओर संस्कृति को फैलाया। 'प्रथ्वी-मंडल के सारे मनुष्य अपना अपना चरित्र--अपना अपना कतव्य--इस देश में जन्म पाने- वाले उच्चवर्ग के लोगों से सीखें'--इस प्रकार उपदेश हिंदुओं के परम मान्य शास्त्रकार मनु ने किया था ।' सारांश यह कि भारतवष ने अपना प्रकाश--अपने ज्ञान ओर धम की निधि--अन्य जातियों से छिपाकर नहीं रखी एतद्देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मन: स्‍्व॑ स्व॑ चरिश्र॑ शिक्षेरत्‌ एथ्वयां सर्वमानवा: --मनुस्मखति

गुप्तकालीन शासन-व्यवस्था ९९,

पुरातत्व के पंडितों के ऋह्ाध्य प्रयत्रों से आज हमारे ऐतिहासिक ज्षितिज में भारतवर्ष के बाहर के अनेक देश दृष्टिगत होने लगे हैं जिन पर भारतीय सभ्यता का गहरा प्रभाव पड़ा था। स्टीन (87 &प०९ 80थां॥) प्रनवेडेल ( 67४7७८०१९० ) आदि विद्वानों ने प्रमाणित कर दिया है कि मध्य एशिया किसी समय भारतवासियों का बहुत बड़ा उपनिवेश और भारतीय सभ्यता का एक खतंत्र केंद्र था। प्राचीन भारत एशिया की संस्कृति का पथप्रदर्शक था इसमें किसी विद्वान को अब संदेह नहीं है मध्य एशिया के रेगिस्तान में सैकड़ों नगरों के खंडहर आदि मिले हैं। उन्हीं सब खंडहरों आदि में जो प्राचीन सिक्के मिले हैं उनपर खरोष्ठी अक्षरों में भारत की प्राकृत भाषा ओर चीनी अक्षरों में चीनी भाषा के लेख खुदे हैं खोतान से १३ मील दूर गोसिंग विहार के भग्मावशेषों में भूजपत्र पर खरोष्ठी लिपि में लिखा हुआ पाली भाषा का बोद्ध ग्रन्थ मिला है, जो इसा के जन्म के आस-पास का है। दूसरा वैद्यक का ग्रन्थ कुचार के समीप मिंगाई में केप्टेन बोवर ( 097(७४॥ 809०० ) को मिला था, जो संस्कृत भाषा में इे० स० की चोथी शताब्दी की लिपि में लिखा हुआ माना जाता है। फ़ाहियान ने अपनी यात्रा के वर्णन में लिखा है कि गोबी की मरुभूमि को १७ दिन में बड़े संकट से पार कर हम शेनशन प्रदेश ( चीनी तुर्किस्तान ) में पहुँचे इस देश का राजा बोद्ध है यहाँ अनुमान चार हज़ार से अधिक बोद्ध साधु रहते हैं, जो सब हीनयान संप्रदाय के अनुयायी हैं। यहाँ के लोग, क्या गृहस्थी क्या श्रमण, सब भारतीय आचार और नियम का पालन करते हैं। यहाँ से पश्चिम के सब देशों में भी ऐसा ही पाया गया, केबल लोगों की भाषा में अंतर है, तो भी सब श्रमण भारतीय प्रंथों ओर भारतीय भाषा का अध्ययन करते हैं। खोतान के विषय में उस ने लिखा है कि यह देश सुद्दावना ओर समरद्धि- शाली है। यहाँ की जनता बहुत बड़ी ओर संपन्न है। सब लोग बोद्ध- धर्म को मानते हैं। यहाँ दस हज़ार श्रमण रहते हैं जिनमें अधिक महायान पंथ के अनुयायी हैं। अभ्यागत श्रमणों के लिये लोग संघारामों

१०० चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

(मठों) में कमरे बनाते हैं जहाँ उनकी आवश्यकताएँ पूरी की जाती हैं यहाँ चीनी यात्री ने रथयात्रा का उत्सव देखा था। चीनी यात्रियों के वर्णन से मध्य एशिया के इन देशों में भारतीय सभ्यता का इस समय साम्राज्य होना पाया जाता है

गुप्त-युग के डे स० ३५७ से स० ५७१ तक भारतवष के भिन्न भ्रिज्न भागों से लगभग दस धमेशिक्षक चीन-साम्राज्य में गए थे। चीन देश से फ़ाहियान प्रभ्नति बोद्ध यात्रियों का भारत में ताँता-सा बँध गया था। चीन के इतिहासकारों से भारत के उन धीर-बीर विद्वानों का पता चलता है, जो धर्म के आवेश में मागें के अनेक कष्ट सहकर चीन पहुँचे थे ओर वहाँ बौद्ध ग्रंथों का अनुवाद कर उनका ग्रचार किया था। ई० स० ३८१ में कुभा (काबुल ) निवासी बोद्ध श्रमण संघभूति ने चीनी भाषा में तीन बोद्ध ग्रंथों का अनुवाद किया। प्रसिद्ध श्रमण कुमारजीब ३० स० ३८३ में चीन देश में ले जाये गये थे जहाँ इे० स० ४१२ प्यत उन्हों- ने सुखावतीव्यूह, वजच्छेदिका आदि अनेक बोद्ध ग्रंथ चीनी भाषा में अनुवाद किये बुद्धयशस्‌ , पुण्यतर, विमलाक्ष नामक बोद्ध भिक्ुओं ने किपिन ( काश्मीर वा गांधार ) से चीन में जाकर धमे का प्रचार किया था ( इ० स० ४०३-४०६ )। इनके उपरांत चीन-सम्राद के निमंत्रण को खीकार कर श्रमण धमेरक्ष ( इ० स० ४१४ ) मध्यभारत से चीन को गया था बुद्धजीव, धमेमित्र, कालयशस्‌ , बुद्धभद्र, गुणवर्मेन्‌ , संघवर्मन्‌ , गुणभद्र इत्यादि बोद्ध विद्वान, यहाँ से गुप्त-युग में ध्मे-पअचार के लिये चीन देश को पधारे थे। चीनी इतिहासकारों ने लिखा है कि जावा द्वीप में बोद्ध धर्म का प्रचार काश्मीर के युवराज गुणवर्मन्‌ ने किया था, जिसकी रुत्यु चीन के नानकिंग नगर में ३० स० ४३१ में हुईं। इत्सिंग के कथनानुसार गुप्ततंश के संस्थापक श्रीग॒प्त ने चीनी यात्रियों के लिये एक मंदिर बन- वाया था। चीन के रेशमी वस्चन--चीनांशुक--का उल्लेख प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में मिलता है। इन सब उल्लेखों से स्पष्ट सिद्ध है कि भारतवर्ष ओर

गुप्तकालीन शासन-व्यवस्था १०१

चीन-साम्राज्य में पहले से ओर इस समय बड़ा ही घनिष्ठ धार्मिक और व्यापारिक संबंध था ।'

रोम के सम्राटों के दरबार में भारतवर्ष से तीन बार ई० स० ३३६, ३६१ ओर ५१० में दूतमंडली के भेजे जाने का उल्लेख मिलता है कुशन ओर गुप्त काल के सिक्कों में रोम के सिक्कों का अनुकरण पाया जाता है। रोम के सुवर्ण के सिक्के का वाचक शब्द “डिनेरियस” का गुप्त- कालीन संस्कृत भाषा में 'दीनार” के रूप में प्रयोग होने लगा था। इससे अनुमान होता है कि भारत का रोम-साम्राज्य से इतना अधिक व्यापार होता था कि रोम के सोने के सिक्के ( दीनार ) आमतोर से इस देश में व्यवहार में आने लगे थे। रोम-साम्राज्य के अभ्युदय-काल में वहाँ के सोने, चाँदी ओर ताँबे के लाखों सिक्के भारतवर्ष में आया करते थे ।* आर्यावत ओर दक्तिणापथ के भिन्न भिन्न स्थानों में अब भी समय समय पर रोम देश के बहुत से सिक्के मिला करते हैं प्रथम शताब्दी के रोमन इतिहासकार प्लिनी ने लिखा है कि रोम-साम्राज्य से भारतवषे में सुबर्ण की नदी बही चली जाती है ओर हमें अपने भोग-विलास की सामग्री के लिये उस देश को अपना विपुल धन देना पड़ता है

देखिये मेबिक डफ---दी फ्रोनोछोजी आफ हंडिया, १८९९ रसेवेड---रोमन कोइन्स फाउंड इन इंडिया--जे० आर० ए० एस०, १९०४, ५९१-६३७

सातवॉ अध्याय संस्कृत वाडग्मय का विकास

कवियर हरिषेश, कालिदास, वलत्सभटष्टि

संस्क्रत वाडमय के विकास की चचा करते हुए प्रोफ़ेसर मैक्समूलर ने यह पक्त प्रतिपादित किया था कि विदेशी जातियों के आक्रमण के कारण इ० स० की पहली ओर दूसरी सदियों में हिंदुओं ने कोई साहित्यिक उन्नति नहीं की उनके वाड-सय का विकास इस पराधीनता के समय में बिलकुल स्थगित हो गया बुद्धदेव के समय से गुप्त-काल तक आठ सदियों की दीघे निद्रा में भारत की संस्कृत वाणी निमग्न हो गई। गुप्तयुग के आरंभ होते ही अकस्मात्‌ हिंदू धम और संस्क्रत विद्या का पुनरुज्नीवन होने लगा परंतु मेकक्‍्समूलर का ऐसा निर्णय विद्वानों की परीक्षा में नितांत निर्मूल सिद्ध हुआ संस्कृत विद्या के विकास-क्रम में विदेशियों के आने से कोई क्षति नहीं हुईं पहला कारण तो यह है कि यवन, शक आदि विदेशियों का अधिकार समस्त भारत के पाँचवें भाग से अधिक प्रदेश पर अंत तक नहीं हुआ। दूसरा महत्त्व-पूर्ण कारण यह है कि इस समय के विदेशी राजाओं का भारतीय संस्क्रति के प्रति लेश भर भी देष- भाव था वे हिंदू जाति की अपेक्षा स्वयं सभ्यता में बहुत न्यून थे। इस कारण वे भारतीय संस्कृति के संक्रामक प्रभाव में पंड़कर स्वयं हिंदू बन गये थे उन्होंने अपने विजित देश की संस्कृति को पूर्ण रूप से अपना लिया था भारत में बसने के बाद उन्होंने शीघ्र ही हिंदू नाम ग्रहण कर लिये थे उदाहरणाथे, कुशनवंशी शाही हुविष्क के पुत्र का नाम वासुदेव” था शक-राजा नहपान को पुत्री का दक्षमित्रा! और जामाता का नाम

संस्कृत वाइमय का विकास १०१

उषवदात (ऋषभदत्त ) था। पश्चिम के शक जातीय ज्षत्रपों के हिंदू नाम जयदामा, रुद्रदामा आदि हो गए इन विदेशी राजाओं ने भारतीय धर्मो' को भी अपनाया। यवन मिनेंदर (मिलिंद) ने बोद्ध-धर्म की दीक्षा ली ईसा के जन्म से लगभग १४० वष पूर्व तक्षशिला के यबन राजा एंटियाल्किडस का राजदूत हेलियोडोरस विदिशा (भेलसा) के राजा भाग- भद्र के दरबार में आया वहाँ उसने देव देव वासुदेब” का गरुड्ध्वज स्तंभ बनवाया और उसपर अपने आपको भागवत धमे के अनुयायी होने का उल्लेख किया ।' विदेशी लोगों पर भागवत धमे का गहरा प्रभाव पड़ा था भागवत पुराण में लिखा है कि उक्त धमे का आश्रय लेकर वे शुद्ध हो गये ।* यह यवनदूत भगवद्‌ गीता में प्रतिपादित-- “वासुदेव: सवेम!ः---इस आदश का मानने वाला था

कुशन-सम्राट कनिष्क बोद्ध-धर्म का महान संरक्षक था। उषवदात ओर दक्षमित्रा ने नासिक और कालें के शिला-लेखानुसार, बोद्धों और ब्राह्मणों को बिना भेदभाव के अनेक दान दिये थे ओर दानशील हिंदू की भाँति पुण्याथे लोकहित के अनेक काम किये थे। ऐसे अनेक ऐति- हासिक दृष्टान्त दिये जा सकते हैं जिनसे यही निष्कष निकलता है कि

ब>>---«० +#- आओ अभज---+-०-+>-७-+०२...++---..ब.-०-००० ०. -ननन्‍न-ननफिलनामकनकननान जन,

“देवदेवलस वासुदेवत गरुडध्वजे अय॑ कारिते हुअ हेलिओ दोरेण भागवतेन दियसपुश्रेण. तखसिलाकेन योनवूतेन आगतेन महाराजस अंतलितस उप॑ंता सकसं रजो कासिपुशन्रस भागभद्बस ब्रातारस ।”! --भिलसा का स्तम्भ-छेख मि० स्मिथ इस लेख को ह० स० पूत्र १४० के आसपास का अलुमान करते हैं किरात हणान्ध पुलिन्द पुल्कसा: आभीरक॑ंकायवना रवसादय: येउल्ये पापा यदुपाश्रयाश्रया झुध्यन्ति तस्मे प्रभविष्णवे नमः ->भमागवत, २, ५, १4

१०४ चद्रशुप्त विक्रमादित्य

विदेशियों के आक्रमण से भारतीय संस्कृति की उन्नति में कोई भी बाधा नहीं पड़ी

संस्कृत के काव्य, नाटक, अलंकारशासत्र आदि वाडसमय के विषयों का अविच्छिन्न विकास विदेशियों की परतंत्रता में भी बराबर होता रहा इस समय के प्राकृत ओर संस्कृत शिलालेखों की रचना-शैली पर विचार करने से यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि संस्कृत में आलंकारिक रचना विदेशियों के शासनकाल के बहुत पहले से होती चली आई थी। शक जाति के महा- क्षत्रप रुद्रदामा के शक संबत्‌ ७५२ (१५० इ० स०) का गिरनार का संस्कृत शिलालेख उत्कृष्ट रचना का उदाहरण है इस में लिखा है कि रुद्रदामा व्याकरण, संगीत, तक आदि शास्रों का प्रसिद्ध ज्ञाता था, धमे पर उस का बड़ा अनुराग था, ओर आलंकारिक गद्य और पद्म की रचना में, वह बड़ा कुशल था, जिसमें स्फुटता, चमत्कार, मधुरता, वैचिह्र्य, सोंदये, कवि-समयोचित उदारता और अलंकार इत्यादि गुण थे ।' इससे स्पष्ट है कि रुद्रदामा संस्क्रत की काव्य-शैली से खूब परिचित था। उस के समय से बहुत पहले संस्क्रत काव्य का ही नहीं, किंतु अलंकार-शास्त्र का भी पूर्ण विकास हो चुका था। भरत के नाट्यशाब्र में ओर दंडी के काव्यादश में कथित काव्य के गुणों का उल्लेख रुद्रदामा की ग्रशस्ति में स्पष्टरूप से किया गया है।' संस्क्ृत में ऐसा काव्य बेदर्भी रीति! का कहलाता है

अरजितोजित धर्मानुरागेण शब्दार्थ गांधवेन्यायाद्यनां विधानां महतीनां पारण धारण विज्ञान प्रयोगावाप्त विपुल कीतिना!---

'स्फुट लघु मधुर चिन्न कांत शब्द समयोदारालंकृत गद्यपद्य [काव्य विधान- प्रवीणेन”] शकाब्दु ७२ ( ई० स० १५० ) का रुव्दामा की गिरनार-प्रशस्ति

--एपि० दू० जिदद ८, ४७। इलेष: प्रसाद: समता समाधिम।धुयमोज: पदसौकुमा्ये अर्थस्य व्यक्तिरुदारता कांतिजह्ध कावध्यस्य गुणा दशेते “--भरत-नानब्य शाझ्ष, १६ ॥।

संस्कृत वाइमय का विकास १०५

मैक्समूलर के अनुसार जिस समय संस्क्रत वाडमय घोर निद्रा में पड़ा था, उस समय भी संस्कृत की रचनाएँ होतो थीं जिसमें विदेशी राजा भी भाग लेते थे। कनिष्क ( इ० स० १२० ) के राजपरिडत अश्वघोष ने बुद्धचरित्र नाम का संस्क्ृरत में एक महाकाव्य लिखा था। नागाजुन, आये- शूर, माठ्चेत, असंग, वसुबंधु आदि बोद्धधर् के प्रगल्भ विद्वानों ने दूसरी से चोथी शताब्दी पर्यत अपनी कृतियोंद्वारा संस्क्रृत वाडन्मय की श्रीवृद्धि की थी संस्क्रत का इस युग में इतना विशाल ओर विकसित साहित्य था कि बोद्ध विद्वानों को भी अपने गंभीर विचारों के प्रकट करने के लिये पाली ओर प्राकृत भाषा का पक्ष छोड़कर संस्कृत की ही शरण लेनो पड़ी संसक्रत वाडःमय का अविच्छिन्न उन्नति-क्रम गुप्त-युग में पराकाष्ठटा तक पहुँच गया। वह भारतीय प्रतिभा के अद्भुत उनन्‍्मेष का समय था संस्क्रत वाडमय का वह सुवर्ण युग था। संस्क्रत-भाषा ने राष्ट्र-भाषा का स्थान ले लिया था। संस्कृत का उपयोग केवल राजाओं की प्रशस्तियों ओर मुद्राओं में होता था, किंतु प्रजा के भी साधारण दानपत्र ओर व्यवहार की बातें संस्कृत में ही लिखी जाती थीं। इन शिलालेखों की रचना-शैली बड़ी ही प्रांजल, परिमार्जित और भावपूर थी। संस्कृत काव्य का पू् विकास इस समय हुआ था। सम्राट्‌ समुद्रगुप्त संगीत ओर काव्य आदि ललित कलाओं का बड़ा प्रेमी था वह “कविराज? था ओर उसकी रचनाओं का विद्वज्नन अनुकरण करते थे उसकी सभा के महाकवि हूरिषेण ने प्रयाग के स्तम्भ पर लिखी हुई प्रशस्ति का निर्माण किया था जिसके गय ओर पद्य में जितना शब्द-सोष्ठव था उतना ही अर्थगोरव उदाहरणार्थ, नीचे लिखे लोक में हरिषेण ने भरी सभा में अपने पिता-द्वारा समुद्रगुप्त का युवराज पदवी पर नियुक्त किये जाने का सारा दृश्य एक छोटे-से भावोत्पादक चित्र-रूप में अंकित किया है :---

आर्य्यों हीत्युपगुद्या भावपिशुनैरुस्कीणंते रोमसमिः।

सम्येष्ष्छवसितेषु तुल्यकुलजम्लानाननो द्वीक्षितः १४

१०६ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

स्नेहब्यालुलितिन वाध्पगुरुणा तत्वेक्षिणा चक्षुषा | पिन्नाभिद्वितो निरीक्ष्य निखिलां पाह्मेवमुर्वीमिति

अ्र्थ--/जिसको उसके समान कुलवाले (ईष्यां के कारण) म्लान हुए मुखों से देखते थे, जिसके सभासद्‌ हषे से उच्छवसित हो रहे थे, जिसके पिता ने उसको रोमांचित होकर यह कहकर गले लगाया कि तुम सचमुच आये हो, ओर अपने चित्त का भाव प्रकट करके स्नेह से चारों ओर घूमती हुईं, आँसुओं से भरी, तत्व के पहचाननेवाली दृष्टि से देखकर कहा कि इस अखिल प्रथ्वी का इस प्रकार पालन करो ।'

संस्कृत साहित्य के इतिहास में एक निश्चित समय का लेख उपलब्ध होना बड़े ही सोभाग्य की बात मानी जाती है। संस्कृत ग्रंथों का काल- निर्णय करने और उसके साहित्य के विकास-क्रम के स्थिर करने में विद्वानों को बड़ा ही परिश्रम ओर गवेषण करना पड़ता है। अतएव, हरिषेणरचित काव्य, समुद्रगुप्त के समय का होने के कारण, संस्क्रत की काव्य-शैली के विकास-क्रम को समभने के लिये बड़े महत्त्व का है। ऐसा ही निश्चित काल का दूसरा संस्कृत शिलालेख कवि वत्सभट्ठि का है। इस में दशपुर (मंदसोर ) में सूर्य के मंदिर बनवाने का वर्णन है | रेशम के कारीगरों ने इस मंदिर को मालव संवत्‌ ४९३ ( इईं० स० ४३७-३८ ) में निर्माण करवाया था ओर मालव संबत्‌ ५३० ( इ० स० ४७३-७४ ) में इसका जीर्णोड्धार किया था। चोथी और पाँचवीं शताब्दी के इन कवियों की काव्य-कला में परम उत्कषे दिखाई पड़ता है

संस्कृत की काव्य-शेली की विचार-दृष्टि से कविकुलगुरु कालिदास का इस युग में होना अनुमान किया जाता है गुप्त-कालीन भारतीय प्रतिभा का पूण चमत्कार इस कविशिरोमणि की क्ृतियों में स्पष्ट कलकता है यह विद्वानों की तकना है। सातवीं सदी में हषे के समकालीन कविवर बाणभट्ट से पहले कालिदास हो चुके थे यह बाणक्ृत हषेचरित के उल्लेख

संस्कृत वाइमय का विक्रास १०७

से निर्विवाद सिद्ध है ।' बाण के पूववर्ती काल में कालिदास किस राजा की सभा के रत्न थे, किस देश में जन्मे थे ओर किन परिस्थितियों में उन की कोमलकांत कला का विकास हुआ था इत्यादि प्रश्नों पर आधुनिक विद्वानों में बड़ी ही विनोद-पू्ण चचो चलती है। 'मंदबुद्धि और कवि- यश के चाहनेवाला मैं अवश्य लोक में उपहासास्पद बनँगा, विद्वानों को परितोष हो तो मेरा प्रयोग-विज्ञान निरथेक है!--इस प्रकार के विनय भरे उद्गारों के सिवाय कालिदास स्वयं अपने विषय में कुछ नहीं कहते ।* अतणएव, उन के ग्रंथों की अंतरंग परीक्षा से जो कुछ पता चलता है उसपर विद्वान लोग उनके समय के विषय में अपना अपना अनुमान दोड़ाते हैं

कथाओं में प्रसिद्ध है कि कालिदास उज्जैन के राजा विक्रमादित्य की सभा के नवरत्रों में सवेश्रेष्ठ थे ।* किंतु इतिहास से पता चलता है कि वे सब विद्वान समकालीन थे। उन नवरत्रों में ज्योतिष के आचाये बराहमिहिर का भी नाम है किंतु उनका चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का सम- कालीन होना इसलिये असंभव है कि चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का राज्य- काल इ० स० ४१४ के लगभग समाप्त हो जाता है ओर वराहमिहिर की “पंच सिद्धांतिका! नामक ग्रंथ, उनके ही उल्लेखानुसार, शकाब्द्‌ ४७२७

निर्गतासु वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु

प्रीतिमधुरसांद्रासु मक्षरीव्विव जायते --बाण, इषे-चरित

“मन्दः कवियश: प्रार्थी गमिष्याम्युपहास्यताम! रघु० “आपरितोषा हिदुषा मन्ये साधु प्रयोगविज्ञान

बलवदपि शिक्षिता नामात्मन्यप्रत्यय॑ चेत: ॥?

--अभिज्ञान शाकुन्तछ,

“धन्व॑ंतरि: क्षपणकामरसिंह हांकु-

वेताकभद्दट घटखरपर कालिदासाः

ख्यातो वराहमिहिरों नृपतेस्सभायां

रक्तानि वे वररुचिनवविक्रमस्य ॥!!

१०८ चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

(३० स० ५०५) में निर्माण हुआ था। राज-तरंगिणी में लिखा है कि विक्रमादित्य शकारि विद्वानों का आश्रयदाता था। विक्रमादित्य की उपाधि धारण करनेवाला शकों का शत्रु गुप्रवंशी द्वितीय चंद्रगुप्त था यह पहले कहा जा चुका है। ईं० स० के ५७ पूर्व प्रारंभ होनेवाले विक्रम संवत्‌ के प्रवतेक 'शकारि विक्रमादित्य! के ऐतिहासिक अस्तित्व के स्वीकार करने में हमें कुछ भी संदेह नहीं | तथापि कालिदास को इस प्रथम विक्रमादित्य का समकालीन मानने में संकोच होता है पहले विक्रमादित्य का समय अंधकाराच्छादित है। उसके परिज्ञान के साधन हमारे पास कुछ के बराबर हैं। महाकवि कालिदास की प्रतिभा के विकास का ऐसी ऐतिहासिक परिस्थिति में होना असंभव मालूम होता है वह किसी ऐसे परमोज्ज्वल युग का अलंकार होना चाहिए जिसमें भारत के बुद्धि-वैभव का अपूर्व उद्घाटन हुआ हो। वैसा समय गुप्त- युग ही था। इसलिये अधिकतर बविद्वान्‌ कालिदास को द्वितीय चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का समकालीन मानते हैं, जिसने उज्जैन पर शकवंश को नष्ट कर अपना अधिकार जमाया था। ऐतिहासिक शिलालेखों से यह प्रमाणित हो चुका है कि विक्रम संवत्‌ आरंभ में मालव संवत्‌ के नाम से प्रचलित था ओर विक्रम के नाम से बहुत पीछे प्रसिद्ध हुआ | अतएव, कालिदास गुप्त-काल के शकारि विक्रमादित्य के समकालीन होने चाहिएँ कालिदास की काव्य-शैली भास ओर अश्वधोष से अधिक परिष्कृत है ओर गुप्त-काल के महाकवबि हरिषेण और वत्सभट्टि से बहुत मिलती जुलती है। रघुवंश, अभिज्ञान शाकुंतल, मेघदूत आदि कालिदास की मनोहर कृतियों को आलोचना से हमारे चित्त में यही संस्कार स्फुरित होता है कि हमारा कवि-शिरोमणि भारतीय इतिहास के किसी सुवर्ण-युग के विभव, वीरता, अभ्युदय, आशा ओर महाकांक्षाओं का अभिनय अपनी आँखों से देखकर अपने काव्यों में उस चित्रांकित कर रहा है गुप्त-काल के ब्राक्षण-धर्म के अभ्युत्थान का ओर उस के उज्ज्वल आदर्शा' का निरूपण कालिदास के काव्यां में पाया जाता है। चिरकाल

संस्कृत वाड़मय का विकास १०९

से होनेवाले अश्वमेध यज्ञ का वशन भी कालिदास ने किया है, जिसका पुनरुद्धार गुप्त-सम्राटों के राज्य-काल में हुआ था। रघुवंश के चोथे सगे में कविवर कालिदास ने रघु के दिग्विजय का वन किया है। संभवतः, सम्राद समुद्रगुप्त की युद्ध-यात्रा का स्मरण कर इस महाकवि ने रघु के दिग्विजय की कल्पना की हो रघु के दिग्विजय का सीमा-विस्तार उतना ही है जितना समुद्रग॒ुप्त का रघु ने भारतवर्ष के बाहर पारसीक' ओर वंचु (आक्सस) नदी के तीर पर हूणों* को पराजित किया--यह कालि- दास ने लिखा है। समुद्रगुप्त ने भी देवपुत्र-शाही-शाहानुशाही”? उपाधि धारण करनेवाले भारत के पश्चिमोत्तरांचल से इेरान की सीमा तक के नरेशों को अपने अधीन किया था। इं० स० ४५५ के लगभग हूण लोग स्कंदगुप्त द्वारा पराजित किये गये थे इ० स० ४८४ में हृरणों ने ससेनियन राजा फीरोज़ को मारकर इरान ओर काबुल पर अधिकार कर लिया था। कालिदास के समय में हूण भारत के सीमाप्रांत से बहुत दूर थे। इससे अनुमान होता है कि कालिदास ने चंद्रगुप्त विक्रमादित्य और कुमारगुप्त के राजत्व-काल में अपने काव्य रचे थे। कालिदास का कथन है कि राजा रघु धमेविजयी था, दूसरों के राज्य छीनकर उन्हें मार डालना उसे अभीष्ट था | क्षत्रियों के धरम के अनुसार, केवल विजय-प्राप्ति के लिये ही, उसने युद्धनयात्रा की थी। वह शरणागत-बत्सल था। इससे उसने महेंद्रनाथ ( कलिंग-देश के राजा )* को पकड़ा ओर उसपर अनु-

१पारसीकॉस्ततो जेतु प्रतस्थे स्थऊवत्म ना रघुवंश, ४७. ६०

यवनीमुखपश्मानां सेहे मघुमद सः रघु० ४. ६१ रतन्र [ णावरोधानां भतेषु व्यक्तत्रिक्मम

कपोल पाटला देशि बमूत्र रघुचेशितम्‌ रघु० ४७. ६८। ब3सुद्टीत प्रतिमुक्तस्य मसंत्रिजयी तप:

श्रियं॑ महँँद्रनाथस्य जहार मेदनीम्‌ रघु० ४. ३५

११० चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

ग्रह कर पीछे छोड़ दिया उसकी सम्पत्ति मात्र उसने ले ली; राज्य उसका उसी को लोटा दिया

समुद्रगुप्त की प्रशस्ति में भी ठीक ऐसा ही उल्लेख मिलता है। उस- ने भी कोशल के राजा महेंद्र और पिष्टपुर के महेंद्र को परास्त किया जो महानदी ओर गोदावरी की उत्तरी शाखाओं के बीच के प्रदेश पर राज्य करते थे। उनको और दक्तिणापथ के सब राजाओं को उसने केद किया, परंतु फिर अनुग्रह के साथ उन्हें मुक्त कर अपनी कीर्ति बढ़ाई रघु ओर समुद्रगुप्त दोनों ही की विजय-यात्रा में हिमालय के देश नेपाल आदि ओर ब्रह्मपुत्र नदी के तटवर्ती 'कामरूप” आदि प्रदेश अंतर्गत थे। विजय-यात्रा की समाप्ति के पश्चात्‌ दोनों ही चक्रवर्ती नरेश यज्ञ करते हैं--एक अपना सबेस्व दक्षिणा में देकर विश्वजित्‌ ओर दूसरा करोड़ों की संख्या में गो ओर सुबर्ण दानकर अश्वमेध

कालिदास ओर हरिषेण के दिग्विजय के वर्णन में इतनी समानता-- इतना बिंब-प्रतिबिंब-भाव--है कि मालूम होता है कालिदास ने रघु के दिग्विजय के बहाने समुद्रगुप्त के दिग्विजय का वर्णन किया हो। जैसी कविता कालिदास की है वैसी कविता--बैसी भाषा, वैसी भाव-भंगी-- गुप्त-काल के कवि हरिषेण ओर वत्सभट्टि के समय (इ० स० ३७५-५३०) की थी उदाहरणाथ, हरिषेण ने लिखा है कि समुद्रगुप्त ने सत्काव्य और लक्ष्मी के विरोध को मिटा दिया--“सत्काव्य श्री विरोधान ।”” कालिदास ने भी इसी भाव का सन्निवेश नीचे लिखी पंक्षियों में किया है :--

निसर्गभिन्नास्पदमेक संस्थ तस्समिंद॒यं श्रीक्ष सरस्वती रघु,

मे न.

सर्वदक्षिगापथराजग्रहणमोक्षाजुअहजनित प्रतापोन्मिश्रमहाभाग्यस्य अनेक अष्टराज्योत्सन्ष राजव॑ंशप्रतिष्ठापनोदूभूत निखिलभुवनविचरणश्रांतयशस:--- पूलीट, गु, शि,

संस्कृत वाडमय का विकास १११

परस्पर विरोधिन्योरेक संश्रय दुलेभम्‌। संगत ओरीसरस्वस्यो भूतये5स्तु सदा सताम॥ --विक्रमोवे्ी, भरतवाक्य

मंदसोर की प्रशस्ति का लेखक कवि वत्सभट्टि, जो प्रतिभा में कालि-

दास से न्‍्यून है, कालिदास की रचनाओं से परिचित प्रतीत होता है और उनका उसने उपयोग भी किया है | उदाहरणार्थ, कालिदास के अलका- पुरी के वन से वत्सभट्टि के दशपुर के वणन की तुलना कीजिये :--

विद्युत्व॑ंत॑ छक्तित वनिता: सेंद्रचापं सचित्रा:।

संगीताय प्रहतमुरजा; स्निग्ध गंभीर घोषम

अंतसतोर्य मणिमय अभुवस्तुंगमर्ज्ज छिहाग्रा:

प्रासादास्व्वां तुडयितुमलं यत्न तैस्तेविशेष: ॥--मेघदूत

चक्त्पताकान्यबलछासनान्यत्यथेशुक्लान्यधिकोन्नतानि तड़िछता चित्र सिताअकूटतुल्योपमाना नि गृहाणि यत्र

केलासतुंग शिखर प्रतिमानि चान्यान्याभांति दीघंवरलभीनि सवेदिकानि। गांधवे शब्द मुखराणि निविष्ट चित्रकमोणि छोल कदुली वन शोभितानि कालिदास ओर वत्सभट्टि की रचनाओं में इतना स्पष्ट विचार-साहश्य है कि एक ने अवश्य ही दूसरे का अनुकरण किया होगा। दोनों का सादश्य दिखाने के लिये डाक्टर कीलहोन ने दोनों कवियों के नीचे लिखे श्लोक उद्धृत किये हैं :-- चंदन चंद्र मरीचि शीतल॑ हम्य प्रढ्ठ॑ शरदिदुनिसेलम्‌ वायवः सांद्रतुषार शीतला; जनस्य चित्त रमयंति सांप्रतम ।--ऋतुसंहार, ५.

रामा सनाथ भवनोदर भास्करांशु- वह्धि प्रताप खुभगे जछ छीन मीने

११५२ चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

ंदाशु इम्येतल चंदन तालव॑ंत हारोप भोगरहिते हिसदग्धपश्मे --वत्सभट्टि, मंदसोर शिलालेख है० सन्‌ ४७२ कालिदास के काव्य की छाया गुप्त-कालीन शिलालेखों में स्थल स्थल पर देख पड़ती है स्कंदगुप्त के भिटारी के लेख की पंक्षियों से कालिदास की उक्तियों की तुलना कीजिये :-- चरितममल कोीतेर्गयिते यरय झुभ्नम्‌। दिशि दिशि परितुष्टराकुमारं मनुष्ये: ॥--भिटारी का लेख तथा इक्ष॒ुष्छाया निषादिन्यस्तस्य गोप्तुगु णोदयम्‌ आकुमार कथोद्धा्त॑ शालिगोप्यो जयुयंश: ॥--रघु० ७. २० अथवा क्षितितछ॒शयनीये येन नीता त्रियामा--भिटारी लेख तथा नरपति रतिवाहयां बभूव काचिद समेत परिच्छदस्थियाणाम---रघुव॑श कालिदास प्रथम कुमारगुप्त के मयूरांकित सिक्कों से भी परिचित प्रतीत होते हैं इन सिक्कों पर एक ओर राजा खड़ा होकर एक मोर को खिला रहा है ओर राजा के चारों ओर 'जयति स्वभूमो गुणराशि ''' महेंद्रकुमार:? लिखा है। दूसरी ओर परवारि नामक मोर पर सवार कार्तिकेय की मूर्ति है। कुमारगुप्त का कार्तिकेय की मूर्ति वाला सिक्का भारत के आराचीन सिक्कों में कला-कोशल को दृष्टि से स्वेश्रेष्ठ माना गया है। संभवत: इस परम सुंदर सिके को देखकर कालिदास ने रल्नजटित आसन पर बैठे हुए राजा अज की शोभा की उपमा मोर पर सवारी करनेवाले कार्तिकेय ( गुह ) से दी हो, क्योंकि कवि की अनोखी सूक का कारण उसके देखे हुए कुमार गुप्त के नवीन प्रकार के सुंदर मयूरांकित सिक्के ही अनु- मान किये जा सकते हैं।

संस्‍क्ृत बाडमय का विकास ११३

पराध्य वर्णास्तरणोपपन्नमासेदिवान्रक्वदासनं सः

भूयिष्ठ मासीदुपमेय कान्तिर्मयूर एडा श्रयिणा गुह्देन ॥-- रघुवंश ६. ४।

अब बहुत से विद्वान यह मानने लगे हैं कि कालिदास के काब्यों में गुप्तवंश ही का व्यंजना से वर्णन है। “विक्रमोवंशी” ओर “कुमारसंभव'” कदाचित्‌ विक्रमादित्य और कुमारगुप्त के नाम से संबंध रखनेवाले कालि- दास के द्वारा उन्हें भेंट किये गये काव्य ओर नाटक हों। कालिदास ने रघुवंश में, इंदुमती के स्वयंवर में सबसे पहले मगध-नरेश का वन किया है। कवि ने उस मगधेश्वर की नक्षत्र-तारा-गण के मध्य में विराज- मान चंद्रमा से तुलना की है और उसे यज्ञों के निरंतर अनुष्ठान से सहस्नेत्र ( इन्द्र ) को बुलानेवाला कहा है।' कुमारगुप्त के कुछ सिक्कों पर उत्कीर्ण लेखों ओर कालिदास के उक्त वर्णन में बिंब-प्रतिबिंब-भाव भलकता हैं उस के सिक्कों पर लिखा है--“गुप्त कुल व्योम शशी जयत्य- जेयो5जितमहेंद्र:”, तथा “गुप्त कुलामलचंद्रो महेंद्रकमौ5जितो जयति”'* अथोत्‌ 'गुप्त-कुल का निमेल चंद्र, जो यज्ञ-यागादि कर्मों से महेंद्र बन गया है, जो अजित है वह विजयी है ।!

उक्त तकना ओर विचार-परंपरा से यही निष्कषे निकलता है कि महाकवि कालिदास हिंदू-संस्क्रति की परमोन्नति के युग में हुए होंगे, क्योंकि उसका पूरा प्रति्बिंब उनके काव्य-नाटकों में विशद्रूप से झलकता है। “रत्नं समागच्छतु कांचनेन”! इस न्याय से भी कालिदास किसी 'सुवर्ण- युग” का जाज्वल्यमान रत्न ही माना जा सकता है। इंगलेंड के इतिहास में जैसे युग का प्रतिनिधि महाकवि शेक्सपियर है भारत के इतिहास में भी बैसे ही युग का चतुर चित्रकार महाकवि कालिदास है| जगत्‌ के

कार्म॑ नृपा: सन्‍्तु सहस्नरशो5न्ये राजन्वतीमाहुरनेन भूमिम्‌ नक्षत्र ताराग्रह संकुछापि ज्योतिष्मती घंद्रमसेव रात्रि: क्रियाप्रबंधादयमध्वराणामजसर्रमा हूतसहस्तरनेश्र: ।--- रघुत्रंश, ६. २२, २३। * जोन एलन---'गुप्तवंश की मुद्रा'---प्रस्तावना, प्‌ू० ११ ७। आर० बैनर्जी--- प्राघोनमुद्रा, ए० १७६ १५

११४ चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

सभी विद्वानों ने उसकी लोकोत्तर प्रतिभा की--कोमलकांव कविता ओर ललित नाट्यकला की--मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। जिसने उसके सोने को अप्मि में परखा है उसने ही उसे परम विशुद्ध बतलाया।" कालिदास के गुप्त-कालीन होने का पता 'कुंतलेश्वर दौत्यम! नामक नाटक से भी चलता है, जिसे काश्मीर के कवि क्षेमेंद्र ने कालिदास- रचित बतलाया है ।' इस नाटकीय कथा में लिखा है कि कालिदास को विक्रमादित्य ने कुंतल श्रदेश ( दक्षिण महाराष्ट्र ) में वहाँ की शासन- व्यवस्था को देखने के लिये अपना राजदूत बना कर भेजा था। जब कालिदास कुन्तल से लोटकर वापिस आया तब उसने वहाँ के विलास- मग्न राजा का कच्चा चिट्ठा एक झोक के द्वारा सम्राट विक्रमादित्य को कह सुनाया | उस झछोक का तात्पये यह है कि कुंतलेश आपपर सब राज्य-भार छोड़कर भोग-विलास में अपना समय बिताता है।* इस ह्छोक का उल्लेख इस कथा-प्रसंग के साथ राजशेखर ने काव्य मीमांसा? में ओर भोज ने 'सरसती-कंठाभरण” में किया है “श्ज्ञार-प्रकाश” में भी इस का उल्लेख है। संस्कृत के 'भरत चरित?* नामक ग्रंथ में लिखा है कि सितु- बंधम” नाम के ग्राकृत काव्य की रचना किसी कुंतलेश (कुंतल के राजा ) त॑ संतः श्रोतुमहन्ति सदसद्व-यक्ति हेतव: हेम्न: संलक्ष्यते छाम्नो विशुद्धि: इयरामिका5पिवा ॥-रघु० देखिये क्षेमेंद्रक्त 'ओऔवचित्य-विघचार-च्चों! “असकल हसितत्वात्क्षाल्तिनीव कान्त्या मुकुलितनयनत्वाह्यक्त कर्णोत्पछानि पिबति मधुसुगन्धी न्याननानि प्रियाणाम्‌ स्वयि तिनिह्वितभारः कुन्तलानामधीश: ॥”! भरतचरित, $ संग ( त्रिवेद्रम सीरीज़ सं॑० ८६ ) “जड़ाशयास्थान्तरगाधमार्गमलब्धरन्ध्र' गिरि चो।र्थवृत्या लोकेष्वलड्डान्तमपूर्व सेतु' बबन्ध कीत्यों सष् कुन्तलेश: ॥!

संस्कृत वाइमय का विकास ११५

ने की ।' यह प्रसिद्ध प्राकृत काव्य प्रवरसेन का रचा हुआ था। इसकी “रामसेतु प्रदीप” नामक टीका में इस 'सेतुबंध” काव्य को नये राजा प्रवर- सेन द्वारा रचित बतलाया गया है ओर उसमें लिखा है कि विक्रमादित्य ने कालिदास के द्वारा इस काव्य को परिशुद्ध कराया इस समय कुंतल पर वाकाटकवंश का अधिकार था। वाकाटकवंशी प्रवरसेन ( ह्वितीय ) चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की राजपुत्री, रुद्रसेन की महाराणी प्रभावतीगुप्ता का पुत्र था जो कुंतल का स्वामी था इन सब बातों पर विचार करने से अनुमान होता है कि विक्रमादित्य, कालिदास और कुंतलेश ( प्रवरसेन ) समसामयिक थे। ' गुप्त-सम्राद के आधिपत्य में दक्षिण के वाकाटक राज्य में शांति थी और उस देश में भी गुप्त-कालीन धर्म, साहित्य ओर कला- कलाप के आंदोलन का प्रभाव बढ़ रहा था जिसका दिग्दशन हमें 'सेतु- बंध” काठय, शिलालखों ओर अजंता के चित्रों में होता है नाट्यकार शूद्रक और विशाखदत्त

संस्कृत-साहित्य के इतिहास में कालिदास के पूबे भास, सोमिल्ल, कविपुत्र आदि प्रसिद्ध नाव्यकार हो चुके थे जिनका उल्लेख कालिदास ने 'मालविकाप्रिमित्र” नामक नाटक में आद्रपूवक किया है। गुप्त-काल में ओर भी अनेक नाख्यकार हुए थे। 'मृच्छुकटिक” नाटक के कर्ता राजा शूद्रक भो गुप्त-कालोन प्रतीत होते हैं शूद्रक के जीवन और समय के विषय में हम जिज्ञासाक्रांत हृदय से अंधकार में पड़े हैं। भारतीय नाट्य-कला के पूवापर विकास-क्रम पर विचार करते हुए भास के पर- वर्ती काल में शूद्रक को स्थान देना युक्तिसंगत मालूम होता है | कुछ विद्वानों का मत है कि विशाखदत्त-रचित भुद्राराक्षस” नामक नाटक द्वितीय चंद्रगुप्त के राज्यकाल में रचा गया था। स्टेन कोनो ( 50675

कीतिप्रवरसेनस्य प्रयाता कुमुदोज्ज्वला। सागरस्य पर॑ पार कपिसेनेव सेतुना ॥--बाण---हर्ष चरित देखिये एस० कृष्ण स्वामी--गुप्त इतिहास का अध्ययन पृष्ठ ५४

११६ अंद्रगुप्त विक्रमादित्य

[70709 ) ने 'मुद्राराक्षस” के भरत-वाक्य के आधार पर, जिस में राजा चंद्रगुप्त के नाम का उल्लेख है, विशाखदत्त को कालिदास का समकालीन सिद्ध किया है। उस भरत-वाकक्‍्य में लिखा है कि म्लेच्छों-दवारा सताई हुई प्रथ्वी ने जिस राजमूर्ति की दोनों भुजाओं का आश्रय इस समय लिया है वह राजा चंद्रगुप्त, जिस के बंधु ओर भृत्य वर्ग श्रीमंत हैं, इस प्रथ्वी का चिरकाल तक पालन करे।" इस श्लोक में चंद्रगुप्त का स्पष्ट उल्लेख है। शक” ओर (वाह्वीक' जातियों को उसने पराजित किया था उसके अनुग्रह से उसके बंधु ओर भ्रृत्य बग सुखी ओर सम्रद्ध थे।' साँची के शिलालेख में बोद्ध आम्रकादव ने भी चंद्रगुप्त के विषय में यही कहा है--महाराजाधिराज श्रोचंद्रगुप्रपादप्रसादाप्यायितजीवित- साधन: ।” विशाखदत्त भी राजा का कदाचित्‌ कृपापात्र सामंत था जैसा ढुण्डिराज ( मुद्राराक्षस के टोकाकार ) ने लिखा है। पुराणों को रचना

गुप्तयुग की साहित्यिक उन्नति में हिंदूधम के पुराणों के भी अंतिम संस्करण रचे गग्ये पुराणों का साहित्य बहुत ही प्राचीन काल से प्रचलित था कालक्रम से वे संशोधित ओर परिवर्धित भी होते रहे थे

बाराहीमात्मयोनेस्तनुमवनविधावस्थितस्यानुरूपाम्‌ यस्य प्राग्दंतकोटि' प्रलयपरिगता शिक्षिये भूतधाशन्री

स्लेच्छेरुद्विज्यमाना भुजयुगमधुनां संश्रिता राजमूर्ते श्रीमद्बंधुन्ट॒ त्यश्विरमवतु महीं पाथिवइचंद्रगुप्त: ॥!--मुद्राराक्षस, श्रीयुत्‌ काशीप्रसाद जायसवाल ने “श्रीमद्बंधु” को मंदसोर के ई० स० ४३६ के शिलालेख के ब॑ंधुवमों से मिला दिया है जो प्रथम कुमारगुप्त का सामंत्त था चंद्रगुप्त के समय (६० ४०४ ) के लगभग नरवमों मंदसोर में शासन करता था श्रीमंतः बँधवों भ्ृत्याश्व यस्य सः” यही अर्थ ठीक है। काशीप्रसादजी का अथे--श्रीमान्‌ बंधु: श्ृत्यो यस्य सः--ठढीक नहीं | हूँ० एँटि०

१९१३, १९१९

संस्कृत वाउमय का विकास ११७

उनके पूष संस्करणों के विषय परवर्ती काल के संस्करणों में प्राय: ले लिये जाते थे। इस प्रकार क्रमागत पुराणों का अंतिम संपादन गुप्त-युग में हुआ मूल पुराण में पाँच विषयों की चचा करना आवश्यक था ।' (१) सगे ( विश्व की सृष्टि ); (२) प्रतिसग ( कल्प के अंत में प्रलय के अनंतर मूल तत्वों से विश्व की पुनः रचना ); (३) बंश ( देवताओं तथा ऋषियों के वंश ); (४) मन्बंतर ( महायुगों में मनुओं की उत्पत्ति ); (५) वंशानुचरित ( राजवंशों का इतिहास )। उक्त पाँचों अंग सभी पुराणों में नहीं मिलते। जिन पुराणों में राजबंश वर्णित हैं उनसे स्पष्ट प्रमाणित होता है कि अधिकांश पुराणों का अंतिम संपादन गुप्त-काल में ही हुआ था। वतमान १८ पुराणों में सिफ़ सात पुराणों में राजाओं की वंश- पर॑परा वर्णित है पुराणों में ये राजबंश बहुत प्राचीन और विश्वसनीय इतिहास के आधार पर लिखे गये थे | वेद के समय से राजाओं के वंश- क्रम ओर उनके पराक्रम के वर्णन करनेवाले सूत कहलाते थे। उन्हीं के आधार पर पुराणों के 'बंशानुचरित” रचे गये होंगे पुराणों में गुप्त- बंश तक के ही राजवंशों का उल्लेख है। मत्स्य, वायु, भविष्य और विष्णु पुराणों में प्रायः समान ही राजवंशों के वशन मिलते हैं उनमें आंध्रवंश के पतन के पश्चात्‌ मथुरा और चंपावती में नागबंश और मगध ओर गंगा-यमुना के प्रदेशों में गुप्तबंश का राज्य होना लिखा है।* इस से स्पष्ट सिद्ध है कि पुराणों का अंतिम संपादन गुप्तवंश के प्रारंभिक काल में हुआ था

पुराणों से हिंदू-धर्म की भिन्न भिन्न शाखाओं के व्यापक प्रचार का

१सर्गश्व प्रतिसगंश्व घंशो मनन्‍्व॑तराणि वैशानुचरितश्चेव पुराणं॑ पंचलक्षणम्‌ रनवनागास्तु भोदक्ष्यंति पुरों चंपावती नृपा: मथुरां पुरी रम्यां नागा भोक्ष्यंति सप्त थे अनुगंगा प्रयागं साकेत॑ मगधांस्तथा '"' '' 'गुप्ततशजा: ।--वायु पुराण

११८ चद्रग॒ुप्त विक्रमादित्य

पता चलता है। वे बड़े ही लोकप्रिय ग्रंथ थे। इनमें बड़ी ही सरल संस्क्ृत- भाषा-शैली में हिंदू-धर्म के अंग प्रत्यंग का विवेचन स्थूल और सूक्ष्म रूप से किया गया था। उनके पठन-पाठन का सभी वर्णा' को अधिकार था। भागवत में लिखा है कि महर्षि व्यास ने महाभारत के नाम से वेद का अर्थ भी प्रकाश कर दिया जिसमें स््री, शूद्रादि सभी लोग धमे, अथे, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों' का उपदेश प्राप्त कर सकते हैं ।* बौद्ध धर्म की भाँति पौराणिक धर्म भी उदार और सावेजनिक था उस में भिन्न भिन्न धर्मो' के समन्वय करने की चेष्टा की गई थी। जैन ओर बोद्ध- धर्म के प्रवर्तक व्रषभदेव और गोतम बुद्ध पुराण-धर्म में विष्णु के अव- तार मान लिये गए गुप्त-युग में ऐसे ही उदार और लोकप्रिय पुराण- धर्म के व्यापक प्रचार के अनेक प्रमाण संस्क्रत-साहित्य में ही नहीं किंतु तत्कालीन शिलालेख, मुद्रा और शिल्प-कला की अद्भुत कृतियों में मिलते हैं। जैसे गुप्त-काल के पूर्व की शताब्दियों में बुद्ध के जीवन-चरित्र ओर उन के पूर्व जन्म की कथाओं का तथा बौद्ध ओर जैन स्मारकों का उस समय की शिल्प-कला की क्ृतियों से पता चलता है, वेसे ही गुप्त-काल के आरंभ होते ही पुराण-धमे के उपास्य देवी-देवताओं की ग्रतिमाएँ तथा उन के निमित्त निर्माण की गई गुफा, मंदिरि, ध्वजस्तंभ आदि का उस समय की शिल्प की कृतियों से अधिकाधिक परिचय मिलता है पुराण- प्रतिपादित धमें का उस समय हमारे देश पर व्यापक प्रभाव था।

नननीीी+-+न्‍न्‍5 ++

भारत व्यपदेशेन ह्याम्नायार्थश्र दर्शितः हइयते यत्र धमादि सत्री झृद्गादिभिरप्युत सत्त्रीशूद्रह्विजय॑घूनां श्रयी श्रुतिगोचरा कम श्रेयसि मूढ़ानां श्रेय एवं भवेदिह

संस्कृत वाइमय का विकास ११९

गुप्त-यग के बोद्ध विद्वान

कविवर कालिदास ने अपने सुप्रसिद्ध काव्य मेघदूत में दिडनागा- चाये को अपने काव्य का निंदक बताया है इस से मालूम होता है कि द्डिनागाचाये कालिदास के समसामयिक थे श्रीयुत्‌ शरघंद्रदास ने तिब्बत के ग्रंथों का अनुसंधान करके लिखा है कि दिड-नागाचाय ने दक्षिण देशवर्ती कांची नगर के पास सिंहवक्र नामक गाँव में जन्म-प्रहण किया था। वे जाति के ब्राह्मण थे। उन्होंने बाल्यकाल से ही न्यायशाश्र का अध्ययन किया था वे बोद्धधर्म में दीक्षित ओर वसुबंघु के शिष्य थे। एक बार उन्होंने उत्कल ( उड़ीसा ) के सारे दाशंनिकों को परास्त कर- के तकपुंगव की उपाधि ग्राप्त की थी। उनका बनाया प्रमाण-समुच्चय नामक ग्रंथ तिब्बत के पुस्तकालय में मोजूद है| वाचस्पति मिश्र ने अपनी न्‍्यायवार्तिक-तात्पये-टीका में लिखा है कि भगवान पतक्षिलस्वामी ने न्याय-सूत्रों का जो भाष्य लिखा है, दिडनागाचाये आदि बोड्ध पंडितों ने उसके विरुद्ध अनेक कुतक उपश्थित किये हैं उन कुतर्को' को दूर करने के लिये उद्योतकर ने न्‍्याय-वार्तिक लिखा अब में उसी न्याय-वार्तिक की टीका लिखता हूँ

बोद्ध विद्वान असंग ओर वसुबंधु चोथे शतक में विद्यमान थे। असंग वसुबंधु का बड़ा भाई था प्रसिद्ध चीनी परित्राजक ह्लेनसांग ने अपने भारतव् के भ्रमण-बृत्तांत में लिखा है कि जिन चार सूर्यो' के प्रकाश से यह जगत्‌ आलोकित है वे आये नागाजुन, असंग, वसुबंधु ओर देव हैं। परमार्थ ने स० ५४७६ और ५६५९ के बीच वसुबंधु का जीवन-चरित्र लिखा था। उस के बनाये हुए ग्रंथों का अनुवाद ई० स० ४०४ में चीनी भाषा में किया गया था ह्ेनसांग ने वसुबंधु को श्रावस्ती ( अयोध्या ) के विक्रमादित्य का समकालीन लिखा है विंसेंट स्मिथ ने पेरी ( (७. ]९०० ९८४ ) आदि विद्वानों के अनुमान के आधार पर लिखा है कि प्रथम चंद्रगुप्त का पुत्र समुद्रगुप्त वसुबंधु का गुणग्राही ' आश्रयदाता था। संभव है कि समुद्रगुप्त अपनी बाल्यावस्था में “चंद्र॒प्काश'

१२० चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

ओर “बालादित्य” कहलाता हो। ई० स० ८०० के आसपास वामन ने भी नीचे लिखे हछोक में समुद्रगुप्त के बसुबंधु के समसामयिक होने का संकेत किया है :--

सोअय॑ संप्रति चंद्रगुप्ततनयश्चचंद्रप्रकाशो युवा

जातो भूपतिराश्रय: कृतधियां दिश्टया कृतार्थश्रम: ॥"

इस समय बौद्ध और ब्राह्मण विद्वानों में परस्पर दाशनिक वाद- विवाद होते थे। सुबंधु ने वासवद॒त्ता की कथा में लिखा है कि तथागत वा बुद्ध के सिद्धांत का विध्वंस जैमिनि के मतानुयायी किया करते हैं।* जैमिनि के मीमांसा-सूत्रों के सबप्रथम भाष्यकार शबरस्वामी थे। उन्होंने बोद्धों के विज्ञाननाद ओर शून्यवाद का खंडन किया है विज्ञानवाद के संस्थापक आये असंग' ओर वसुबंधु" थे | शबरस्वामी इ० स० के पाँचवें शतक में हुए होंगे डाक्टर रामकृष्ण भंडारकर का कथन है कि वैदिक सूत्रों के भाष्यकारों के नाम के साथ 'स्वामिन! यह आदरसूचक पद्‌वी लगी रहती है, जेसे आश्वलायन-सूत्र के भाष्यकार देवरवामी, बोधायन के भवस्वामी, आपस्तंब के धूतेस्वामी, लत्यायन के अभिस्वामी, इत्यादि स्वामि-पद-युक्त नामों के उल्लेख गुप्तकाल के ताम्र-पत्रों में पाये जाते हैं इससे अनुमान होता है कि ऐसे नाम ओर पद्वीधारी भाष्य- कार ओर विद्वान गुप्त-युग में हुए होंगे

विरसेंट स्मिथ--प्राचीन भारत का इतिहास, पृष्ठ ३४६, ३४७।

जोन एलन “चंद्रप्रकाश” को कुमारगुप्त अनुमान करते हैं और वसुबंधु को चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का समसामयिक मानते हैं

केचिज्जेमिनिमतानुसारिण हृव तथागत-मत-ध्वंसिनः

असंग ने बोघिसत्वभूमि, योगाचार भमिश्ञासख््र, और महायानसूत्रालंकार रचे थे

बसुबंधु ने गाथासंग्रह ओर अभिधमंकोष छिखा था।

संस्कृत वाइमय का विकास १२१

हिंदू दशन-शार्त्र

आचार गौतम के न्याय-सूत्रों के प्रसिद्ध भाष्यकार वात्सायन ( पक्षिल स्वामिन्‌ ) दिडनाग के पूबे हुए थे। उनके न्याय-सूत्र-भाष्य की कहीं कहीं दिडनाग ने आलोचना की है वात्सायन दक्षिण देश के रहनेवाले थे। वे द्रामिलः--द्रविड़ देश के--कहलाते थे। संभवत: कांची के प्रसिद्ध विद्यापीठ में ये प्रसिद्ध चोद्ध ओर हिंदू दाशनिक रहते थे। उद्योतकर ने वात्सायन- कृत न्याय-भाष्य की टीका छठी सदी के अंत में लिखी थी जिस में उस ने द्डिनाग के मत का खंडन किया था। छठे शतक के अंत में “बासवदत्ता” के लेखक सुबंधु ने मल्लनाग, न्‍्यायस्थिति, धर्मकीर्ति और उद्योतकर इन चार नैयायिकों का उल्लेख किया है। सम्राट हष के समकालीन महा- कवि वाण ने सुबंधु के विषय में लिखा है कि उसकी 'वासवदत्ता? से कवियों का दपे जाता रहा--'कवीनामगलदर्पो नूनं वासवदत्तया ।” अनु- मान होता है कि गुप्त-युग की अवसान-वेला में पूर्वोक्त उद्धट दाशेनिक हुए थे। सांख्यद्शन पर, इंश्वरक्ृष्ण ने सांख्यकारिका रची थी। इन कारि- काओं की सब से ग्राचीन टीका “माटठर-वृत्ति! हाल ही में उपलब्ध हुई है। टीका-समेत इन कारिकाओं का अनुवाद इ० स० ५०७ और ईइं० स० ५६९ के मध्य में चीनी भाषा में हुआ था ।" आयेछंद में ये कारिकाएँ रची गई हैं इस समय के आयेभद्ट आदि विद्वानों ने इस छुंद का अपने ग्रंथों में प्रयोग किया है। श्रीयुत रामकृष्ण भंडारकर का मत है कि इश्वरकृष्ण वीं सदी के आरंभ-काल में हुए थे इसमें संदेह नहीं कि गुप्र-युग में भारत के द्शेन के छः प्रसिद्ध संप्रदायों--न्याय, वेशेषिक, सांख्य, योग, पूवेमीमांसा ओर उत्तरमीमांसा का पूर्ण विकास हो चुका था। सभी दाशेनिक संप्रदाय उन्नति के शिखर पर थे ई० स० छठी शताब्दी के पूर्व

१एस० विद्याभूषण--भारतीय नन्‍्यायशास्त्र ( भंडारकरस्मारक ग्रंथ )

झुष्ठ १६९२ ३६

१२२ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य तक छह्दों संप्रदायों के मुख्य मुख्य सूत्र-मंथों का निर्माण हो चुका था ओर उनपर प्रामाणिक तथा उपयोगी भाष्य भी लिखे जा चुके थे।'* विविध साहित्य

डाक्टर रामकृष्ण भंडारकर का मत है कि गुप्त-युग में ही श्लोकबद्ध स्मृतियाँ, पुराणों के संस्करण ओर सूत्रों के भाष्य रचे और संशोधित किये गये थे और संस्कृत-विद्या की भिन्न भिन्न शाखाओं को साधारणतया- बहुत बड़ा प्रोत्साहन मिला था।'

ज्योतिष और गणित शाम्नरों के प्रखर विद्वान आयभट्ट ओर वराह- मिहिर गुप्त-युग में हुए थे। आर्यभट्ट इ० स० ४७६ ओर वराहमिहिर इ० स० ५०५ में जन्मे थे। वराहमिहिर के पिता का नाम आदित्यदास था, जो मालवा का रहनेवाला था ।*

वराहमिहिर ने अपनी “पंचसिद्धांतिका” में लाटाचाये, सिंहाचाये, आर्यभट्ट, प्रयुम्न ओर विजयनंदी के मतों को उद्धृत किया है, जो उस- से पूवे अवश्य हुए होंगे। आयेभट्ट ने सूये ओर तारों के स्थिर होने तथा प्रथिवी के घूमने के कारण दिन ओर रात होने का वणन किया है। उस- ने सूये ओर चंद्र-पम्रहण के वैज्ञानिक कारणों की भी व्याख्या की है। वराहमिहिर यूनान के ज्योतिष के सिद्धांतों से भी परिचित थे। भारतीय ज्योतिष ओर यूनानी ज्योतिष में बहुत-से सिद्धांत परस्पर मिलते हैं। यूनानी ज्योतिषियों का हमारे ज्योतिषी आदर करते थे गार्गीसंहिता में लिखा है-

रामकृष्ण भंडारकर--प्राचीन भारत का दिग्दशेन | तथा गौ० ओझा-- मध्यकालीन भारत, पृष्ठ ८८ * रामकृष्ण भंडारकर--प्राघीन भारत का दिग्दशन आदित्य दासतनयस्तद्वाप्तबोध: कापित्थके सबितृलब्धवर प्रसादः। आवंतिको मुनिमतान्य वलोक्य सम्यग्घोरां वराहमिद्दिरों रुचिरां चकार - वहज्ञातक उपसंहाराध्याय

संस्कृत वाडइमय का विकास १२३

स्लेच्छा हि यवनास्तेषु सम्यक्‌ शास्त्रमिद॑ स्थितम्‌ ऋषिवफ्तेडपि पूज्यंते कि पुनर्देवविद्विज: --बृहत्संहिता, ए० ३७५।

“यवन वास्तव में म्लेच्छ हैं तथापि ज्योतिषशासत्र उनमें माना जाता है वे ऋषि के समान पूजे जाते हैं, देवज्ञ द्विज का तो कहना ही क्या है !?

विंसेंट स्मिथ का कथन है कि गुप्त-युग में जो इं० स० ३०० से ६५० तक का साधारणतया माना जा सकता है, संस्कृृत-साहित्य के भिन्न भिन्न विभागों में अनेक पांडित्यपूर्ण कृतियों का निर्माण हुआ था भारत की प्रतिभा में इस समय अभिनव उन्‍मेष हो रहा था

आठवों अध्याय गुप्तकालीन कलाएँ

स्थापत्यकला--गुप्त-युग में भारत की ललित कलाएँ उन्नति की परा- काष्ठा पर पहुँच चुकी थीं। उस समय की वास्तु, शिल्प, चित्रण आदि कलाओं के बचे खुचे नमूने जो हमें मिल सके हैं वे अत्यंत मनोमोहक हैं गुप्तकालीन वास्तुकला का इतिहास विशद्रूप से नहीं लिखा जा सकता, क्योंकि मुसलमानों के हमलों ने इस समय के भवनों ओर मंदिरों को प्रायः नष्ट अ्रष्ट कर डाला था। जो कुछ छोटी-मोटी इमारतें उनके आक्र- मणों से बची हैं वे मध्यभारत के दुगम स्थलों में ही मिली हैं फाँसी ज़िले के देवगढ़ गाँव का विष्णु-मंदिर गुप्त-समय का माना जाता है। इसकी दीवारों के पत्थरों पर तत्कालीन शिल्पकला के उत्तम नमूने खुदे हुए हें इनमें योगिराज शिव का शिल्प-चित्र बड़ा ही अनूठा है, जिसमें शिव की मूर्ति ओर उसकी मुद्रा ओर भाव-भंगी बड़े चारु-रूप से दरसाई गई है। दूसरे पत्थर में शेषशायी अनंतभगवान विष्णु की मूर्ति खुदी है, जिसे देव, गंधवे और किन्नर आकाश से देख रहे हैं इस मंदिर की एक शिला पर “ग्जेंद्र-मोक्ष! का आख्यान द्रसाया गया है जिस में वरद्राज विष्णु गरुड पर बैठकर उतरते हुए ओर ग्राह-प्सित गजेंद्र से कमल की भेंट लेकर उसका उद्धार करते हुए दिखलाये गये हैं | कानपुर-ज़िले के भिटार गाँव का ईंटों का विशाल म॑दिर द्वितीय चंदगुप्त के समय का माना जाता है इसमें भी मूतियों की रचना बहुत अच्छे ढंग की है। मध्यभारत के

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गुप्तकाकीन करूाएँ १२७

नागोद राज्य में भुमरा गाँव के पास एक प्राचीन शिव-मंदिर के चिह्न मिले हैं।' इसका चौथी शताब्दी में निर्माण हुआ था मंदिर के गर्भ-गृह की विशाल चोखट पत्थर की बनी है उसकी कारीगरी अपूबे है, नीचे अगल- बगल मगर तथा कूम के वाहन पर गंगा ओर यमुना की बड़ी सुंदर मूर्तियाँ हैं ऊपर के पाटन के मध्य में शिवजी की मूर्ति भी देखनेयोग्य है पत्थर पर खुदे हुए शिवगणों की मूर्तियों के रूप अदूभुत हैं मंदिर में एक अत्यंत सौम्य मूर्ति का एकमुख लिंग स्थापित था। भुमरा का मंदिर गुप्तकाल की शिल्प और स्थापत्यकला का एक उत्तम उदाहरण है ओर ऐसा दूसरा मंदिर अब तक कहीं नहीं मिला है। अजयगढ़ रियासत का नयना-कुठरा का पावतीजी का मंद्रि भी ऐसे ही नक्शे का बना था।

गुप्त-काल की शिल्प-कला के स्मारक चिह्नों में सबसे पहली भेलसा के पास उद्यगिरि में खुदी हुई “चंद्रगुप्त की गुफा? है जो इं० स० ४०१ में समपिंत की गई थी। इस गुफा के द्वार की शिला पर कइईएक मूर्तियाँ खुदी हुई हैं जिनमें उछलते हुए सिंहों की जोड़ी और मगर पर बैठी हुई गंगा और यमुना की मूर्तियाँ बड़ी खूबी से दिखलाई गई हैं। द्वार के दोनों ओर चार बड़ी द्वारपालों की मूर्तियाँ हें इलाहाबाद ज़िले में गढ़वा गाँव से चंद्रगुप्त द्वितीय और कुमारगुप्त के समय के शिलालेख तथा शिल्प के सुंदर किंतु दटे फूटे कितने ही नमूने मिले हैं। गढ़वा के स्तंभों के भम्नाव- शेष जिनपर शिल्प-चित्र ओर बेल बूटे खुदे हुए हैं गुप्त-कला-कोशल के उत्कृष्ट नमूने हैं

शिल्प-कला---गुप्त-काल के शिल्पियों ने मूर्ति-निर्माण-कला में भी कमाल हासिल किया था कुमारगुप्त के राज्य-काल में इलाहाबाद ज़िले

१आर० डी० बैनर्जी;--नंदी-व्याण्यान, ए० १७४,१७७ ](शाणा5 ६॥6 8. 5. ॥., [6 प्थाफ९ 80४9३ 2४ ठ7009, ?६. वा, ०. 6.

१२६ चद्र॒गुप्त विक्रमादित्य

के मनकुवार गाँव से एक बुद्ध-अतिमा हे० स० ४४८-४९ के लेखसहित मिली है| बुद्धदेव अपने दक्षिण हस्त की अँगुलियाँ खोले हुए अभयसुद्रा में, सिंहासन पर बैठे हैं। उनके सिर पर वस्त्र का आवेष्टन है ओर वे बहुत ही महीन धोती पहिने हुए हैं जिसकी पटलियाँ पंखे की भाँति खुली हुई हैं। उनकी मूर्ति के नीचे धमे-चक्र है ओर दोनों ओर ध्यान मुद्रा में बैठी हुई दो मूर्तियाँ हैं मनकुबार तथा सारनाथ की बैठी हुई और मथुरा के अजायबघर की खड़ी हुई बुद्ध-प्रतिमाएँ गुप्त-कालीन शिल्प के सबीाग- सुंदर नमूने हैं ।'

काशी के समीप सारनाथ में जहाँ बुद्धदेव ने अपने धमे का प्रथम सूत्रपात किया था, अनेक बड़े बड़े विशाल मंदिर गुप्त-काल में निर्माण कराये गये थे यह वहाँ पर मिली हुई सुंदर मूर्तियों के देखने से स्पष्ट ज्ञात होता है। वास्तव में सारनाथ का अजायबघर, गुप्त-काल के उत्तम शिल्प-चित्र और मूर्तियों का खज़ाना है। इन्हें देखने से प्रतीत होता है कि इस युग में सारनाथ में बढ़े भव्य भवन ओर मंदिर बने होंगे जिन में इन सुंदर मूर्तियों की प्राण॒-प्रतिष्ठा की गई होगी इन मूर्तियों की अत्यंत भाव-पूर्ण ओर सुंदर कारीगरी को देखकर इनकी अनेक विद्वानों ने : मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। सारनाथ के “धामेक” स्तूप पर बेल-बूटों की सजावट अत्यंत नेत्रग्राही है। इस पवित्र स्थान में बोद्धों के स्तृप, चैत्य ओर बिहार आदि शिल्प के अनेक भभम्ावशेष गुप्त-काल के और उससे भी बहुत पहले के मोजूद हैं। सारनाथ में भगवान बुद्ध ने पहले पहल धधमे-चक्र” का प्रवर्तेन किया था इस कारण बोद्ध इसे अपना तीथराज मानते थे। मौय-सम्राट्‌ अशोक ने इस स्थान पर बहुत ही सुंदर पत्थर का स्तंभ स्थापित किया था इसके शिखर पर चार सिंह-मूर्तियाँ हैं जो बड़ी सुंदर, सजीव ओर स्वाभाविक हैं। सिंह की मूर्तियों के नीचे चार चक्र, हाथी, साँड़, अश्व ओर सिंह अंकित हैं। इसपर किया हुआ वज्जलेप

१कोडरिगटन, एंशेंट इंडिया, पू० ६०

. विष्णु को गुप्त-का्लीन वराह मूर्ति

शुप्तकालीन कलाएं १२७

बहुत ही चिकना ओर चमकदार है यह स्तंभ भारतीय शिल्प का. पर- मोत्तम नमूना है। अशोक के बनवाये हुए स्तूप के भी कुछ चिह्न यहाँ मिले हैं। उसके समय की बनी हुई एक ही पत्थर में से तराशी हुई एंक संंदर ओर चिकनी वेष्टनी (परकोटा ) यहाँ उपलब्ध हुई है। मौरयकाल में पत्थर तराशने की कला पूर्णाता को प्राप्त हो चुकी थी। इस प्राचीन विकसित कला का पुनदेशेन गुप्त-काल में होता है इस समय की शिल्प-कला में कुछ ऐसे असाधारण गुण हैं कि तत्कालीन सुंदर कृतियाँ देखते ही पहचान ली जाती हैं। मूर्तियों की रचना बड़ी ही सुचारु ओर उनकी भावभंगी मनोवेधक है गुप्त-काल की मूर्तियों में गंभीरता, शांति ओर चमत्कार है जैसे इस युग की काव्य-ऋृतियों में पद-लालित्य के साथ अर्थगोरव पाया जाता है वैसे ही इसकी शिल्पकला में रचनासोंदय के साथ विचित्र भाव- व्यंजना देखने में आती है। इस समय की कला रूप-प्रधान तथा भाव- प्रधान है। शिल्पकार वस्तु के रूप को सर्वांगसुंदर बनाने में जितने प्रवीण थे उतने ही अपने आंतरिक ओर आध्यात्मिक भावों को अपनी कृतियों द्वारा दरसाने में सिद्धहस्त थे उनके हृदूगत भाव उनकी सुंदर रचनाओं में स्पष्ट ऋलक पड़ते हैं। ऐसे विलक्षण गुण भारत की शिल्प- कला में इतने उत्तम रूप में अन्यत्र कहीं भी नहीं मिलते गुप्त-काल की मूर्तियों के मस्तक पर बेलबूटों से सजा हुआ प्रभामंडल होता है ओर उनपर सादा ओर बारीक वस्त्रों का आभरण भी द्रसाया जाता है। सार- नाथ के अजायबघर में एक अत्यंत सुंदर बुद्धदेव की मूर्ति रखी है जो 'ध्म-चक्र-मुद्रा” में धर्मोपदेश करती हुईं दरसाई गई है। यह गुप्त-कालीन प्रतिमा केवल अपने वाद्य सोंद्य से हमारे नेत्रों को संठृप्त करती है, किंतु वह हमारे हृदय में, जिन भावों से प्रेरित हो शिल्पकार ने उस मूर्ति को गढ़ा था उनका शीघ्र संचार करती है

गुप्त-काल के कारीगर लोहे, ताँबे आदि धातु की वस्तुएँ बनाने में बड़े निपुण थे गुप्तकाल का ढाला हुआ दिल्ली की कुतुबमीनार के पास के लोहस्तंभ की कारीगरी आश्रये-जनक है | इतना विशाल स्तंभ आज भी

१्५्८ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

दुनिया का बड़े से बड़ा लोहे का कारखाना कठिनता से गढ़ सकता है इसपर अभी तक कहीं भी जंग नहीं लगी चंद्रगुप्त द्वितीय के समय को साढ़े सात फुट ऊँची बुद्ध की मूर्ति बरमिंगहम के अजायबघर में है गुप्तवंशी सम्राटों के सोने के सिक्कों में भी भारतीय शिल्प का परम उत्कष दिखाई देता है। गुप्त राजाओं के सोने, चाँदी ओर ताँबे के सिक्के मिलते हैं, जिनमें सुवर्ण के सिक्के उस काल के कलाकौशल के उत्कृष्ट नमूने हैं उनपर इन राजाओं के कई तरह के कारनामे अंकित किये हुए हैं। उदाहरणाथ, समुद्रगुप्त के वीणांकित सिक्के उसके संगीत-प्रेमी होने के द्योतक हैं। उसके कुछ सिक्कों पर यज्ञ का अश्व बना है, जो उसके चक्रवर्ती होने का सूचक है गुप्त-राजाओं ने अपने कई एक सिक्कों पर संस्क्रत के सुंदर छ॑दों में कविताबद्ध लेख लिखवाये थे जिनसे यह अनु- समान होता है कि उस समय संस्क्त हमारी राष्ट्रभाषा थी और राजा भी काव्य, साहित्य ओर कला के परम अनुरागी थे

संगीत-कला---भारतवषे में संगीत-कला का तो विकास वेद्‌्-काल में ही बहुत उच्च कोटि तक पहुँच चुका था। गान, नृत्य, वाद्य संगीत के ये तीनों ही अंग इस देश में बहुत उन्नति कर चुके थे गुप्त-काल में संगीतविद्या का बड़ा आदर था। संगीत-कला में सम्राट समुद्रगुप्त को प्रयाग के स्तंभलेख में संगीत के प्राचीन आचार्य नारद और तुंबरु से बढ़कर बतलाया गया है। बह वीणा-वादन में दक्ष था--यह उसके कुछ सिकों से स्पष्ट है। वह संगीत-वेत्ताओं का अवश्य दान-मान से आदर करता होगा ऐसे सहृदय राजाओं के आश्रय से हमारे देश के साहित्य, संगीत और कला की अपूब श्रीवृद्धि हुई थी।

चित्र-कला---हमारी प्राचीन चित्र-कला के नमूने जो कालकबलित होने से बच गये हैं वे केवल पहाड़ों को खोद-खोदकर बनाई हुई सुंदर विशाल गुफाओं की दीवारों पर ही पाये जाते हैं। इनमें अज॑ता की चित्रांकित गुफाएँ सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। ये गुफाएँ हैदराबाद राज्य के औरंगाबाद ज़िले में अज॑ता गाँव से पश्चिमोत्तर चार मील दूर स्थित

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गुप्तकालीन कलूाएँ १२९

पव॑त-श्रेणी में खुदी हुई हैं इनमें २० विहार (मठ) ओर चैत्य ( स्तृूपवाले विशाल भवन ) बने हैं, जिनमें ते रह में दीवारों, भीतरी छतों, या स्तंभों पर चित्र अंकित किये गए हैं। ये सब गुफाएँ एक समय की कटी हुई नहीं, किंतु अनुमानत: इसवी सन्‌ की चौथी शताब्दी से लगाकर सातवीं शताब्दी के आस-पास तक समय समय पर बनी हैं। डाक्टर विंसेंट स्मिथ का कथन है कि अजंता की १६ वीं और १७ वीं संख्यावाली चित्रों से सजी हुईं गुफाएँ गुप्तकाल के वाकाटक-बंशो राजाओं की छत्र- छाया में बनाई गई थीं। चित्र-कला के ममंज्ञ पंडितों ने अजंता के चित्रों की भूरि प्रशंसा की है उनमें अनेक प्रकार का अंग-विन्यास, मुख-मुद्रा, भाव-भंगी ओर अंग-प्रत्यंगों की सुंदरता, नाना प्रकार के केशपाश, वरस्थ्नाभरण, चेहरों के रंगरूप आदि बहुत उत्तमता से बतलाये गये हैं इसी तरह पशु-प्ञी, पत्र-पुष्प आदि के चित्र बहुत सुंदर हैं। डेनमाक- बासी एक कलाविशारद का मत है कि अजंता के चित्रों में भारत की चित्र-कला का चरम उत्कर्ष दिखाई देता है ओर उनमें छोटे से छोटे पुष्प वा मोती से लेकर समस्त वस्तु की रचना में चित्रकार ने अपना अद्भुत कला-कोशल ओर प्रतिभा दिखलाई है। इस समय की चित्र-कला इतनी उन्नत अवस्था में थी कि संस्क्ृत के कबि इस कला के पारिभाषिक शब्दों का उपमालंकार में बड़ी खूबी से उपयोग करते थे कविवर कालिदास रचित कुमारसंभव का एक हक इस बात का स्पष्ट प्रमाण है वह पावेती के नवयोवन का वर्णन करते हुए लिखता है :--

उनन्‍्मीलित॑ तुलिकयेव चिरश्र

सूर्यो शुभि भिन्नमिवारविं दम्‌

बसूव तस्या: चतरखशोभि

वषुवि भक्त” नवयो वनेन ॥--कालिदा स, कुमारसंभव

ई० बी० हैवेल ने लिखा है कि--“यूरोपियन चित्र मानो पंख कटे हुए

हों ऐसे प्रतीत होते हैं, क्योंकि वे लोग केवल पार्थिव सोंदय का चित्रण जानते थे। भारतीय चित्रकला अंतरिक्त में ऊँचे उठे हुए दृश्यों को नीचे

१७

१३० चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

प्रथ्वी पर लाने के भाव ओर सोंदय को प्रकट करती है ।” बड़े ही भाव- पूर्ण एवं अनुपम चित्र अनुमान १४०० वर्ष पूबे के बने हुए अजंता की गुफाओं में अरब तक विद्यमान हैं; ओर इतना समय बीतने पर भी उनके रंग की चमक दमक आज भी बैसी ही चटकीली होने के कारण बीसवों शताब्दी के यूरोपियन कला-कोशलधारी चित्रकार भी भारत के इन प्राचीन चित्रों के संमुख सिर भुकाते हैं।*

भारतवष के प्राचीन इतिहास के विद्वान बिंसेंट स्मिथ ने लिखा है कि चंद्रगुप्त विक्रमादित्य और उसके दोनों क्रमानुयायियों के अधिकार- काल में लगभग इं० स० ३७५ से ४९० पर्यत हिंदू-साहित्य, विज्ञान और कला का प्रत्येक विभाग ओदार्यपूर्ण राज्याश्रय पाकर खूब उन्नत हुआ अ्रधिकांश विद्वानों की संमति है कि गुप्त राजाओं की राजसभा के एक जाज्वल्यमान रत्न कविकुलगुरु कालिदास ने पाँचवें ही शतक में अपने परम सहृददयाहादक काव्य ओर नाटक रचे थे। साहित्य और विज्ञान की भाँति शिल्प ओर चित्र-कला ने भी पूर्ण उन्नति की थी।'* गुप्त- काल के शिल्पियों में यह विशिष्ट गुण था कि मनुष्य की मूर्ति बनाने में आकृति को स्वाभाविकता तथा अंग-विन्यास पर पूरा ध्यान देते थे कलाविशारद कोडरिंगटन का कथन है कि भावप्रधान होने के कारण गुप्त-शिल्प-कला की पर्याप्त प्रशंसा की गई है; किंतु उसकी स्वाभाविकता, अंग-सोंदय, आकार-प्रकार और सजीव रचना-शैली आदि गुण भी उतने ही प्रशंसनीय हैं | विवेक और सोंदर्य से अनुप्राणित होने के कारण ही गुप्त-कालीन वास्तुकला ओर शिल्प भारतीय कला के इतिहास में सर्वो-

हैवल--भारतीय तक्षण और चिन्रकछा, पृु० ८८। गौ० ही० ओझा-- राजपूताने का इतिहास, पु० २६।

* स्मिथ---भारत और सीलोन की शिल्प-कछा का इतिहास, अध्याय ६, पृष्ठ १५९

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गुप्तकालीन कलाएँ १३१

त्कृष्ट माने गये हैं ।* इस युग में विवेक ओर कला के बीच घनिष्ट संबंध स्थापित किया गया तक्षकों और चित्रकारों ने अपने आध्यात्मिक विचारों को रूप ओर रंग के द्वारा अभिव्यक्त करने में कोई त्रुटि नहीं की इस समय की बुद्ध की प्रतिमाएँ जिनमें सोंदये का प्रशांत और गंभीर विचारों के साथ संमिश्रण किया गया है, जगत्‌ की कला की कम- नीय कृतियों में स्थान पाने योग्य हैं

कलाकोविद सर जान मारशेल गुप्तसमय के मंदिरों की सादा ओर अकृत्रिम निर्माण-शैली ओर उनपर रचे हुए शिल्प की सजधज पर मुग्ध हैं। गुप्तकालीनकला में उस युग की विचार-स्फूर्ति--उसकी अभिन- बोन्मेष शालिनी प्रतिभा--का प्रत्यक्ष दिग्दर्शन होता है। यह शिल्प- शैली भारत की प्राचीन कला से ही विकसित हुईं थी, जो अशोकयुग के बरहुत (मध्यभारत में ) ओर साँची ( भोपालराज्य में ) के स्तूपों में पाई जाती है। इस की पत्चीकारी ओर सफ़ाई बड़ी उत्तम है। सवोग- सुंदरता में इस की बराबरी करनेवाली वस्तु भारत में वा अन्यत्र कहीं नहीं मिलती ।*

गुप्त-सस्रा्ों के सिक्के

गुप्त-सम्राटों के भिन्न भिन्न प्रकार के सिक्कों के देखने से पता चलता है कि उनका अधिकार-काल भारतीय साहित्य, संगीत, कला, विज्ञान

कोडरिंगटन---आचीन भारत, ए० ६०-६२ ८5७६३ ४0: (95 >०टा छाग्रंड26 ई07 708 ॥ट९८८प्रभापए.,.. 7६ जण्पाँत॑ 956९ 7>९((67 (० ६7९७४ ॥0 35 (76 ॥20ए7४ 0प९20076 6 शाटांधाए एावाब। 470, जाप 408 जंजंत बएए्टंबपंगा ईणाए ब20व 940८०, बाते 408 ॥0076 ०६ ६(९ वृ्णंन: फैला: बे प्रीएपाय ई॑ फजाएड ०83 गाव घीशंए 905९ 270 9237८ ॥7 72७08८.” च्चु( 20छ८-प्र0ा बात पिफंगी बा९ ०्ूटलीसाप, भात॑ 0 पिशा९855 गे

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१३२ चद्रगुप्त विक्रमादित्य

ओर धमे के अभ्युद्य का महायुग होना चाहिए। उनके सोने के सिकों में भारतीय शिल्प का चरम उत्कषे दिखाई देता है| वे सिक्के बहुत प्रकार के हैं। उनपर भाँति भाँति की मूर्तियाँ ओर संस्क्रत के सुंदर गद्-पद्मा- त्मक लेख उत्कीर्ण हैं। भारत के प्राचीन इतिहास के निर्माण करने में प्राचीन राजवंशों के सिकों से बहुत सहायता मिलती है। भारत के प्राचीन सिक्कों के संबंध का साहित्य बहुत खोज से विद्वानों ने संग्रह करके रचा है। गुप्त राज-वंश के सिकरों का क्रमबद्ध वणन विंसेंट स्मिथ, जोन एलन, रैप्सन आदि पुरातत्व-वेत्ताओं ने अपने ग्रंथों में विशद्रूप से किया है गुप्त-कालीन इतिहास के जिस जिस ग्रसंग में हमें सिक्कों से सहायता मिलती है उसका यत्र तत्र हम पहले उल्लेख कर चुके हैं यहाँ पर गुप्राजवंश के सिक्कों का पाठकों को सुस्पष्ट परिचय कराना परम आवश्यक है, क्‍योंकि उनमें कई एक विशेषताएँ हैं | उनमें सोने के सिक्के विशेष महत्त्व के हैं, क्योंकि उनपर गुप्त सम्राटों के अनेक कारनामे अंकित किये गए हैं गुप्तबंश के संस्थापक श्रीगुप्त का अब तक कोई सिका नहीं मिला घटोत्कचगुप्त के नाम का सोने का केवल एक सिक्का लेनिनग्रेड के अजायबघधर में रखा है ।' चंद्रगुप्त प्रथम के सोने के सिक्कों पर पहलो ओर चंद्रगुप्त ओर उसको स्त्री कुमारदेवी की मूर्ति ओर ब्राह्मी अक्षरों में चंद्रगुपरः और “श्रीकुमारदेवी” खुदा है। दूसरी ओर सिंह की पीठ पर बैठी हुईं लक्ष्मी की मूर्ति ओर “लिच्छवय:” लिखा है ।* सम्राट समुद्रगुप्त ने अपने राज्य-काल में सोने के सिक्कों का भूरिशः प्रचार किया था मुद्रातत्वविद्‌ जोन एलन ने उस के सिक्कों को आठ भागों में विभक्त

किया है:

१आर० डी० बैनर्जी--प्राचीन मुद्रा श्जोन एलन घटोत्कच और प्रथम चंद्रगुप्त के इन सिक्कों को उनके चलाये हुए नहीं स्वीकार करते ।---युप्त-मुद्राओं का सूचीपतन्न, प्रस्तावना, ए० ६७५। -

गुप्त-सम्राटों के सिक्के

गुप्तकालीन कलाएँ १३१

(१) गरुड़ध्वजांकित---इन सिक्कों में टोपी, कोट, पायजामा और आभूषण पहने राजा को खड़ी मूर्ति बनी होती है राजमूर्ति के बायेँ हांथ में ध्वजा ओर दाहिने हाथ में अप्रिकुंड में डालने सम्राट्‌ समुद्रग॒प्त॒ के लिये आहुति रहती है। इस ध्वजा पर गरुड़ बैठा के सिके . होता है। दूसरी ओर सिंहासन पर बैठी हुई लक्ष्मी की मूर्ति ओर पराक्रम: लिखा है। पहली ओर राजमूर्ति के चारों ओर उपगीति छंद में “समरशत बितत विजयो जितरिपु रजितो दिवं जयति” लिखा रहता है। राजा के वाम हस्त के नीचे 'समुद्र” लिखा होता है

(२) धनुर्धरांकित--धनुष लेकर खड़े हुए राजा की मूर्ति वाले सिक्कों

पर उसके बायें हाथ के नीचे

मु

दर ओर मूर्ति के चारों ओर “अग्रतिरथो विजित्य ज्षितिं सुचरितैर्दिवं जयतिः लिखा रहता है

(३) परशुधरांकित--इन सिक्कों पर प्रथ्वीछंद में 'कतांतपरहुजयत्य- जित राज जेता जितः--लेख उत्कीण रहता है उलटी तरफ क्रतांत परशु--लिखा रहता है

(७) काचांकित--चौथे प्रकार के सिक्कों पर 'काच!ः और “सबब राजो- च्छेत्ता' लिखा है। राजमूर्ति के चारों ओर उपगीति छंद में 'काचो गाम- वजित्य दिव॑ं कमेभिरुत्तमेजयति” लिखा होता है। मुद्रातत्वविद्‌ इन सिक्कों को समुद्रगुप्त का ही मानते हैं, क्योंकि ये सिक्के समुद्रगुप्त के धनुरधरांकित सिक्कों से बहुत बातों में मिलते जुलते हैं 'सबराजोच्छेत्ता'--यह विशे- षण समुद्रगुप्त के नाम के साथ जुड़ा हुआ उसके वंशजों के शिला-लेखों में पाया जाता है अतणव “काच? समुद्रग॒ुप्त का ही नामांतर होगा।

(७) व्याप्रवर्धांकित--इन पर एक ओर “व्याघ-पराक्रम:” और दूसरी ओर, “राजा समुद्रगुप्त: लिखा है

१्१४ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

(६) वीणांकित--इन सिक्कों पर वीणा बजाते हुए राजा की मूर्ति है ओर दूसरी ओर आसन पर बैठी हुईं लक्ष्मी की मूर्ति है। इनपर “महा- राजाधिराज श्री समुद्रगुप्तः' लिखा है

(७) आ्राश्वमेघिक--इस प्रकार के सिक्कों पर एक ओर पताकायुक्त यज्ञयूप में बँधे हुए यज्ञ के घोड़े की मूर्ति ओर दूसरी ओर हाथ में चैंवर लिये प्रधान महिषी की मूर्ति ओर बाई ओर एक शूल है। ऐसे सिक्कों पर उपगीति छंद में यह लिखा रहता है:--

“राजाधिराज प्रथिवीमवित्वा दिच॑ जयत्य प्रतिवार्य वीय: ।”!

इन के दूसरी ओर “अश्वमेध पराक्रम: लिखा रहता हे।

(८) विवाह-सूचक--ये सिक्के प्रथम चंद्रगुप्त ओर कुमारदेवी के विवाह की स्म्रति में समुद्रगुप्त ने चलाये थे। इनमें आभूषणों से सज्जित राजा ओर राणी खड़े होते हैं और राजा के एक हाथ में ध्वजा और दूसरे में विवाह-मुद्रिका होती है ।'*

यद्यपि गुप्तवंशी नरेशों के सिक्के पिछले कुशनवंशी राजाश्ों के सिकों के ढंग पर बने थे तथापि उन सिकरों में शिल्प का यथेष्ट कौशल

मिलता है। इनमें राजा की सुन्दर मूर्ति, उसकी भाव-

सम्राट्‌ चंद्रयुप्त विक्र- भंगी, साधारण सज-धज ओर रचना-चातुरी देखने योग्य मादित्य के सिक्के हें। गुप्तवंशियों के सोने के सिक्कों में भारतीय कला का चरम उत्कष दिखाई देता है द्वितीय चंद्रगुप्त के सिकों

के विषय में मुद्रातत्वविद्‌ जोन एलन का मत है कि उनकी सजधज में भी बहुत कुछ मोलिकता पाई जाती है। हिंदू रीति के अनुसार उनपर लक्ष्मीदेवी सिंहासन के बदले में पह्मासन पर बैठी हैं उसके कुछ सिक्कों पर एक ओर घोड़े की पीठ पर राजा की मूर्ति ओर दूसरी ओर पद्मवन में बैठी हुईं देवी की मूर्ति अंकित हैं इन नये ढंग के सिक्कों का चंद्रगुप्त

जोन एछन--यगुप्त-सुद्राओं का सूचीपन्न, प्रस्तावना, ए० ६७-७७ |

चंद्रगुप्त के सिक्के

गुप्तकालीन कलाएँ १३१५

के उत्तराधिकारी कुमारगुप्त ने भी खूब अनुकरण किया। द्वितीय चंद्रगुप्त ने चाँदी ओर ताँबे के भी सिक्के चलाये थे। उसके धनुषवाणधारी राज- मूर्तियुक्त सुब्ण सिक्कों पर 'देवश्री महाराजाधिराज श्री चंद्रगुप्तः और “श्री विक्रम:--ये नाम ओर उपाधियाँ उत्कीर्ण रहती हैं छत्न धारण किये हुए राजमूर्ति युक्त सिक्कों पर 'ज्षितिमवजित्य सुचरितैर्दिवं जयति विक्रमादित्य” खुदा रहता है। उसके दूसरे प्रकार के सिकों पर सिंह से लड़ती हुईं राज-मूर्ति अंकित है अथवा राजा की मूर्ति के सामने घायल होकर गिरते हुए वा भागते हुए सिंह की मूर्ति बनी रहती है। इनपर “सिंह विक्रम:”, “सिंह चंद्र” आदि राजा की उपाधियाँ लिखी होती हैं सिंह को मारनेवाली मूर्तिवाले सिक्कों पर संस्क्रत के सुंदर वंशस्थ छं॑द्‌ में यह लिखा रहता है:-- नरेंद्रच॑द्र: प्रथित (श्रिया ) दिव॑ जयत्यजेयो भुतरि सिंह विक्रमः।

अश्वारूदढ़ राजमूर्ति वाले सिक्कों पर 'परमभागवत-महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्तः ओर “अजितविक्रम:” लेख खुदे रहते हैं

द्वितीय चंद्रगुप्त के चाँदी के सिकों में दो विभाग मिलते हैं उनमें क्षत्रपों के सिक्ों का बहुत कुछ अनुकरण देखने में आता है। दोनों विभागों में एक ओर राजा का मुख, यूनानी अक्षरों के चिह् ओर वष ओर दूसरी ओर गरुड़ की मूर्ति--गुप्त बंश का लांछडन--ओर त्राक्षी लिपि में “परम भागवत महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्त: विक्रमादित्य: अ्रथवा श्री गुप्त कुलस्य महाराजाधिराज श्री चंद्रगुप्त विक्रमांकस्य” लिखा मिलता है

द्वितीय चंद्रगुप्त के सिक्कों के निरीक्षण से यह बात स्पष्ट प्रतीत होती है कि वह सम्राट शरीर में सुदृढ़ ओर सुडोल था, उसे अपने बाहुबल का घमंड था, ओर सिंह के शिकार करने का उसे व्यसन था उन सिक्कों पर उत्कीण मूर्तियों और संस्कृत छंदों में लिखे लेखों से निर्विवाद सिद्ध है कि वह काव्य ओर कलाओं का प्रेमी था। उसे अपने नाम के साथ उच्च उपाधियाँ धारण करने का बड़ा शोक था उस की मुद्राओं से ज्ञात

११६ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

होता है कि उस ने “विक्रमांक', 'विक्रमादित्य', 'श्रीविक्रम', 'अजित- विक्रम', सिंहविक्रम', 'महाराजाधिराज), नरेंद्रचंद्र', 'परमभागवत'” आदि उपाधियाँ ग्रहएा की थीं। उसके शासन-काल में प्रचलित सिक्‍के इतने अधिक ओर विविध प्रकार के हैं कि हमें इस में लेश भर भी संदेह नहीं कि उसका शासन शांतिमय ओर दीघेकालीन हुआ होगा ओर उसकी प्रजा व्यापारद्यरा लक्ष्मी के उपाजेन में संलग्न होगी, क्योंकि व्यापार-विनि- मय के लिये ही इतने अधिक सिक्कों का प्रचार अपेक्षित हुआ होगा। सम्राद चंद्रगुप्त ्वितीय ने अपनी प्रजा के रक्तण ओर भरण का पूरा पूरा आयोजन किया था यह बात सिफ उसके प्रचुर मुद्रा-अचार से सूचित होती है, बल्कि चोनी-यात्री फाहियान के विश्वसनीय विवरण से तो बिल्कुल निर्विवाद सिद्ध है।

गुप्त-काल की शिल्पकला के नमूने

नवॉ अध्याय गुप्त-काल में भारत की धार्मिक अवस्था

गुप्त-बंश के राज्यारंभ से ही भारत में बोद्ध-धम का धीरे धीरे ह्ास ओर ब्राह्मण-धर्म का बड़े वेग के साथ अभ्युत्थान होने लगा तत्कालीन इतिहास में इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। इस समय के जितने लेख मिलते हें उनमें सबसे अधिक संख्या ब्राह्मणधर्मावलंबियों के लेखों की है बोद्ध ओर जैन धर्मा' का यत्किंचित्‌ आभास कुछ थोड़े से ही शिला- लेखों में मिलता है। बोद्धधमेंसम्राट अशोक ओर कनिष्क का आश्रय पाकर जिस वेग से बढ़ा था उसी वेग से राज्य का आश्रय पाने पर वह घटने लगा। गुप्त-युग में वैदिक यज्ञ-यागादि का भी प्रचार बढ़ा समुद्रगुप्त ने चिरकाल से होनेवाला अश्वमेधयज्ञ बड़े समारोह से किया था इस यज्ञ की दक्षिणा देने के लिये उसने सोने के विशेष प्रकार के सिके बनवाये, जिनकी पीठ पर “अश्वमेधपराक्रम:” लिखा रहता है। उसके पोन्न कुमारणुप्त ने भी अश्वमेघयज्ञ किया था जिसके उपलक्ष्य में उसने “अश्वमेधमहेंद्र”र यह बिरुद धारण किया था। द्वितीय चंद्रगुप्त, कुमा रगुप्त ओर स्कंदगुप्त 'परम भागवत? कहलाते थे जैसा कि उनके सिक्के ओर शिलालेखों से ज्ञात होता है। उदयगिरि ( भेलसा ) में चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय के दो शिलालेख मिले हैं एक शिला पर लेख के नीचे दो मूर्तियाँ हैं; एक द्वादशभुजा दुर्गा ( चंडी ) की ओर दूसरी चतु- भृज विष्णु की, जिनकी दो देवियाँ परिचर्या करती हुई दिखाई गई हैं दूसरे शिलालेख में चंद्रगुप्त के सांधिविश्नहििक वीरसेन ने शिव की पूजा के लिये एक गुफा उत्सगे की थी यह लिखा है कुमारणुप्त के समय में किसी

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११८ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

एक ध्रुवशर्मो ने स्वामिमहासेन ( कार्तिकेय ) के मंदिर में एक प्रतोली बनवाई थी। भिटारी के स्तंभ पर विष्णु ( शागिन्‌ ) की प्रतिमा के स्था- पित किये जाने ओर उसकी पूजा के लिये स्कंदगुप्त का एक गाँव दान करने का वणन है गिरनार के शासक चक्रपालित ने चक्रश्नत्‌ विष्णु का मंदिर बनवाया था। गुप्तसमय के ओर भी अनेक शिलालेख हें जिनमें विष्णु, सूये आदि देवताओं की पूजा के लिये मंद्रि तथा ध्वजस्तंभ स्थापित किये जाने ओर पंच महायज्ञों के अनुष्ठान किये जाने का उल्लेख है इन पूर्वाक्त प्रमाणों से स्पष्ट विदित होता है कि ज्योंही बोद्ध धर्म का प्रभाव कमर होने लगा त्योंही हिंदूधम ने बहुत वेग से उन्नति आरंभ की ओर वह बहुत विकसित तथा पल्लवित होने लगा।

ब्राह्मण-धम के अभ्युत्थान के साथ साथ संस्कृत साहित्य की भी श्रीवृद्धि होने लगी। इस समय के सारे शिलालेख, ताम्रपत्र और मुद्राओं में संस्क्रत भाषा का प्रयोग भारतवष में सवेत्र ही दृष्टिगत होता है। पहले बोद्धों ने संस्क्रत का तिरस्कार कर पाली को अपनाया था। बुद्धदेव ने अपने सब उपदेश पाली भाषा में दिये थे अशोक की धम;लिपियाँ भी पाली में लिखी गई थीं। परंतु ब्राह्मण-धर्म का प्रभाव धीरे धीरे गुप्त- समय के बहुत पू् से ही इतना व्यापक हो गया कि बोद्ध विद्वान भी संस्क्रत में ही अपने ग्रंथ निमाण करने लगे अश्वघोष, नागाजुन, वसु- बंधु आदि बोद्ध विद्वानों ने पाली वा प्राकृत की अपेक्षा संस्क्रत का ही अधिक आदर किया। महाकवि अश्वघोष ने अपना बुद्धचरित नामक प्रसिद्ध महाकाव्य संस्कृत में ही लिखा धीरे धीरे प्राकृत भाषा का हास होने लगा ओर संस्क्रत अपने पूर्ण ऐश्बय में दिखाई देने लगी। जैसा कि हम पूब कह चुके हैं, यह संस्क्रत वाडमय का सुवर्ण युग़ था

गुप्त-युग के धार्मिक जीवन में भक्ति का प्रवाह बड़े वेग से बह रहा था। प्राचीन त्राह्मण-धर्म तो भक्ति-प्रधान ही था। ईश्वर की उपासना, यज्ञयागादि का अनुष्ठान तथा बर्ण-व्यवस्था आदि इस के मुख्य अंग थे ब्राह्यण ओर बोद्ध धर्मो' में जो कई सदियों से विचार-संघर्ष हो रहा था

गुप्त-काल भें भारत की धार्मिक अवस्था १३९०

इस का परिणाम यह हुआ कि दोनों धर्मो' में विचारों का इतना आदान- प्रदान हुआ, उनमें इतनी समानता बढ़ गई कि बौद्ध ओर हिंदू देवताओं में भेद करना कठिन हो गया। बोद्ध धर्म पर 'भागवतधम! का--भक्ति मार्ग का--व्यापकप्रभाव पड़ा जिसका पूर्ण आविभ्भाव बोदों की महा- यान संप्रदाय में हुआ जिस तरह प्राचीन वेदिक धर्म ही भिन्न भिन्न अवस्थाओं में परिवतन प्राप्त करता हुआ पोराशिकधम में परिणत हुआ उसी तरह बोद्धधर्म भी प्राचीन वेद-धर्म का विभिन्न परिवतन मात्र था-- वेद के विचार-तरंगों का एक विभिन्न प्रवाह था। बोद्ध ओर हिंदू धर्मा' के मोलिक विचार बहुत कुछ सामान्य थे, क्योंकि वे समान संस्कृति के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। परंतु दोनों धर्मा' में जो कुछ विभिन्नताएँ थीं वे धीरे धीरे परस्पर के विचार-संघर्ष से घटने लगीं ओर उनमें समानताएँ बढ़ने लगीं प्रारंभिक बोद्ध-धर्म बेद के जटिल हिंसात्मक कमकांड का ग्रतिवाद-रूप था। बह संनन्‍्यास-मा्गे-प्रधान था। वह धर्म सावेजनिक था। उसमें जाति-पाँति के भेद माने गये थे। इश्वर की सत्ता तथा उपासना के विषय में बुद्ध- देव उदासीन रहे बेदिक यज्ञों की अपेक्षा उन्होंने शील, समाधि, प्रज्ञा इन त्रिविध यज्ञों को सवश्रेष्ठ माना। जब तक बुद्धदेव जीवित रहे तब तक उनके विश्वप्रेम ओर मैत्री-करुणा की आदशंमूर्ति जनता का हृदय आकर्षित करती रही, किंतु उनके निवाणप्राप्त होने के पश्चात्‌ थोड़े ही दिनों में बोद्धों का शुष्क तथा निरीश्वर संन्यास-मार्ग लोगों को खटकने लगा भक्ति ओर भगवान के लिये भारतीयों का हृदय छुटपटाने लगा स्वयं बोद्धों को भी इस बात का अनुभव हुआ ओर उन्होंने भक्ति-मार्गं का आश्रय लिया। उनमें भक्ति-संप्रदाय चल पड़ा जो 'महायान? कह- लाता है। उसमें स्वय॑ बुद्ध को उपास्य-देव मानकर उनकी भक्ति करने का प्रतिपादन किया गया ओर बुद्ध की प्रतिमाएँ बनने लगीं। बोद्ध-धर्म में धीरे धीरे दो पंथ हो गये--एक हीनयान और दूसरा महायान। हीन- यान में बुद्ध की प्रतिमा गढ़कर उनको पूजा की जाती थी। केवल “ोधिवृक्ष', 'धरमंचक्र', 'स्तृप” आदि चिह्नों से हीनयान वाले बुद्धदेव का

१४० चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

स्मरण किया करते थे और उनकी समग्नम प्रतिमा बनाकर देवता के रूप में पूजते थे। किंतु महायान-मा्ग में भक्ति प्रधान थी इसलिये बुद्ध की प्रतिमाएँ अनेक मुद्राओं में उपासना के लिये बनाई जाने लगीं। महा- यान में २० अतीत बुद्ध, २७ वतमान बुद्ध ओर २७४ भावी बुड़ों की कल्पना की गई ओर अनेक “बोधिसत्व” ओर देवीदेवता माने गये बोधिसत्व वे हैं जो भविष्य जन्मों में बुद्ध-पद के अधिकारी होंगे। “पट्‌- पारमिता” अथात्‌ दान, शील, क्षमा, वीय, ध्यान और प्रज्ञा इन छः गुणों के जीवन में उत्तरोत्तर विकास होने पर बोधिसत्व बुद्ध-पदवी पर पहुँच सकता है।' बुद्ध का निवोण तो एक लीलामात्र थी। वे सदा अमर रहते हैं ओर धर्म को संस्थापना के लिये--जीवलोक के निस्तार के लिये--युग युग में जन्म लेते हैं ।' महायान सिद्धांत के अनुसार, प्रज्ञा! ओर “करुणा? के साथ साथ भगवान बुद्ध में तथा उनके पार्षद बोधिसत्वों में निरतिशय भक्ति करना “सम्यक्संबोधि! और “निर्वाण? का साधन है महायान पंथ के सिद्धांतों पर विचार करने से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्राचीन ब्राह्मण-धर्म ओर नवीन बोद्ध-धर्म में बहुत कुछ समानता रही थी ओर इस समय दोनों ही का परस्पर मेल हो रहा था इन दोनों धर्मो' को समन्वित करने में 'भागवत-धर्मः ही प्रधान कारण हुआ

महायानपंथ के सब से बड़े समर्थक ओर प्रवतेक कनिष्क के समय में नागाजून और अश्वघोष ओर गुप्त-काल में असंग और वसुबंधु हुए। इस पंथ का भारत और विदेशों में भी बड़ा प्रचार हुआ। चीनी यात्री

निंदसि यज्षविधेरहह श्रुतिजातम्‌ सदयहदयदशित पशुधातम केशव ! उतबुद्धशरीर जय जय देव हरे ।--गीतगोविंद अनेक जन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्‌ ।--गीता धर्मेसंस्थापनाथोय संभवामि युगे युगे ।--गीता

गुप्त-काल में भारत की धार्मिक अवस्था १४१

फ़ाहियान महायान का अनुयायी था। वह एक भावुक हिंदू की भाँति बुद्ध- प्रतिमा की पूजा किया करता था। उसने पाटलिपुत्र में तीन वर्ष तक ब्राह्मण-धर्म की भाषा संस्क्रत का अध्ययन किया, क्योंकि महायानधमे के ग्रंथ संस्कृत में थे। प्राचीन बोौद्धघमे का स्थान इस समय ब्राह्मण- धर्म और महायान ने ले लिया था ओर महायान भी ब्राह्मण-धर्म की उमड़ती हुई बाढ़ में तल्लीन हुआ चाहता था। चीनी यात्री के बोद्ध-विहारों के बणन को पढ़कर तो यह अनुमान होता है कि बोद्ध-धमं इस समय उन्नति के पथ पर अग्रसर था, परंतु तत्कालीन साहित्य, शिलालेख, मुद्रा तथा अन्य स्मारक-चिह्नों से स्पष्ट पता लगता है कि बोद्ध-धर्म का क्रमशः हास ओर हिंदूधम की उत्तरोत्तर वृद्धि इस समय हो रही थी

गुप्त-काल में यद्याप ब्राह्मण, बौद्ध और जैन धमम की भिन्न भिन्न संप्र- दाय विद्यमान थीं, तथापि उनमें परस्पर किसी प्रकार का धामिक हंष- भाव नहीं पाया जाता। यद्यपि ब्राह्मण-धमें इस समय राजधमे बन चुका था, तथापि धार्मिक मतभेद के कारण बोद्ध ओर जैन लोगों को कुछ कष्ट उठाना पड़ा हो वा उनपर किसी तरह के अत्याचार हुए हों इसका गुप्त-कालीन इतिहास में कहीं भी संकेत नहीं है प्रत्युत गुप्त-सम्राट्‌ परम वैष्णव होते हुए भी अन्य धार्मिक संप्रदायों का बड़ा आदर करते थे अन्यत्र बतलाया जा चुका है कि परम भागवत चंद्रगुप्त द्वितीय ने बोद्ध आम्रकादेव ओर शैव वोरसेन ओर शिखरस्वामी को ऊँचे अधिकारों पर नियत किया था। कुमारगुप्त के समय के शिला-लेखों से प्रकट होता है कि शिव, विष्णु, बुद्ध, सूये तथा कार्तिकेय की पूजा के लिये लोग बिना किसी बाधा के ग्रतिमाएँ ओर मंदिर बनवाते थे। गुप्तवंशी राजा तो धमे के मामलों में अत्यंत सहिष्णु ओर पक्षपातशून्य थे, किंतु प्रजा में भी धार्मिक सहिष्णुता का भाव कूट-कूटकर भरा था। कहोम (ज़िला गोरख- पुर) के गुप्त संबत्‌ १४१ (इ० स० ४६०) के शिला-लेख में पाँच तीथकरों की मूर्तियाँ ओर एक स्तंभ बनवाने का उल्लेख है। उसमें लिखा है कि इनका निर्माण करानेवाला मद्र नामक व्यक्ति ब्राह्मण, गुरु ओर यतियों

१७२ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

में भक्ति रखनेवाला था ।' साँची के शिला-लेख में बोद्ध आम्रकादव ने भिक्तु-संघ को दान करते हुए कहा है कि जो मेरे चलाये हुए इस धम-कार्ये में हस्तक्षेप करेगा उसे गो-ब्राह्मण की हत्या का पाप लगेगा ।'* इस प्रसंग में यह ध्यान देने योग्य बात है कि इस युग में ब्राह्मणों पर बौद्ध और जैन लोगों की इतनी श्रद्धा-मक्ति थी। भारतवष के प्राचीन इतिहास में धर्म के नाम पर प्रजा में परस्पर विद्वेष ओर युद्ध नहीं हुए। सम्राद अशोकद्वारा उद्घोषित धार्मिक सहिष्णुता के परमसिद्धांत का पालन परवर्ती काल के राजा ओर प्रजा करते रहे---इस का इतिहास साक्षी है। राजा और प्रजा की ओर से जो धार्मिक संस्थाओं को दान दिये जाते थे उनमें किसी को हस्तक्षेप करने का कदापि अधिकार होता था। इस प्रकार के अक्षयदान बोड्ध, ब्राह्मण आदि संग्रदायों के निमित्त शिला और ताम्र-पत्रों पर लिखवाये जाते थे ।* 'दिवदाय” अथवा “धमेदाय” की रक्षा करना, चाहे वह किसी भी संप्रदाय का हो, भारतवष के राजा लोग अपना परम धम सममभते थे |" भारतव्ष के प्राचीन इतिहास से यही प्रकट होता है कि इसके प्रत्येक युग में अनेक संप्रदायों के विद्यमान होते हुए भी प्रजा अपने अपने धर्माचरण में स्वतंत्र थी, धार्मिक विद्ेष का अभाव था और सभी पंथ परस्पर सहिष्णु थे

विलसद, मंकुवार, करमदंड और मंदसोर के शिला-लेख--

मद्ग॒स्तस्याप्मजो5भद्‌ द्विजगुरुयतिषु प्रायद्ा: प्रीतिमान्‌ यः --फ़्छीट, गु० द्वि० सं॑० १५७ * तदतत्मवत्त उच्छिंयात्‌ गोश्रद्महत्ययासंयुक्तो भवेत्‌--वही सं० ७५। “एवमेषाक्षय नीवी आर्चद्राके शिलालेक्या??---सांची का शिलालेख, गु०

सं० १३१ ( हैं० सं० ४५० )।

“समस्त राजकीयानामहस्तप्रक्षेपणीयों भूमिच्छिद्वन्यायेना च॑द्राकोर्णवसरि विक्षति-स्थिति पर्वत समकालीनौ उदकातिसर्गेण देवदायों निसृष्ठी ।”!

“कष्णसपों हि जाय॑ते धम दायापद्दारका;'! इ० एंटि० जिद पृ० प्रथम धरसेन का व्छभी का ताम्रलेख

दसवाँ अध्याय

गुप्त-युग का उत्तराधे

चंद्रगप्त द्वितीय विक्रमादित्य का उत्तराधिकारी उसका पुत्र कुमार- ग॒ुप्त प्रथम महेंद्रादित्य हुआ। उस का राज्यारोहण-काल इे० स० ४१३ से प्रारंभ होता है गुप्तवंश का प्रताप-सूर्य कुमारगुप्त के समय में पराकाष्ठा पर था। उसके राज्य के अंतिम चरण से गुप्त-युग का उत्तराधे शुरू होता है। सम्राट कुमारगुप्त के खिताब जो उसने घारण किये थे, बड़े शानदार हैं। दामोदरपुर (बंगाल) से मिले हुए गुप्त संवत्‌ १२९ (इ० स० ४४८-४४९) के कुमारणुप्त के ताम्रपत्रों में उस का बिरुद 'परम देवत परमभद्वारक महा- राजाधिराज? मिलता है। उसने भी अश्वमेध-यज्ञ किया था, जिसके स्मारक सुबण के सिक्के मिलते हैं। अपने पिता के सदश वह भी “परम भागवत? था। परम राजाधिराज, महेंद्र, सिंहमहेंद्र, अजित महेंद्र, महेंद्रादित्य, गुप्तकुल, व्योमशशी, अश्वमेध-महेंद्र भ्रादि उपाधियों से विभूषित उसका नाम सिक्कों ओर शिलालेखों में मिलता है। उसके समय के सिक्के ओर शिला- लेख जिन स्थानों से मिले हैं उनसे पता चलता है कि कुमारगणुप्त प्रथम का अधिकार तथा शासन सुराष्ट्र से बंगाल तक अखंड था पुंड्वर्धेन- भुक्ति ( उत्तरी बंगाल ) उसके नियुक्त किये हुए शासक चिरातदत्त के अधीन थी ( इ० स० ४४८-४४९ ) | ई० स० ४३५ के आस-पास राज- कुमार घटोत्कचगुप्त एरण ( पूर्व मालवा ) पर शासन करता था कुमार शुप्त प्रथम का सामंत बंधुवमों इे० स० ४३७-३८ में दशपुर ( पश्चिमी मालवा ) का अधिकारी था। गुप्त संवत्‌ ११७ ( ई० स० ४३६ ) का एक लेख करमडांडे ( फ़ेजाबाद जिले ) से मिला है, जिसमें लिखा है कि

श्ड्ड चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

प्रथ्वीसेन कुमारगुप्त प्रथम के समय 'महाबलाधिकृत”? ( सेनापति ) था ओर प्ृथ्वीसेन का पिता शिखरस्वामी चंद्रगुप्त द्वितीय के समय मंत्री ओर कुमारामात्य था उसके समय के संवत्‌ वाले शिलालेख मिले हैं जिनमें गुप्त संवत्‌ ९६ से १२९ (ई० स० ४१५-०४८ ) तक के ओर एक मालव ( विक्रम संवत्‌ ४९३--३० स० ४३६ ) का है। उसके चाँदी के सिक्कों पर भी गुप्त-संवत्‌ ११९ से १३६ (इ० स० ४३८-४५५ तक ) के अंक लिखे मिलते हैं | उसके दो पुत्र स्कंदगुप्त ओर पुरगुप्त अनंतदेवी से उत्पन्न हुए थे। प्रथम कुमारगुप्त की मृत्यु के उपरांत उसका बड़ा बेटा स्क॑दगुप्त सिंहासन पर बैठा था कुमारगुप्त के जीवन के अंतकाल में भारतवषे पर पुष्यमित्र, हूण आदि विदेशी जातियों के आक्रमण आरंभ हुए कथासरित्सागर की एक कथा में लिखा है कि एक समय उज्जैन में महेंद्रादित्य नामक राजा राज्य करता था। उसके समय में भारत पर मलेच्छीं ने अपना अधिकार बढ़ाना शुरू कर दिया--्लेच्छाक्रांतेच भूलोके? परंतु महेंद्रादित्य के पुत्र विक्रमादित्य ने उनका नाश कर डाला ओर समस्त साम्राज्य को अपने वश में कर लिया ।' इस कथा में यथाथे घटनाओं का उल्लेख है। “महेंद्रादित्य” कुमारगुप्त की ओर “विक्र- मादित्य! स्कंदगुप्त की उपाधियाँ थीं स्कंद्गुप्त के समय के भिटारी ओर जूनागढ़ के शिलालेखों से इस कथा की यथार्थता सिद्ध होती है स्कंदगुप्त विक्रमादित्य का राज्य-काल गुप्त संबतयुक्त मुद्राओं ओर

शिलालेखों के प्रमाणानुसार इ० स० ४५० से इ० स० ४६७ तक रहा। कुमा रगुप्त की मृत्यु के पश्चात्‌ गुप्तसाम्राज्य पर घोर विपत्ति के बादल उमड़ पड़े। हणों का टिट्डीदल इस देश पर टूट पड़ा इन विदेशी शत्रुओं

१“म्रध्यदेश: ससौराष्ट्र सवंगाज्ञा पूवेदिक

सकद्मीरानू सफोवेरीकाछश्च करदीकृता

सलेच्छ संघाश्व निहत्ता: शेषाश्न स्थापिता वशे ॥””

--कथासरित्सागर, भाग १८

गुप्त-युग का उत्तराभे श्ड७

के भयानक आक्रमण से विचलित अपने बंश की राजलच्टमी को षीर- शिरोमणि स्कंदगुप्त ने तीन मास प्रथ्वी पर सोकर ओर शज्रुओं को परास्त कर स्थिर किया। पिता के स्वगंवासी होने पर शत्रुओं से आक्रांत अपने कुल की लक्ष्मी को अपने बाहुबल से शत्रुओं को पराजित कर पुनः प्रतिष्ठित करके, जैसे कृष्ण शत्रुओं को मारकर देवकी के पास आये थे बैसे रकंदगुप्त विजय का संदेश लेकर अत्यंत हे के कारण अश्रुपात करती हुईं मा के पास आया शन्नुओं से स्वदेश की रक्षा कर रकंदगुप्त ने अपने साम्राज्य के प्रांतों में गोप्ताओं को नियुक्त कर अपना शासन सुप्रतिष्ठित किया ।"

“सर्वेषु देशेषु विधाय गोप्त्रीन-संचिंतयामास बहु प्रकारम्‌ ।”

जूनागढ़ के गुप्त संवत्‌ १३६ (इ० स० ४०५७-५८ ) के शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसने सुराष्ट्र के शासन का भार पर्णदत्त को सुपु कर रखा था। परादत्त का पुत्र चक्रपालित गिरिनगर ( गिरनार ) का - अधिकारी नियुक्त हुआ था जिसने सुदशन नामक भील का जीर्णेद्धार कराया था। गंगा ओर यमुना के बीच के देश पर ( अंतर्वेदी ) 'परम- भट्टारक महाराजाधिराज' स्कंद्गुप्त का सामंत सबंनाग शासन करता था। गुप्त संवत्‌ १७६ ( इ० स० ४६०५-६६ ) के इंद्रपुर ( ज़िला बुलंद-

विचलछित कुछ लक्ष्मीस्त॑ंभनायोचतेन क्षितितलशयनीये येन नीता श्रिमासाः पितरि दिवमुपेते विप्लुतां वंशलक्ष्मीं भ्रुजबलबविजितारिय्यं: प्रतिष्ठाप्य भयः | जितमिति परितोषान्मातरं सास्नेत्नां हतरिपुरिव कृष्णो देवकीमस्युपेत: हर्णेयस्थ समागतस्य समरे दाभ्यों धरा कम्पिता |

भिटठारी ( गाज़ीपुर ज़िला ) के स्तम्भ पर स्कंदगुप्त का केख--फ़्छीट, गुप्त- छे० संख्या १३ १९

श५्डद्‌ चद्रगुप्त विक्रमादित्य

शहर ) के ताम्रपत्र से विदित होता है कि उस समय तक भी गुप्त-साम्रा- ज्य के मध्य के प्रदेशों में शांति विराजती थी। स्कंदगुप्त के सिक्कों पर 'परम भागवत', क्रमादित्य?, विक्रमादित्य” 'सुधनन्‍्वी”? आदि उपाधियाँ उत्कोण रहती हैं अब सभी विद्वानों ने यह मान लिया है कि स्कंदगुप्त का राज्य-काल है० स० ४६७ के लगभग समाप्त हुआ था। कुछ विद्वानों की धारणा है कि उसकी मृत्यु के उपरांत गुप्त-साम्राज्य के अंग भंग होने लगे। किंतु यह मत ठीक नहीं है,' क्‍योंकि शिलालेखों ओर साहित्यिक प्रमाणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि ई० स० की पाँचवीं, छठी ओर सातवीं सदियों में गुप्तबंश का राज्य इस देश से उच्छिन्न नहीं हुआ था। स्कंद- गुप्त की मृत्यु के समय (इ० स० ४६७ ) से गुप्तवंशी राजाओं की परंपरा स्पष्ट समझ में नहीं आती सारनाथ की दो बोद्धमूर्तियों पर गुप्त संवत्‌ १५४ और १०७ (ई३० स० ४७३ ओर ४७६ ) के लेख हैं जिनसे पता चलता है कि इ० स० ४७३ में कुमारगुप्त (द्वितीय ) का ओर ई० स० ४७६ में काशी के निकट बुधगुप्त का राज्य था।'* सारनाथ के इन लेखों से स्पष्ट प्रकट होता है कि स्क॑दगुप्त के उत्तराधिकारी क्रम से द्वितीय कुमार- नृपति गुणनिकेत: स्कँदगुप्तः प्थुश्री: तुरुदधिजलांतां स्फीत पर्यत देशान्‌ अवनिमवनता रियंश्रकाराव्मसंस्थाम पित्तरि सुरसखित्वं प्राप्तवत्यात्मशक्तया --फूलीट, जूनागढ़ का शिलालेख सं० १४ वर्षदाते गुप्तानां सचतुः पण्चाशदुत्तरे भूमिम्‌ शासति कुमारगुस्ते गुप्तानां समतिक्रांते सप्तप*्चाद्ादुत्तरे शते समानां प्थिवीं बुधगुप्ते प्रशासति सारनाथ की बुदछू-सूर्तियों पर खुदे हुए छेख

गुप्त-युग का उत्तराध १४७

गुप्त ओर बुधगुप्त हुए थे। परंतु मिटारी ( ज़िला गाजीपुर ) से मिली हुई राजमुद्रा पर गुप्तों का वंशानुक्रम भिन्न प्रकार से उल्लिखित है। उसमें प्रथम कुमारगुप्त के बाद स्कंदगुप्त का नाम नहीं है। भिटारी की राज- मुद्रानुसार, प्रथम कुमारगुप्त के पश्चात्‌ पुरगुप्त, नरसिंहगुप्त ओर द्वितीय कुमारगुप्त क्रम से राजा हुए। पुरगुप्त की माँ का नाम अनंतदेवी ओर स्त्री का नाम वत्सदेवी था। वत्सदेवी के गर्भ से उत्पन्न नरसिंहगुप्त अपने पिता की मृत्यु के उपरांत सिंहासन पर बेठा था। पुरणगुप्त के नाम के सोने के कई सिर्क मिले हैं जिनपर उसका बिरुद “श्रीविक्रम” लिखा है संभवत: '्रकाशादित्य” उपाधिवाले सिक्के इस पुरगशुप्त के ही हों। नरसिंह- गुप्त के सिक्रों पर उस का बिरुद बालादित्य:' लिखा है। नरसिंहगुप्त बालादित्य के उपरांत उसका पुत्र द्वितीय कुमारगुप्त सिंहासन पर बैठा था। ऐसा अनुमान होता है कि मिटारी की राजमुद्रावाला द्वितीय कुमार गुप्त ओर सारनाथ की बोड्मूर्तिवाला कुमारगुप्त एक ही हैं यदि यह वंशानुक्रम ठीक है तो रकंदगुप्त की सत्यु के अनंतर छः वष तक ही ( ई० स० ४६७ से ४७३ ) पुरग॒ुप्त ओर नरसिंहगुप्त ने राज्य किया होगा। कुमारगुप्त द्वितीय का भी शासन-काल बहुत खल्‍प था--३० स० ४७३- ४७६ ) | दामोदरपुर से मिले हुए कुमारणुप्त द्वितीय के उत्तराधिकारी बुधगुप्त के ताम्रपत्र से प्रकट होता है कि वह भी अपने पूवेजों के समान ही प्रतापशाली था। एरण ( मध्यप्रदेश के सागर ज़िले में ) के शिला- लेख से पता चलता है कि गुप्त संवत्‌ १६५ ( इं० स० ४८४ ) में बुधगुप्त के शासनकाल में महाराज सुरश्मिचंद्र कालिंदी ओर नमेदा नदियों के बीच के प्रदेश का पालन कर रहा था ओर वहाँ माठृविष्णु और उसके छोटे भाई धन्यविष्णु ने विष्णु का ध्वजस्तंभ बनवाया था। एरण के एक दूसरे शिलालेख से ज्ञात होता है कि महाराजाधिराज तोरमाण के राज्य के प्रथम वर्ष में माठ्विष्णु की म्॒त्यु के पश्चात्‌ उसके पूर्वाक्त छोटे भाई धन्यविष्णु ने भगवान्‌ वराह का मंदिर बनवाया था। हम पहले कह चुके हैं कि इ० स० ४८४ में माठ्विष्णु ओर धन्यविष्णु बुधगुप्त के आश्रितों

१४८ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

में थे। किंतु दूसरे एरण के लेख से मालूम होता है कि उसी धन्यविष्णु को अपने जीवन-काल में ही हणों के राजा तोरमाण का सामंत बनना पड़ा इससे अनुमान होता है कि गुप्तराज्य के पश्चिमी प्रांतों पर हणों के हमले फिर होने लगे। बुधगुप्त के सिक्के गुप्त संवत्‌ १८० ( इ० स० ४९५९ ) तक के मिले हैं उसका राज्य बंगाल से मालवा तक फेला हुआ था, किंतु ऐसा मालूम होता है कि उसके अंतिम समय में हूणों- की चढ़ाई गुप्तराज्य के पश्चिमी प्रांतों पर होने लगी थी बुधगुप्त के पश्चात्‌ भामुगुप्त गुप्सिंहासन पर बैठा एरण के एक गुप्त सं० १९१ (ई० स० ५१० ) के शिलालेख से मालूम होता है कि “अजुन के समान वीर परा- क्रमी श्री भानुराप्त के साथ राजा गोपराज वहाँ गया ओर बीरगति को प्राप्त हुआ उसकी पतित्रता ख्री उसके साथ सती हुई ।” इस शिला- लेख से भी यही सूचित होता है कि भारत के पश्चिम प्रदेश गुप्त-सम्राटों के हाथ से निकलकर हूण तोरमाण ओर उसके पुत्र मिहिरकुल के अधीन हो गये परंतु मालवा पर हूणों का अधिकार अधिक काल तक नहीं रहा मिहिरकुल का एक लेख ग्वालियर से मिला है जो उसके राज्य के १५ वें बष का है। बघेलखंड में मकगाँव और खोह से मिले हुए गुप्त संवत्‌ १९१ तथा गुप्त संवत्‌ २०९ ( ई० स० ५१० ओर ५२८ ) के महाराज हस्ती ओर उसके पुत्र संक्षोभ के ताम्रपत्रों में गुप्त नप राज्य भुक्को श्रीमति प्रवर्धभान विजय राज्ये! उल्लिखित मिलता है इस से स्पष्ट सिद्ध है कि ३० स० ५२८ पयत गुप्तबंश का अधिकार मध्य के प्रांतों पर बना रहा। बाण ने हषचरित्र में प्रभाकरवधन के समय तक ( इ० स० ६०० ) मालवा का गुप्त-वंश के अधिकार में होने का उल्लेख किया है पर॑तु इसमें तो संदेह नहीं कि भानुगुप्त के अंतिम समय में हणों के हमलों से गुप्त-साम्राज्य हिल गया था ओर उसका हास शुरू हो गया था। मालव संवत्‌ ५८९ (३० स० ५३२) के मंद्सोर से मिले हुए शिलालेखों में मालवगण के अधिनायक “जनेंद्र” यशोधमा का विजय-बृत्तांत लिखा है। उक्त लेखों का आशय यह है कि “जो देश गुप्तराजाओं बथा हूर्णों के

गुप्त-युग का उत्तराधे १४९

अधिकार में नहीं आये थे उनको भी उसने अपने अधीन किया; लोहित्य (त्रह्मपुत्र) नदी से महेंद्र पब्रेत (पूर्वी घाट) तक और हिमालय से पश्चिमी समुद्रतट तक के स्वामियों को उसने अपना सामंत बनाया, ओर राजा मिहिरकुल ने भी उसके चरणों में सिर कुकाया ?' उक्त लेखों से स्पष्ट प्रकट होता है कि हूणों के आक्रमण से मालव-गण के वीर, विजिगीषु यशोधमा ने भारत की रक्षा की ओर अपने प्रखर प्रताप से गुप्त-बंश को निस्तेज कर दिया छठी शताब्दी के मध्य भाग से गुप्त-बंश का प्रताप- सूर्य धीरे धीरे अस्ताचल की ओर बढ़ने लगा गुप्तवंशियों का राज्य धीरे धीरे संकुचित होने लगा। उनके सामंत स्वतंत्र हो गये | उनके बंशजों का राज्य पालबंश के उदय होने तक मगध देश पर रहा इसा की सातवीं सदी के प्रारंभ होते ही उत्तरी भारत में व्धेनबंश का प्रताप बढ़ा इस वंश के महाप्रतापी राजा हृषेबधेन ने काश्मीर से आसाम तक ओर नेपाल से नमंदा तक के सब देश अपने अधीन कर एक विशाल साम्राज्य स्थापित किया

या भुक्ता गुप्तनाथैनं सकल वसुधा क्रांति दृष्ट प्रतापै नांजझा हृणाधिपानां क्षितिपति मुकुटाध्यासनीयान्‌ प्रविष्टा आलो हिल्योपकंटासलवनगह नो पत्यकादा महेंद्रा दागज्ञाओिष्टसा नोस्तुषह्चिन शिखरिण: पश्चिमादापयोथे: साम॑तेयस्य बाहु द्वविण हृतमदें: पादयोरानमद्धि इ्वूडारत्नांशुराजि व्यत्तिकर शबला भूमिभागाः फ्रिय॑ंते चूड़ा पुष्पोपह्ठारेमिंहिर कुलनृपेणाब्चितं पादयुग्मस्‌

फ्लीट, गुप्तशिलालेख, सं० ३३, ३४, 3५

द्वितीय पारिशिष्ट गुप्तों का वंश-वृक्ष (१) महाराज श्रीगुप्त (२ ) महाराज श्रीघटोत्कच (३) महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्त - कुमार देवी (४) समुद्रगुप्त प्त पराक्रमांक - दत्तदेवी (५ ) चंद्रगुप्त विक्रमादित्य -- धुबदेवी तथा कुबेरनागा प्रभावतीगुप्ता

(६) कुमारगुप्त महेंद्रादित्य + अनंतदेवी गोविन्दगुप्त महेंद्रादित्य +- अनंतदेवी गोविन

धटोत्कचगुप्त (७) लत्यर बवाल" क्रमादित्य"

(९) नरसिंहगुप्त (बालादित्य) (१०) कुमारगुप्त द्वितीय

(११) बुधगुप्त

(१२) भानुगुप्त

७-+-३+--२२२०३००००००कम्कननक+ “+-- नकल े+०»०-> ०७ 4ज+न्यकक

(८) पुरगुप्त |

१सिद्धम्‌। सर्वराजोष्छेत्त: प्रथिष्यामप्रतिरथस्य 'चतुरुदघिसलिलास्वादितय-

शसो धनदुवरुणेंद्रांतक्समस्य कृतांतपरशो: न्‍्यायागतानेकगोहिरण्य कोटिप्रदस्य

चिरोत्सस्ाश्रमेधाहतु महाराज श्रीगुप्तप्रपौश्नस्य महाराज श्रीघटोस्कच पौन्नस्य महा- [ फुटनोट * १५१ पृष्ठ पर देखिये। ]

गुप्तों का वंश-वृक्ष १५१

राजाघिराज श्रीर्चद्रगुप्त पुन्रस्य लिच्छिविदो हिन्रस्य महादेष्यां कुमारदेब्याम॒स्पञ्नस्य महाराजाधिराज श्रीसमुद्रगुप्तस्य पुश्रस्तत्परिगृहीतो महादेव्यां दक्तदेव्यामुस्पन्न: स्वयमग्रतिरथ: परमभागवततो महाराजा घिराजश्रीचंद्रगुप्तस्तस्य पुत्रस्तत्पादाजुध्यातो महादेव्यां धुवदेष्या म॒ुत्पन्न: परमभागवतो महाराजाधिराज श्रीकुमारगुप्तस्तस्य '**' सुतो5यम्‌' '' “*'गुप्तव॑ंशेकवीर:ः प्रथितविपुकधामा नामतः स्कंदगुप्त: फुलीट, गुप्त शिलालेख, सं० १३।

रभिटारी की राजमुद्रा के अनुसार, प्रथम कुमारगुप्त के पश्चात्‌ क्रम से पुर-

गुप्त, नरसिंहगुप्त तथा द्वितीय कुमारगुप्त उत्तराधिकारी हुए थे

ठतीय परिशिए् रामग॒प्त

साहित्यिक जनश्रुतियों के आधार पर कुछ विद्वान यह मानने लगे हैं कि समुद्रग॒प्त के पश्चात्‌ उसका पुत्र रामगुप्त गद्दी पर बैठा, चन्द्रगुप्त द्वितीय नहीं गुप्त-बंशावली में इस नवीन राजा का समावेश करना चाहिये अथवा नहीं-इस प्रश्न के हल करने के लिये तत्संबंधी साहित्यिक प्रमाणों की आलोचना करना आवश्यक है। सातवीं सदी में कविवर बाण ने स्वरचित हष-चरित में लिखा है :--

“अरिपुरे परकलत्रकामुकं॑ कामिनीवेषगुप्रश्वन्द्रगुप्तः शकपति- मशातयत्‌ ।” (उच्छूबास ६)। अर्थात्‌ शत्रु के नगर में परल्ली की कामना करनेवाले शकराजा को, स्त्री के वेष में छिपे हुए चंद्रगुप्त ने मार डाला ।! ह्ष-चरित के टीकाकार शंकराये ने उक्त वाक्य की व्याख्या करते हुए लिखा है :--

इकानामाचार्य: दकाधिपति: चन्द्रगुप्तआतृजायां भुवदेवीं प्राथेयमान:

चन्द्रगुप्तेन शुवदेवीवेषधारिणा स््रीवेषजनपरिक्तेन व्यापादित:

शंकराये की व्याख्यानुसार, शकों का आचाये, चंद्रंगुप्त के भाई की

*श्रीयुत राखालदास बैनर्जी--काशी हिंदू विश्वविद्यालय की नंदी व्या- ख्यानमाला तथा श्रीयुत अ० स० अल्टेकर--जन बिहार एँड उड्ीसा रिसचे सोसाइटी, जि० १४, छए० २२३-३५३

रामगुप्त १५३

स्री भुवदेवी पर आसक्त था ओर भुवदेवी का वेष धारण कर चंद्रगुप्त ने उस शकपति को मार डाला। गुप्तकालीन शिलालेख तथा वैशाली की मुद्रा से पता चलता है कि महाराणी भुवदेवी (धुवखामिनी) महाराजा- धिराज चंद्रगुप्त ठितीय की ख्री ओर कुमारणगुप्त और गोविंदगुप्त की माता थी। परंतु शंकराय के अनुसार धुवदेवी चंद्रगुप्त के भाई की स्त्री थी। इससे अनुमान होता है कि चंद्रगुप्त ने अपने भाई की स्त्री भुव- देवी को शकराजा से छुड़ाकर ओर अपने भाई को मारकर ध्रुवदेवी से विवाह कर लिया हो। इस कथा की पुष्टि राष्ट्रकूट बंश के राजा प्रथम अमोघवणे के संजन ताम्रलेख के नीचे लिखे छोक से होती है।' उसमें एक दानवीर गुप्तवंशी राजा का उल्लेख है, परंतु उसका नाम नहीं है :-- हत्वा आतरमेव राज्यमहरद्वीं दीनस्तथा रलक्ष॑ कोटिमलेखयत्‌ किल कली दाता गुप्तान्वय:

भाई को सार कर, राज्य और देवी को जिसने छीन लिया, जिसने लक्ष माँगने पर करोड़ लिखकर दे दिये, वह दीन गुप्तबंशी कलियुग में बड़ा दानी प्रसिद्ध हो गया ।” उक्त हछोक में यह व्यंग्य है कि भाई को मारकर उसके राज्य ओर ख््री को छीनकर गुप्तवंशी राजा दानवीर प्रसिद्ध हुआ तो क्या हुआ !

मुद्राराक्ञस के प्रणेता विशाखदत्त ने दिवीचंद्रगुप्तम” नामक नाटक इस कथा के आधार पर रचा था। वह नाटक अभी तक संपूर्ण नहीं मिला उस नाटक के कुछ अवतरण प्रोफ़ेसर सिल्वन लेवी ने 'जनेल एशियाटिकः में रामचंद्र और गुणचंद्र के नाव्यदपेण में उद्धृत दिवीचंद्र- गुप्तम” नाटक के अवतरण प्रकाशित किए थे। उन अवतरणों से भी उपयुक्त कथानक की पुष्टि होती है ।* इस नाटक से पता लगता है कि

एपि० हँ० ग्रंथ १८, ए० २४८ शकाब्द्‌ ७९७ २प्रकृतीनाश्रासनाय शकस्य धुवदेवी संग्रदाने अभ्युपगते राज्ञा रामगुप्तेन अरिवधनार्थ यियासु: प्रतिपन्न ध्रुवदेवीनेपथ्य: कुमारचंद्रगुप्तो विज्षपयन्दुच्यते ।! २०

१५४ वद्रयुप्त विक्रमादित्य

रामगुप्त नाम का एक कायर ओर अयोग्य राजा था, उसपर एक ग्रबल शकराजा ने चढ़ाई की रामगुप्त अपनी प्रजा का आश्वासन करने के लिये, अपनी पटराणी भुवदेवी को कामुक शकराजा के पास भेजने को तत्पर हो गया, किंतु शूरवीर ओर साहसी चंद्रगुप्त ने भुवदेवी का वेष धारण कर ख््रीवेषधारी सैनिकों को साथ ले शत्रु की छावनी में जाकर शकराजा को मार डाला

पूर्वाक्त कथानकों को परस्पर मिलाकर पढ़ने से ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त ने अपने भीरु भ्राता रामगुप्त की, शकराजा को मारने के बाद, हत्या की हो और तत्पश्चात्‌ भुवदेवी से अपना विवाह कर लिया हो ।' इस कथानक को हम कितने अंश तक ऐतिहासिक मान सकते हैं इसपर ध्यान देना आवश्यक है। यदि यह कथानक ऐतिहासिक सिद्ध हो तो रामगुप्त का समुद्रग॒ुप्त ओर चंद्रगुप्त द्वितीय के बीच गुप्त-बंशावली में निवेश करना पड़ेगा। पर॑तु इस कथा की तथ्यता स्वीकार करने में अनेक शंकाएँ होती हैं | प्रथम शंका तो यह है कि यदि रामगुप्त समुद्रग॒प्त का उत्तराधिकारी होता तो सरकारी शिलालेखों में जिनमें गुप्त-राजबंश की परंपरा स्पष्ट लिखी रहती है, रामगुप्त का भी निर्देश होता। गुप्त-काल के अनेक शिलालेख मिलते हैं | उनमें कुछ राजा के ओर कुछ प्रजा के हैं दोनों प्रकार के शिलालेखों में जहाँ जहाँ गुप्तों की राजवंश-पर॑परा वर्णित है, एक-सा ही क्रम देखने में आता है ओर उनमें रामगुप्त के उल्लेख करने का कोई कारण समभ में नहीं आता। शिलालेखों में गुप्त-नरेशों की वंशावलियाँ उनके भिन्न भिन्न बिरुदों समेत यथाक्रम लिखी गई हैं। उनमें कहीं तो रामगुप्त का उल्लेख होना चाहिये था। उन्हीं शिलालेखों में रपष्ट लिखा है कि समुद्रग॒ुप्तद्वारा चंद्रगुप्त राज्य का उत्तराधिकारी चुना गया था ।' गुप्त-कुल की यह पर्रपरागत रीति थी

हत्वा आत्तरमेव राज्यमहरददवीं दीनस्तथा ।---संजन ताम्नलेख, एपि हँ * फ्लीट--मथुरा का शिलालेख--सं० ४, स्फंदगुप्त का बिहार का शिला-

रामगुप्त २७५५

कि राजा अपने शासन-काल में ही अपना योग्यतम उत्तराधिकारी चुन लिया करता था। प्रयाग की प्रशस्ति में समुद्रगुप्त का इसी प्रकार से उत्तराधिकारी बनाये जाने का उल्लेख है। उसने चंद्रगुप्त द्वितीय को अपना उत्तराधिकारी माना था--तत्परिग्रहीत:” | चं॑द्रगुप्त का उत्तरा- धिकारी कुमारगुप्त चुना गया। अतएव, शिलालेखों में उसके नाम के साथ “तत्पादानुध्यात:---उसके चरणों का ध्यान करनेवाला--ऐसा विशेषण जोड़ा गया। ऐसा ही विशेषण स्कंदगुप्त के नाम के साथ मिलता है ।' गुप्त-वंशावली के लेखक उक्त विशेषणों का विशेषरूप से प्रयोग कर यह सूचित करते हैं कि गुप्तवंश में राज्य-परंपरा पूर्वोक्त क्रमा- नुसार थी। अतएव, यह निर्विवाद सिद्ध है कि रामगुप्त गुप्तवंश के राजसिंहासन पर बैठा था गुप्तकालीन सिकों से भी रामगुप्त का पता नहीं लगता प्रायः सभी गुप्त-राजाओं ने तरह तरह के सिक्के चलाये थे जो हमें पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हुए हैं | यदि रामगुप्त गुप्त-सम्राद होता तो जैसे अधिक बा स्ल्प काल तक शासन करनेवाले अन्य गुप्त- राजाओं के सिक्के मिलते हैं वैसे ही उसके भी सिक्के मिलते। किसी भी गुप्तकालीन मुहरों पर उसका नाम नहीं मिलता है तत्कालीन किसी भी ऐतिहासिक लेख वा प्रमाण से रामगुप्त का गुप्तसम्राट होना सिद्ध नहीं होता परवर्ती काल की कपोलकल्पित कथाओं के आधार पर इतिहास का निर्माण करना विद्वानों की दृष्टि में अत्यंत उपहासास्पद है।

लेख--सं० १२। भिटारी का स्तंभलेख--“महाराजाधिराज श्री समुद्रगुप्तस्य पुत्रस्तत्परिगृहीतो महाराजाधिराज श्रीच॑द्रगुप्त: *' **' है

फ्लीट---सं० १२,--पितृपरिगतपादपकश्मवर्ती! भिठारी स्त॑भलेख, सं० १३।

चतुर्थ परिशिष्ट गुप्त-संवत्‌

भारतीय पुरातत्व संबंधी गवेषणा के इतिहास में विद्वानों को अमुक राजा वा राजवंश के काल-निरणुय में अत्यंत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था। इतिहास का निर्माण सुनिश्चित तिथि-क्रम के आधार पर ही हो सकता है, अन्यथा नहीं। कब, कहाँ, कैसे, क्‍यों आदि प्रश्न इतिहास के परिशीलन में प्रायः पूछे जाते हें, किंतु जब हम किसी जाति के बहुत प्राचीन इतिहास की खोज करना शुरू करते हैं तब इनमें से दो ही प्रभ--- कब ओर कहाँ--ऐतिहासिक घटनाओं के संबंध में हैरान कर डालते हैं। भारतीय पुरातत्व की खोज में पहले इन दो ग्रभों के हल करने में विद्वानों ने चिरकाल तक बड़ा ही श्लाध्य परिश्रम किया है। उस श्रम का यह ' परिणाम है कि आज हम प्राचीन भारत का बहत्‌ इतिहास लिख सकते हैं। भारत के भिन्न भिन्न आ्ांतों में पूज काल में अनेक संबत्‌ प्रचलित हुए थे जिन्हें विभिन्न समयों पर जुदे जुदे राजाओं ने स्थापित किए थे। इन का परस्पर संबंध ज्ञात होने से भारत का तिथि-क्रम-युक्त ऋंखलावद्ध इतिहास का संकलन करना असंभव हो गया था किंतु धन्य है उन विद्वानों के श्रम को, जिस के कारण हम अब प्राचीन भारत के तिथि-क्रम युक्त इतिहास की पोथी लिख सकते हैं

यूनान के बादशाह सिकंदर का पंजाब पर आक्रमण का समय इ० स० पूव ३२६ भारत के प्राचीन इतिहास की प्रथम सुनिश्चित तिथि मानी गईठे हे ( 7४6 छो९2+-ध॥९८४ृघ07 07 77087 (7४०७०70029 ) इस घटना के थोड़े ही दिनों बाद नंद-बंश का नाश और मोय॑-बंश का उंदृय

गुप्त-संवत्‌ १५७

होता है। इस नये वंश का संस्थापक चंद्रगुप्त मोये था जिसका यूनान के इतिहासकारों ने 'सेंडोकोट्टोस” नाम से उल्लेख किया है ओर जिसे सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस का समकालीन बतलाया है। चंद्रगुप्त मोये ओर 'सेंडोकोट्टोस” एक ही हैं यह महत्त्वपूर्ण गवेषणा, संस्क्ृत के विद्वान्‌ ओर (पुरातत्वान्वेषण के लिये बंगाल की एशियाटिक सोसाइटी के संस्था- पक ) सर विलियम जोन्स ने की थी। इस से मोयराज-बंश का प्रारंभ- काल निश्चित हो गया तद्नंतर, शिलालेखों से पता लगा कि ज्ञात समय के एंटियोकस आदि पाश्चात्य यबनराजा चंद्रगुप्त मौये के पौत्र अशोक के समकालीन थे

उक्त प्रमाणानुसार मौर्य-वंश का तिथि-क्रम ठीक ठीक निश्चित हो गया ओर इसके साथ साथ पुराणों में वर्णित राजवंशों का काल-क्रम भी विश्वसनीय सिद्ध हुआ चंद्रगुप्त मौये से लेकर आंध्रवंश तक का (ई० स० पूब ३२५ से ई० स० २५० के लगभग ) भारत का झंखलाबद्ध इतिहास हमें उपलब्ध हो गया। ईसा के चोथे शतक से छठे तक हमारे - इतिहास की घटनाएँ कालक्रमानुसार निबद्ध करने में विद्वनों को अत्यंत कठिनाइयाँ उठानी पड़ीं। कितने ही शिलालेखों में 'गुप्तकाल”, ओर गुप्त- वंश की राज-परंपरा का स्पष्ट उल्लेख विद्वानों को मिला अतएव, गुप्त- काल की प्रारंभिक तिथि को निधारित करना आवश्यक हुआ। यह संवत्‌ गुप्तवंशी किस राजा ने चलाया--इस विषय का लिखित प्रमाण अब तक नहीं मिला परंतु समुद्रगुप्त की प्रयाग की प्रशस्ति में प्रथम चंद्रगुप्त का बिरुद 'महाराजाधिराज” लिखा रहने तथा उसके पौत्र और समुद्र- गुप्त के पुत्र द्वितीय चंद्रगुप्त के समय के गुप्त संवत्‌ ८२ से ९३ तक के शिलालेखों के मिलने से विद्वानों का यह अनुमान है कि गुप्तबंश में पहले पहल प्रथम चंद्रगुप्त ही प्रतापी राजा हुआ ओर उस के राज्यारोहण- काल से यह संबत्‌ चला दादा ओर पोतन्र के बीच तीन पूरी पीढ़ियों में ९३ वष का अंतर युक्ति-संगत मालूम होता है। गढ़वा (ज़िला इलाहा- बाद) से मिले हुए लेख में “श्रीचंद्रगुप्त राज्य संबत्सरे ८८" ओर कुमारगुप्त

१५८ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

के समय के लेख में 'श्रीकुमारगुप्तस्य अभिवधेमान विजय राज्य संवत्सरे परणवते” अर्थात्‌ ९६ लिखा है। इस से अनुमान होता है कि प्रथम चंद्र- गुप्त के ही प्रचलित किये हुए राज्य-संबत्‌ का प्रयोग उसके उत्तराधि- कारी वंशधर करते रहे, जो आगे चलकर गुप्त-संवत्‌ के नाम से प्रथित हो गया। यह संवत्‌ लगभग ६०० ब्ष तक प्रचलित रहा ओर गुप्तवंश के नष्ट हो जाने पर भी काठियावाड़ में वल्लभी-संवत्‌ के नाम से प्रसिद्ध हुआ विंसेंट स्मिथ का मत है कि प्रथम चंद्रगुप्त ने विजयद्वारा ग्रतिष्ठा पा लेने पर गुप्त-संवत्‌ चलाया था, परंतु डाक्टर फ़्लीट और जोन एलन के मतानुसार गुप्त-संवत्‌ अन्य संवतों की भाँति, राज्य-वर्षो में गणना की परिपाटी से बराबर उसके प्रयोग होते रहने पर क्रम से प्रचलित हो गया। अतएब, गुप्त-संवत्‌ को प्रथम चंद्रगुप्त के राज्यारोहण के समय से प्रारंभ हुआ मानना चाहिये, कि उसके महाराजाधिराज बनने के अभिषेक के समय से | हष का संबत्‌ भी उसके राज्यारोहण की तिथि (इ० स० ६०६ ) से गिना जाता था, कि उस के राज्याभिषेक की तिथि से ।*

डाक्टर फ़्लीट ने गुप्त-संबत्‌ का प्रारंभ दिवस हे० स० ३२० की २६ फ़रवरी निर्धारित किया था। उनकी इस महत्त्वपूर्ण गवेषणा से भारत के इतिहास के परमप्रतापशाली गुप्तवंश का तिथधि-क्रम सुनिश्चित हो गया अलबेरुनी ने लिखा है कि गुप्त-संवत्‌ शक संवत्‌ से २४१ वर्ष बाद प्रारंभ हुआ था। गुप्तों के पीछे काठियावाड़ में वल्लभी के राज्य का उदय हुआ जिसके अस्त होने के पीछे वहाँवालों ने गुप्त-संवत्‌ का ही नाम वल्लभी-संवत्‌ रक्खा | इस वल्लभी-संवत्‌ को भी अलबेरुनी शक संबत्‌ के २७४१ वर्ष पीछे शुरू हुआ मानता है गुप्तकांल के विषय में उसका कथन है कि गुप्त लोग दुष्ट ओर पराक्रमी थे ओर उनके नष्ट होने

जोन एलन--गुप्त-मुदाओं का सूचीपन्न, प्रस्तावना, एछ २० फूलीट गु० ६०; भुमिका पृष्ठ ३०,३१

गुप्त-संवत्‌ १५५९

पर भी लोग उनका संबत लिखते रहे | अनुमान होता है कि वल्लभ उन गुप्तों में से अंतिम था, क्‍योंकि वल्लभी संवत्‌ की नाई गुप्त-संबत्‌ का प्रारंसय भी शककाल से २४१ पीछे होता है। “गुजरात के चोलुक्य अजुनदेव के समय के वेराबल (काठियावाड़) के एक शिलालेख में रसूल महम्मद्‌ संवत्‌ (हिजरी सन) ६६२, विक्रम संवत्‌ १३२०, वल्लभी-संवत्‌ ९४५ ओर सिंह-संबत्‌ १५१ लिखा है। इस लेख के अनुसार विक्रम संवत्‌ ओर वल्लभी गुप्त-संवत्‌ के बीच का अंतर (१३२०--९४५)-३७५ आता है, परंतु यह लेख काठियावाड़ का होने के कारण इसका विक्रम- संवत्‌ १३२० कार्तिकादि है जो चैत्रादि १३२१ होता है. जिससे चैत्रादि विक्रम-संवत्‌ और गुप्त (बल्लभी )>-संवत्‌ का अंतर ३७६ आता है।”' अर्थात्‌ गुप्त संबत्‌ में ३७६ मिलाने से चैत्रादि विक्रम-संबत्‌ , २७१ मिलाने से शक-संबत्‌ ओर ३१९-२० मिलाने से इ० स० आता है। ई० स० १८८७ में, डाक्टर फ़लीट की पूर्वोक्त महत्त्वपूर्ण गवेषणा के प्रकाशित होने के उपरांत गुप्त-संबत्‌ के विषय में विद्वानों में बराबर वाद-विवाद चलता रहा, किंतु जब फ्रांस के विद्वान एम० सिल्वन लेवी (7४. 89ए७४ं॥ ,6एं ) ने चीनी ग्रंथों के आधार पर समुद्रगुप्त को सिंहल ( लंका ) के राजा मेघवर्ण का समकालीन सिद्ध किया जो वहाँ इ० स० ३५२ से ३७९ तक शासन करता था, तब विद्वानों ने डाक्टर फ्रल्लीटद्वारा स्थापित गुप्त-बंश के प्रारंभ-काल को प्रामारिक स्वीकार किया ।*

श्रीयुत के० बी० पाठक ने जैनप्रंथों ओर बुधगुप्त के लेखों के आधार पर गुप्तकाल ओर शक-संबत्‌ का अंतर २४१ वष का सिद्ध किया है! * अतएव, गुप्त-संवत्‌ का प्रारंभ इई० स० ३१९-२० में हुआ यह अब निवि- वाद सिद्ध माना जाता है

गौ० ही० प्राचीन लिपिमाला--प्ृष्ठ १७५ | ए० ईं० जिलद ११, एछ २४२। विंसेंट स्मिथ---प्राचीन भारत का इतिहास, ए० २१ ३७४० ऐएँ० १९१७--४० २०२,२९३ (भंडारकरस्मारक ग्रंथ )

पञ्मुम परिशिए गुप्तवुग का तिथिक्रम

जिनान घटना टिप्पणी

महाराजगुप्त का राज्य-

आस पास | का

२५० के निकट | महाराज घटोस्कच का समय

३०८ के | भथम चंद्रगुप्त का लिच्छिवि-

छगभग | कुछ में कुमारदेवी से पिवाह'

गुप्त संचत्‌ का ३२० प्रथम चंद्रगुप्त का राज्या-

प्रथम चर्षे रोहण ५, ३२८-३२५ | समुव्रगुप्त का राज्याभिषेक ३३६०-३६ के | जायावत की विजय-यात्रा क्‌ट ३४७-५० के | देक्षिणापथ की विजय-यात्रा लगभग ३७० के | अश्वमेघ-यश आस पास

३६० के | सिंह के राजा मेघवण्ण के आस पास | राजदूत का समुद्रगुप् की सभा में उपस्थित होना

गुप्तयुग का तिथिक्रम १६१

गुप्त संघत्‌ | ई० सन्‌ ऐलिहासिक घटना टिप्पणी

३८० के | द्वितीय चंद्रगुत्त का राज्या- आसपास [ दंभ ३९५ के समीप | पश्चिम भारत की विजय «२ ४०१ उदच्यगिरि का शिलालेख ४०७५-४१ | गुप्तसाम्राज्य में फ़ाहियान की यात्रा ८८ ३०७ गढ़वा का शिलालेख ९० ४०५९ पश्चिम भारत में प्रचलित शैली के चाँदी के सिक्कों का प्रचार ९४ ४३१२ साँची का शिरालेसख ९४ ४१४७ के छगभग कुमा रगुप्त महेंद्रादित्य (+म) का राज्यारंभ ३१७ बिलसर का शिकालेख ४१७ गढ़वा का शिलाछेख

११७ ४३५६ मंदसोर का शिलालेख मालव सख॑वत्‌ ४९३ सूर्य-मंदिरि का निमाण १3२१३, ४४०, ४४३, चाँदी के सिक्‍कों पर ३२४, ३२८ ४४७ | उत्की्ण तिथियाँ १२५९ ३४८ चाँदी के सिक्के ११ कर मनकुवार का विलालेख | बुधमिन्रद्दारा बुद्ध- प्रतिमा की स्थापना १! ११ हुण जाति का ऑकक्‍्सस नदी के तटस्थ प्रांतों पर अधिकार

|

१६२ चंदयगुप्त विक्रमादित्य

रू संवत्‌ | ६० सन्‌ ऐतिहासिक घटना टिप्पणी

१३० ४४९ चाँदी के सिक्‍के

४५० के | पुध्यमित्रों से युढ

आस पास ४५७, ४५५ | चाँदी के सिक्‍के १३६ १३६ ४ण"०ण | स्कंदगुप्त का हुणों से युद्ध १३६७ | ४५६ | गिरनार में सुदर्शन झील

के बांध का जीणोडार

१३८ ४७७ वहाँ विष्ण-मंदिर की

स्थापना १४३१ | ४६०. | कहोस (ज़िला गोरखपुर) * का शिलालेख १४४,| ४६३, ४६४ | चाँदी के सिक्के १४५७ १४६ | ४६५. | इंदौर का शिलालेख (ज़ि० बुल॑दशहर) १४८ ४६७ चॉदी के सिक्‍के उछ्ज्स पुरगुप्त और नरसिंह- गुप्त का राज्य-काछ कदाधित्‌ ४७६७ और ४७३ के बीच रहा हगुप्त खालादित्य होगा। १५७४ ४७३ कुमारगुप्त द्वितीय 'वर्चशते गुप्तानाँ स- चतु: पंचाशहदुत्तरे भूमि शासति

कुमा रगुप्ते'-सारनाथ का शिलालेख

५९००, ५०२

शुप्तयुग-का तिथिक्रम ऐतिहासिक घटना दशपुर (मालवा) में सू्य-

मंदिर का संस्कार बुधगप्त

एरण (ज़िलछा सागर, मध्य- प्रदेश) का शिलालेख

परमदेवत महा राजाधिराज श्री बुध-

परम भट्टारक

गुप्त का पुंडवधन-भुक्ति (उत्तर बंगाछ) पर अधि- कार

बुधगुप्त के मयूरांकित चाँदी के सिक्के (संवत्‌ समेत)

हुण तोरमाण का मालवा पर अधिकार

भाजुगुप्त का एरण में युद्ध दामोद्रपुर (बंगाल) का पाँचवाँ ताम्रपतन्र

१२६ टिप्पणी मालव संवत्‌ ५२५

गुप्तानां समतिक्रांते सप्तपंचाशदुत्तरे। शते समाना पथिवीं शुध- गुप्ते प्रशासति (सारनाथ)

शते पंचषच्ठयथिके वर्षोणां भूपती बुधगुप्ते कालिंदी नमे- दयोगंध्यं पालयति सुरश्मिचंद्रे

दामोदरपुर के ताम्र- पश्र---एपि ०६ ०जि० १५, पृष्ठ १३४-१ ४१

विजितावनिर वनि- पतिः श्री बुधगुप्तो दिव॑ जयति---एलून, गु० मुद्रा-2० १७३

१६४ आद्टगुप्त विक्रमादित्य

गुप्त संचत्‌ू | ई० सन्‌ देसिहासिफ घटना टिप्पणी

७५०२, ५४४ मिहिर्कुछ जो ५२८ के लगभग| यशोध मे का मिहिरकुछ | * “चूढ़ा पुष्पोपहार मि- को पराजित करना हिरकुलनपेणा चित॑ पा-

दयुग्सम्‌!--पूलीट, बगु० बि० स॑० डे ५६२ मंद्सोर का यशोध का स्त॑ भलेख अथ स्लेच्छगणा कीणें मंडले चंडवेशितः।

* तस्यात्मजो5भून्मिदिरकुलः काझापमः नृप: ॥--राजतरंगिणी १।

छटठा परिशिष

[ ९१ | प्रयाग के स्तंभ पर समुद्रगुप्त की विजय-प्रशस्ति

यः कुल्यें: स्‍्वे**** -* *-***--“आतस*- “****““यर्य ( १) है. मर 8 7 मा पुंव ( | हे ****** ०» श्रु'*' "'स्फारदह ( ॥५ ) **००»*कभ्षः स्फुटोद्ध्वव॑सित ००० ००० ०००५ प्रवितत *** ००० ७००६ ००० ००० ००० ०७०० ००० ००० ०७०७० ००० ००० ००७० ०७० *००॥] २॥। यस्य प्रज्ञानुबंगोचित सुखमनस: शास्त्तस्वार्थभतु: [-- --] छब्बो [--- ]नि[7* ““--] नोच्छि [------]। सत्काव्य श्री विरोधान शुधगुणितगुणाज्ञाहतानेव कृत्वा विदछ्लोके वि [ --- -- ] स्फुटघहुकविता कीतिराज्य॑ भुनक्ति ॥३॥

आरययों हीतव्युपगुद्य भावपिशुनेरुत्कणिते रोमभिः सम्येषृच्छवसितेषु तुल्यकुलजम्लानाननोद्ीक्षित: स्नेहब्यालुलितेन थाष्पगुरुणा तस्वेक्षिणा चक्षुषा यः पिन्नाभिष्ठितो निरीक्षनिखिलाम पाष्मेमुव्वीमिति ४॥ दृष्ठा कस्मोंण्यनेकान्यमलुज सदशान्यरुतो द्धिन्नहषों भावेरास्वादय [-- | -- -- --- -- ] केचित्‌ वीर्य्योत्तप्ताश्व केचिच्छरणमुपगता यस्यवृत्ते प्रणामे प्या्ते (१) [२ --+-++- भा “५ +++ “-- ]॥५॥

१६६ चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

संप्रामेषु स्वभुजविजिता नित्यमुचष्छापकारा: श्र: इवो मानप्र [ --“+- “- “- “--- ]। तोषोक्त॑गै: स्फुट बहुरस स्नेह फुछेम॑नोभि: पश्चाक्ताप [ ___ -- -- ] मम्‌ (१ ) सथा हस ( १) क्तम ॥६॥ (१) जो ''' “अपने कुल वालों से'** “* “जिस का (२) जिस का (३) जिस ने 9:७० रे अपने धनुष्टंकार से २०४ ७०४ छिन्नि भिन्न किया''' (४-०) जिस का मन विद्वानों के सत्संग-सुख का व्यसनी था, जो शास्त्र के तत्वाथे का समर्थन करने वाला था; ““*““*“* ““'सुरढ़ता से स्थित

(६) “““*““जो सत्कविता ओर लक्ष्मी के विरोधों को विद्वानों के गुरणित गुणों की आज्ञा से दबा कर ( अब भी ) बहुतेरी स्फुट कविता से ( मिले हुए ) कीर्ति-राज्य को भोग रहा है

(७-८) जिस को उस के समान कुलवाले ( इष्यां से ) म्लान मुखों से देखते थे, जिस के सभासदू हष से उच्छुवसित हो रहे थे, जिस के पिता ने उस को रोमांचित होकर यह कहकर गले लगाया कि तुम सचमुच आये हो, ओर अपने चित्त का भाव प्रकट करके स्नेह से चारों ओर घूमती हुईं, आँसुओं से भरी, तत्व के पहचानने वाली दृष्टि से देख कर कहा कि इस अखिल प्रथ्वी का इस प्रकार पालन करो।

(९) जिस के अनेक अमानुष कर्मो' को देख कर''****'** “कुछ लोग अत्यंत चाव से आस्वादन कर अत्यंत सुख से प्रफुल्लित होते थे

(१०) ओर कुछ लोग उस के प्रताप से संतप्त होकर उस की शरण में आकर उस को प्रणाम करते थे'''*** *** '** ;

(११) ओर अपकार करने वाले जिस से संग्रामों में सदा विजित होते थे नस कर को शंकर “|

प्रयाग के स्तंभ पर समुद्रमृप्त की विजय-प्रशास्ति १६७

(१२) आनंद से फूले हुए ओर बहुत से रस ओर स्नेह के साथ उत्फुल्लमन से “* “'पश्चात्ताप करते हुए '' “वसंत में

उद्देलोदितबाहुवीय्यरभसादेकेन येन क्षणा---

दुन्‍्मुल्या च्युततागसेन [ __ --- “+ ++ _ +-+ -+ “--]

दंडंग्राहयतैव कोटकुलजम्पुष्पाहये फ्रीडता

सूय्यंत [ . -- -- ] तद [_ -- -+ +- धम्म प्राचीरबंध: शशिकरशुचयः कीत्तय: सप्रताना वेदुष्य॑ तत्त्वमेदिप्रशम [_ ] डकु [--] यक [_]स[?]4

[-- ] तार्थम्‌

अध्येय: सृक्तमाग: कविमतिविभवोत्सारणं चापि काव्यम्‌

कोज्ु स्थाथो5्स्य स्थाद्‌ गुणमतिविदुषां ध्यानपान्रमू एकः ॥८॥ तस्य विविधसमरशतावतारण दक्षस्य स्वशुजबलपराक्रम कब॑धो; पराक्रमाकस्य

परशुशरशंकु. शक्तिप्रासासितोमरमिंद्पालनाराचरवेतस्तिकाद्यनेकप्रहरणविरुढ़ा-

जि

ज+ ++ +- ] ॥ण॥।

कुलब्रणशतांकशो भासमुद्योपचितकाततरवष्मण: कौशलकमहेंद्रमाहा कांतरकव्याप्र- राज कौरालकमंटराजपैश्पुरकमहेंद्र. गिरिकौद्दुरकस्वामिदत्तरं डपछकद्मन कांचेयकविष्णगोपा वमुक्तकनीलराज वेंगेयकहस्तिवम्मे पाछक्षकोग्रसेन दैवराष्ट्रक- कुबेर कौस्थलपुरकधनंजयप्रन्गुति स्व दक्षिणापथराजग्रहणमोक्षानुअह् जनित प्रतापोन्मिश्रमहाभाग्यस्थ रुद्देव मतिलनागदत्त्च॑द्र वम्संगणपतिनाग नागसेना च्युतनंदिबल वम्माचनेकाय्योवस्रेराजप्रसभोद्धा रणोद्बृत्तप्रभावमहतः परिचा- रकीकृत सर्वोटविकराजस्य समतटड्वाक कामरूपनेपाल कतृपुरादि भ्रत्यंत तृपति-

(१३) जिस ने सीमा से बढ़े हुए अपने अकेले ही बाहुबल से अच्युत ओर नागसेन को क्षण में जड़ से उखाड़ दिया''**'

(१४) जिस ने कोटकुल में जो उत्पन्न हुआ था उस को अपनी सेना से पकड़वा लिया और पुष्प नाम के नगर को खेल में स्वाधीन कर लिया, जब कि सूय “०-० तट''' ***

१६८ चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

(१०) ( जिस के विषय में यह कहा जाता है ) धर्म के बाँधे हुए परकोटे के समान, जिस की कीर्ति चंद्रमा के किरणों की तरह निमेल ओर चारों ओर छिटक रही थी, जिस की विद्वत्ता शास्त्र के तत्त्त तक को पहुँच जाती थी, और'''**;

(१६) जिसने सूक्तों ( वेदमंत्रों ) का माग अपना अध्येय बना लिया था ओर उसकी ऐसी कविता थी जो कवियों की मति के विभव का उत्सारण ( प्रकाश ) करती थी।'*' “ऐसा कौन गुण था जो उसमें था; गुण और प्रतिभा के समभने वाले विद्वानों का वह अकेला ध्यानपात्र था।

(१७-१८) विविध सैकड़ों समरों में उतरने में दक्ष, अपने भुजबल का परा- क्रम ही जिसका अकेला साथी था, जो"“'पराक्रम के लिये विख्यात था, ओर जिसका फरसे, बाण, शंकु, शक्ति, प्रास, तलवार, तोमर, भिंदिपाल, नाराच, वैतस्तिक आदि शमस्नों के सैकड़ों घावों से सुशो- भित ओर अतिशय सुंदर शरीर था।

(१९-२०) और जिसका महाभाग्य, कोसल के राजा महेंद्र, महाकांतार के व्याघराज, कौराल के मंत्रराज, पिष्टपुर के महेंद्र, गिरिकोट्ट्र के स्वामिदत्त, एरंडपन्न के दमन, कांची के विष्णुगोप, अवमुक्त के नीलराज, वेंगी के हस्तिवर्मा, पालक के उम्रसेन, देवराष्ट्र के कुबेर ओर कुस्थलपुर के धनंजय आदि सारे दृक्षिणापथ के राजाओं के पकड़ने ओर फिर उन्हें मुक्त करने के अनुग्रह से उत्पन्न हुए प्रताप के साथ मिला हुआ था

(२१) और जिसने रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चंद्रवर्मा, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नंदी, बलवमा आदि आरयावत के अनेक राजाओं को बलपूबंक नष्ट कर अपना प्रभाव बढ़ाया और सारे जंगल के राजाओं को अपना चाकर बनाया।

(२२) जिसका प्रचंड शासन, समतट, डवाक, कामरूप, नेपाल, कतंपुर आदि सीमांत प्रदेशों के राजा ओर मालव, अजुनायन, योधेय, माद्रक

प्रयाग के स्तंभ पर समुद्रगुप्त की विजय-प्रशास्ति १६५९

भिर्माछवाजुनायन यौधेयमाद्रकाभीर प्राजुनसनकानीक काक खरपरिकादिसिक्ष स्वकरदानाज्ञाकरणप्रणामागमन परितोषितप्रधंडशासनस्यानेकअष्ट राज्योत्सस्न- राजव॑शप्रतिष्ठापनोद्‌ू भूत निखिलभुवनविचरण शॉतयशस: देवपुश्रक्षाहिशाहालु- शाहीशक मुरुंडे: सेंहलकादिभिश्र सर्वेद्वीपवासिभिरात्मनिवेदुन कन्योपायनदान गरुस्मदुकस्वविषय भुक्तिशासनयाचनाशुपाय सेवा कृतबाहुवीय्यप्रसरणधरणिबं-- धस्य प्रथिव्याम प्रतिरथस्य सुचरितशतालंकृतानेकगुण गणोत्सिक्तिभिश्वरणतलप्रसम- ष्टान्यनरपतिकीकतें: साध्वसाधूदयप्रल्यहेतु पुरुषस्याचित्यस्थ भकक्‍त्यवनतिमाश्र- ग्राह्मरूदुह्ददयस्यानु कम्पावतो 3नेकगोशतसह स्तमदायि न: कृपणदी ना नाथातुरजनोर- रणमंत्रदीक्षाद्यगगत मनसः समिद्धस्य विग्नहवतो छोकालुगहस्य धनदवरुणेंद्रांत- कसमस्य स्वभुजबलविजितानेकनरपतिविभवश्रध्यपंणा निष्यब्यापत्तायुक्तपुरुषस्य निशितविदग्धमतिगांधवलछितेवीडित श्रिद्शपति गुरुतुस्खुरु नारदादेविद्ृजनोप- जीव्यानेककाव्यक्रियाभि: प्रतिष्ठितकविराजशब्दर्य सुच्िरस्तोतव्यानेकादभु- तोदार चरितस्य लोकसमयक्रियानुविधानमाश्रमाजुषस्य लोकधाज्नो देवस्य महाराज श्रीगुप्तप्र पौन्नस्य महाराजश्रीघटोत्कचपौश्रस्यमहाराजाधिराज श्रीद॑द्र गुप्तपुश्रस्य लिच्छविदौहित्नस्य महादेव्याम्‌ कुमा रदेव्यामुत्पन्नस्थ महाराजाधिराज श्रीसमुद्र - गुप्तस्य सब्बंप्ृथ्वी विजयजनितोद्यध्याप्तनिखिकावनितला कीतिंमितस्निदशपत्ति भवनगमनावाप्त॒ ऊूलितसुखविचरणामाचक्षाण हव भुवों बाहुसयमुच्छितः स्तम्भ; यस्य

(२३-२०) आभीर, प्राजेन, सनकानीक, काक, खपरिक आदि सब जातियाँ, सब प्रकार के कर देकर, आज्ञा मान कर ओर प्रणाम करने के लिये आकर, पूरा करते थे, जिसका शांत यश, युद्ध में भ्रष्ट राज्य से निकाले हुए अनेक राजवंशों को फिर प्रतिष्ठित करने से भुवन में फैला हुआ था, ओर जिसको दैवपुत्र शाहि शाह्ानुशाहि शक, मरुंड, सेंहलक आदि सारे द्वीपों के निवासी आत्मनिवेदन किये हुए थे, अपनी कन्याएँ भेट में देते थे, अपने विषय-भुक्ति के शासन के लिये गरुड़ की राजमुद्रा से अंकित फरमान माँगते थे। इस प्रकार की सेवाओं से जिसने अपने बाहुबल के प्रताप से समस्त प्रथ्वी

हक

१७० चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

को बाँध दिया था, जिसका प्रथ्वी में कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था जिसने सेकड़ों सचरितों से अलंकृत, अपने अनेक गुणगणों के उद्रेक से अन्य राजाओं की कीर्तियों को अपने चरणतल से मिटा दिया था, जो अचिंत्य पुरुष की भाँति साधु के उदय ओर असाधु के प्रलय का कारण था, जिस का कोमल हृदय भक्ति ओर प्रणतिमात्र से वश होजाता था, जिस ने लाखों गोएँ दान की थीं,

(२६) जिस का मन क्पण, दीन, अनाथ, आतुर जनों के उद्धार ओर दीक्षा आदि में लगा रहता था, जो लोक के अनुग्रह का साक्षात्‌ जाज्वल्यमान स्वरूप था, जो कुबेर, वरुण, इंद्र और यम के समान था, जिस के सेवक अपने भुजबल से जीते हुए राजाओं के विभव को वापिस देने में लगे हुए थे

(२७) जिसने अपनी तीच्रण और विदग्ध बुद्धि ओर संगीत-कला के ज्ञान ओर प्रयोग से इंद्र के गुरु काश्यप, तुंबुरु, नारद आदि को लज्ित किया था, जिसने विद्वानों को जीविका देनेयोग्य अनेक काव्य कृतियों से अपना कविराज-पद प्रतिष्ठित किया था, जिसके अनेक अद्भुत, उदार चरित्र चिरकाल तक स्तुति करने के योग्य थे।

(२८) जो लोकनियमों के अनुष्ठान ओर पालन करने भर के लिये ही मनुष्य-रूप था, किंतु लोक में रहने वाला देवता ही था जो महा- राज श्रीगुप्त का भ्रपोत्र, महाराज श्रीघटोत्कच का पोन्च ओर महा- राजाधिराज श्रीचंद्रगुप्त का पुत्र था।

(२९) जो लिच्छिवि-कुल का दौहित्र था, महादेवी कुमारदेवी से उत्पन्न था उस महाराजाधिराज समुद्रगुप्त की सारी प्रथ्वी के विजय-जनित अभ्युद्य से संसार भर में व्याप्त तथा यहाँ से इंद्र के भवनों तक पहुँचने में ललित और सुखमय गति रखनेवाली कीर्ति बतलानेवाला

प्रदानभुजविक्रमप्रशमशास्र॒वाक्योदये-- रूपय्येपरिसंचयोस्छितमनेकमार्गयश:

समुद्रगुप्त का एएरण का शिवालेख १७९१

पुनाति भुवनन्नय॑ पछुपतेजांतगैद्ा-- निरोध परिमोक्ष शीघ्रमिव पांडु गाइझ पयः एतच काव्यमेषामेव भद्टारकपादानां दासस्थ समीप परिसप्पंणानुग्रहोन्मी- लितमेत: खाद्यटप्पकिकस्य महादंडनायकधुवभूतिपुशत्रस्थ सांधिविग्नहिक कुमारा- मात्य महादंडनायक हरिषेणस्थ सवभूतहित सुखायास्तु अजुष्ठितंच परमभट्टा- रकपादानुध्यातेन महादंडनायकतिल भट्टकेन

प्रथ्वी की बाहु के समान यह ऊँचा स्तंभ है।

(३०) जिसका यश उसके दान, भुजविक्रम, प्रज्ञा ओर शाख्र-वाक्य के उदय से ऊपर ऊपर अनेक माग से बढ़ता हुआ

(३१) तीनों भुवनों को पवित्र करता है। पशुपति (महादेव) की जटाजूट की अंतगहा में रूक कर निकलने से वेग से बहते हुए गंगा जल की भाँति,

(३२-३३४७) यह काव्य उन्हीं स्वामी के चरणों के दास के, जिनके समीप रहने के अनुगह से जिसकी मति उनन्‍मीलित हो गई है, महाद्र॒ड- नायक ध्रुवभूति के पुत्र ( खाद्यत्पाकिक ) सांधिविग्रहिक, कुमारा- मात्य महादंडनायक हरिषेण का रचा हुआ सब प्राणियों के हित ओर सुख के लिये हो

(३०) परमभट्टारक के चरणों का ध्यान करनेवाले महादंडनायक तिल भट्टक ने इसको अ्रनुष्ठित किया

[ | समुद्रगुप्त का एरण का शिलालेख [-- - * -- * ] खुवर्णदाने [ -- -- ] रितानपतयः एथुराघवाद्या; २॥ [ -- -- ] बभूव धनदान्तकतुष्टि कोप तुल्य: [* ---७ ] नयेन समुद्रगुप्त:

१७२ चेद्रगुप्त विक्रमादित्य

[ -- --- ] प्य पार्थि वगणस्सकल: प्ृथिध्याम्‌ [ -- -- ] स्वराज्य विभव भुतमास्थितो5भूत्‌ [ -- -- ] भक्तिनयविक्रम तोषितेन

यौराजशब्द विभवेरभिषेचनाथे: [ -- -- ] नितः परमतुष्टि पुरस्कृतेन [ -- --* ] वो नृपतिरप्रतिवाय्य॑चीय्यें:

[ -- --- ] स्थ पोरुष पराक्रमदत्तशुल्का हस्त्यश्वरत्रधनधान्य सम्ृत्षियुक्ता [ --- -- ] ग्ृहेषु मुदिता बहुपुश्नपौन्न--

सड़क्रामणी कुलवधु: त्रतिनी निविष्टा यस्योजित॑ समरकम्म पराक्रमेहम

[ --- -- ] यश: सुविपुलं परिबम्भ्रमीति [ -- -- ] णियस्य रिवपद्च रणोजितानि स्वप्मान्तरेष्वपि विचिन्ध्य परिश्रसन्ति

2 सुबण का दान करने में

(जो उस प्थु, राघव आदि राजाओं से ( बढ़ गया )। २।

क्रोध ओर प्रसन्नता में क्रम से यमराज ओर कुबेर के समान समुद्र- गुप्त हुआ क्‍

०००००० ००० नीति से 0०2०-६४ 2७28

प्रथ्वी में समस्त राज-समुदाय को जिस ने परास्त कर उन्हें अपनी राज्यलक्ष्मी से बंचित किया।

जो 508 भक्ति, नीति, पराक्रम से परितुष्ट

जो अभिषेक आदि राजपदवी के अनुकूल विभवों से--परमसंतोष के साथ वह राजा था जिस की वीरता अप्रतिवाय थी। ४।

जिस ने एक पतिक्रता कुलबधू से विवाह किया था

द्वितीय चंद्रगुप्त के राज्यकारू का उदयगिरि की गुफा का शिकालेख. १७३

जो हाथी, अश्व, रत्न, धन, धान्य से सम्ृद्धिशालिनी थी---

राजभवनों में जो सुखी थी, जो बहुत से पुत्र-पोच्नों के साथ हिरती फिरती थी ५।

जिसके महान युद्ध के कमे ( कारनामे ) पराक्रम से चमकते हुए थे, जिस का सुविषपुल यश चारों ओर परिभ्रमण कर रहा था, जिसके शत्रु ( उस के ) रण के ऊर्जित कर्मा' को स्वप्न के अवकाशों में स्मरण कर भयभीत हो जाया करते हैं

[---*-**“- "न +-८ ] [ -- ] प्तः स्वभोगनगरे रिकिण प्रदेशे [---“-*““-*“-“+-) संस्थापित: स्वयशस; परिवृद्णाथंम [----**-*“-*+- -]

[ -- --” ] वो नृपतिराइयदा [“ -- -- ]

एरिकिण के प्रदेश में अपने उपभोग के नगर में

अपने यश के विस्तार के लिये संस्थापित 5७)४-%४७ 3४% जब राजा ने कहा 2०४ [ शेष शिलालेख नष्टभ्रष्ट हो गया है। ]

[ | ठ्वितीय चंद्रगुप्त के राज्यकाल का उदयगिरि की गुफा का शिलालेख गुप्त-संवत्‌ ८२ सिद्धम संवस्सरे ८०--२ आपषाढ़ मास शुक्क्रेकादश्याम्‌ परमभट्टारक

मदहाराजाधिराज अश्रीचंद्रगुप्त पादानुध्यातस्य महाराजच्छगलगपौश्रस्य महाराज विष्णदास पुतश्रस्य सनकानिकस्य महाराज ''' **'ढ (() घलस्याय॑ देय धर्म:

श१्ज्ड चंद्रयुप्त विक्रमादित्य

सिद्धम ! संवत्सर में ८०+२ आपषादढ़ मास को शुक्ल पक्ष की एका- दशी में परम आदरास्पद ( भट्टारक ) महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्त के चरणों का ध्यान करनेवाले महाराज विष्णुदास का पुत्र और महाराज छगलग का पौत्र, सनकानिकों के महाराज'''ढल का यह धमर्मकाय है।

[| ।ै दिल्ली के समीप मेहरोली की कुतुबमीनार के पास लोहे के स्तंभ पर उत्कीणो सम्राट्‌ चंद्र की विजय-प्रशस्ति

यस्योद्वतेयत: प्रतीप मुरसा शन्रुन्समेत्यागतान्‌ वँगेष्वाहववर्तिनो 53भिलिखिता खड्गेन कीतिभुजे तीर्वा सप्तमुखानि येन समरे सिंघोजिता वाहिकाः यस्याद्याप्यधिवास्यते जलनिधिवीयोनिरूद क्षिण: ॥१॥

खिज्नस्येव विसृज्य गां नरपतिगामाशअ्रितस्येतराम्‌ मृत्या कम जितावनीं गतवत: कीस्यो स्थितस्प्र क्षिती ।" शांतस्येव महावने हुतभुजो यस्य प्रतापो महान नाथाप्युत्सजति प्रणाशितरिपोयेस्नस्य शेष; क्षित्तिम्‌ ॥२॥

प्राप्तेन स्वभुजाजितंच सुचिरं चेकाधिराज्य॑ क्षितौ।

चैद्राइ्ेन समग्र चंद्र सशक्षी वक्‍तश्चियं बिभ्रता

छोहस्त॑भ पर खोदी हुई हस पंक्ति का चंद्रगुप्त विक्रमादिध्य के कुछ सिक्कों पर अंकित छेख से मिलान करने पर एकसा ही अर्थ प्रकट होता है 'क्षितिम- वजित्य सुचरितेदिवजयति विक्रमादित्यः'---अथौत्‌ पृथ्वी को जीत कर यज्ञादि कर्मो से विक्रमादित्य ने स्वर्ग को जीता है यह सिक्कों पर लिखा रहता है। बहुत संभव है कि उक्त प॑क्ति में विक्रमादित्य के प्रथित चरिन्न का संकेत हो

द्वितीय चंद्रगुप्त का मथुरा का शिलालेख १७७

तेनाथ॑ प्रणिधाय भूमिपतिना भावेन विष्णी मतिम्‌। प्रांछु विष्णपदे गिरो भगवतो विष्णोध्चेज: स्थापित: ॥३॥

ब॑गदेश में एकत्र होकर सामना करनेवाले शत्रुओं को रण में (अपनी ) छाती से मारकर हटाते हुए जिसके खड़्ग से भुजा पर कीर्ति लिखी गई; युद्ध में सिंधु के सात मुखों को उल्लंघन कर जिसने वाह्लीकों को जीता; जिसके पराक्रम के पवनों से दक्षिण समुद्र भी अब तक सुवा- सित हो रहा है॥१॥

( वह ) जिस का शत्रु के नाश करनेवाले यत्र का शेष रूप महान्‌ प्रताप, बड़े बन में शांत हुईं अप्नि की भाँति, अभी तक प्रथ्वी को नहीं छोड़ता है, यद्यपि वह राजा खिन्न होता हुआ, इस प्रथ्वी को छोड़ कर कीर्ति के द्वारा प्रथ्वी पर विराजता हुआ अपने पुण्यकर्मा' से प्राप्त दूसरे लोक को सदेह पहुँच गया है ॥२॥

पृथ्वी में अपनी भुजा से प्राप्त ओर चिरकालस्थायी एकाधिराज्य जिसने भोगा, पूर्णचंद्र के समान मुख की कांति को धारण करनेवाले उस चंद्र नामवाले राजा ने भाव से विष्णु में चित्त को समावेशित कर विष्णु- पद गिरि पर श्रगवान विष्णु का यह ऊँचा ध्वज स्थापित किया ॥३॥

| ] द्वितीय चंद्रगुप्त का मथुरा का शिलालेख

भय था पथ ५पपा ५++ -: स्व राजोच्छेश्ु : प्रथिब्यामप्रतिरथस्यथ चतुरुद॒धि सलिलास्वादितप्शसो धनद्वरुणेंद्रांतक समसस्‍्य कृतांतपरशो: न्‍्यायागतानेकगो हिरण्य कोटिप्रदस्य चिरोस्सन्नाइव-मेथाहक्तंमहाराज श्रीगुप्त प्रपीक्षस्थ लिख्छवी- दौहिबन्रस्थ महादेव्याम्‌ कुमारदेव्याम्‌ उत्पश्नस्थ महाराजाधघिराज श्रीसमुद्रगुप्तस्य तत्परिगृह्दीतेन महादेव्याम दक्तदेव्यामुस्पन्नेन परमभागवतेन महाराजाधिराज श्रीच॑द्रगुप्तेन '** 22000 50833

१७६ चअंद्रगुप्त विक्रमादित्य

जो सब राजाओं को उच्छिन्न करने वाला था, प्रथिवी में जिस की धराबरी करनेवाला कोई शत्रु था, जिसका यश चारों समुद्रों के जल तक फैल गया था, जो कुबेर, वरुण, इंद्र और यम के सदृश था, जो यम- राज ( कृतांत ) का मूर्तिमान्‌ परशु ( फरसा ) था, न्याय से उपार्जित अनेक कोटि गोओं ओर सुबरण-मुद्राओं का देने वाला था, जो चिरकाल से उत्सन्न अश्वमेध का अनुष्ठान करनेवाला था, महाराज श्रीग॒प्त का पड़- पोता, लिच्छिवियों का दौहित्र, महादेवी कुमारदेवी से उत्पन्न, महाराजा- धिराज श्रीसमुद्रग॒ुप्त का, उस के द्वारा स्वीकृत किये गये, महांदेवी दृत्त- देवी से उत्पन्न, परम भागवत महाराजाधिराज श्रीचंद्रग॒प्त के द्वारा '*'

( शेष शिलालेख बिलकुल नष्टश्रष्ट हो गया है। )

[ ] द्वितीय चंद्रगुप्त के समय का साँची का शिलालेख

गुप्त सबत्‌ €३ सिदझ्धम्‌ | काकनादवोट श्रीमहाबिहार शील समाधि प्रज्ञा गुणभावितेंद्रियाय परमपुरायक्रि ' *' **'*** तायचतुदि गभ्यागताय भ्रवणषंगवावस्थायाय्ये संघाय महा-

राजाधिराज श्रीर्च॑द्रगुप्त पाद-प्रसादाप्यायित जीवित साधन: अज्जुजी वित्‌ पुरुष सद्भाववृतिम्‌ ( १) ) जगति प्रद्यापपन्‌ अनेक समरावाप्त विजय यश सूपताकः सुकुलिदेशनष्टी '*' ** ' वास्तव्य उँदान पुश्राम्नकादंवों मजशरभंगाम्नशतराज कुल

मूल्य कृतं॑ (१ )''''“'“'य''' '*'हेइ्वरवासक॑ पंचम॑ंडल्याम्‌ प्रणिपत्यद॒दाति पंचविश्तीश्र (तिश्व ) दीनारान्‌ दक्त**' *** *** यादर्घन महाराजाधिराज श्रीर्च॑द्र- गुप्तस्य देवराज इति प्रियानाम्‌''' *'* '** यतस्य सर्वेगुणसम्पतये यावच्चंद्रादित्यों

सावत्प॑च॒सिक्षवों भुँजताम्‌ रलगहेच दीपको ज्वलतु ममचापराधीत्‌ पंचेव भिक्षवों भुंजताम्‌ रखगहे दीपक इृति तदेतस्प्रवृतस्‌ उच्छिंघात्‌ सगोत्रक्ष- हस्थया संयुक्तो भवेत्‌ पंचभिश्वांतयेंरिति सम्‌ ९०--३ भाद्रपददि० सिद्धम्‌ ! काकनाद बोट के श्रीमहाविहार में आयेसंघ के निमित्त जिस के ( महात्माञ्रों की ) ज्ञानेंद्रियाँ शील-समाधि-अ्ज्ञा-गुणों से प्रभा-

दितीय चंद्रयुप्त के समय का उदयगिरि-गुफा का रेख १७७

वित हैं: जो परमपुण्य के काये चारों दिशाओं से आये हुए, जिस में श्रेष्ठ भ्रमण निवास करते हैं,-पंच मंडली में प्रणाम कर के उंदान का पुत्र अम्रकादेब--जिसे महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्त के चरणों की कृपा से जीविका के साधन पूर्ण रूप से प्राप्त हुए हैं, जिसने (राजा के ) आश्रित सज्जनों के सद्व्यवहार को जगत्‌ में प्रस्यापित किया; जिसने अनेक युद्धों में बिजय ओर यश की पताकाएँ प्राप्त कीं; जो सुकुलिदेश में नष्टी आम का रहने वाला था--बह इश्वर वासक [ गाँव ] को देता है जो राजकुल के अम्नराट, शरभंग और मज के दान किये हुए धन से मोल लिया गया था ओर पाँच बीसी अर्थात्‌ १०० दीनार भी देता है।

उन में की आधी अर्थात्‌ ५० दीनारों से देवराज उपनाम वाले महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्त के सब गुणों की प्राप्ति के लिये जब तक सूर्य ओर चंद्रमा रहें तब तक पाँच भिकछु भोजन करते रहें और बुद्ध भगवान्‌ के रल्न-ग्रह ( मंदिर ) में एक दीपक जले तथा शेष मेरी अन्य सुवर्ण मुद्राओं से भी पाँच भिक्नु भोजन करें और रत्न-ग्रह में दीपक जले जो इस ग्रवृत्त हुए ( धमे-काये को ) नष्ट करेगा वह गो-आह्यण की हत्या का तथा सद्मयः फल देने वाले पाँच पापों का भागी होगा

बषे ९०+३, भाद्रपद, दिवस ४॥

[| 9७ | द्वितीय चंद्रगुप्त के समय का उदयगिरि-गुफा का लेख सिद्धम्‌ यर्दंतयोत्तिरकीभमुब्याम ( --- -- -- -- ) [५ ५7 “+ “7: ] व्यापि चंद्रगुप्ताल्यामद्‌ भुतम्‌ विक्रमावक्रय क्रीतादास्यन्यग्भूत पा्थिवा [ -- -- -- ] मान सरक्त धस्म [ --- -->---- ] २॥

तस्यराजाधिराजर्पेरचिंत्यो ( ----- ) मेन: अन्वयप्राप्तसाचिव्यो ध्याएत संधिविभ्रह: श्र

१७८ चैद्र॒युप्त विक्रमादित्य

कौत्सइशाब इहति स्यातों वीरसेन: कुछारव्यया शब्दार्थ न्याय लोकज्ञ: कथिः पाटलिपुश्रकः कृत्सनपृथ्वी जयाथेन राक्ष वेह सहागतः

भकक्‍तया भगवतः श्भोगुंहामेतामकारयत्‌

सिद्धम्‌ ! जो भीतर से देदीप्यमान, सूये के समान आभा रखता

जिस के पराक्रम के मूल्य से खरीदे हुए, जिस ने दासत्व ( शंखला में थाँध कर ) अन्य राजाओं को विनम्र बना दिया ''

जिस ने अचित्य ''( प्रभाव वाले ) राजाधिराजर्षि के मंत्री होने की बंशक्रमागत पदवी प्राप्त की ओर संधि ओर युद्ध के विभाग में जो नियुक्त हुआ था, जो कोत्स गोत्र वाला शाब इस नाम से विख्यात हुआ था ( और ) कुल के नाम से वीरसेन कहलाता था, जो शब्द, अथे, न्याय ओर लो# का ज्ञाता था, जो कबि था ओर पाटलिपुत्र का रहने वाला था वह इस देश में राजा के साथ स्वयं आया जिस का समस्त प्रथ्वी के जीतने का उद्देश्य था, ओर भगवान शिव की भक्ति से प्रेरित हो इस गुफा को बनवाया ॥।

3 द्वितीय चंद्रगुप्त के समय का गढ़वा का शिलालेख | संवत्‌ ८८

प्रथम भ्राग परमभागक्‍तमहाराजाधिराजश्रीचंद्रगुप्त राज्यस्य ( ज्ये ) संवध्सरे'''**') अश्यां दि्विसपूवोयाम्‌ तिथी *' **'*** माश्रिदास प्रमुख '*' **'* पुण्याप्याय-

नार्थम रखित '*'सदासश्र सामान्य ब्राह्मण *' “*'दीनारैदंशमि: १०**' यहचेन॑ धर्मस्क्च व्युच्छिन्धात्‌ पंचमहापातके: संयुक्तः स्यादिति दूसरा भाग परमभागवत महाराजाधिरशज श्रीघ्च॑द्रगुप्त राज्य ( ज्ये ) संवत्सरे ८०--

गुप्त संवत्‌ ६१ का दैितीय चंद्रगुप्त के समय का मथुरा का स्तेमछेख १७९ पुण्योपचयार्थ ** *** सदासश्र सामान्य ब्राह्मण'''दीनारा; दृश १०'**** 0

यहेन॑ धर्मस्कर्घ व्युच्छिन्यात्‌ प॑चमहापातके: संयुक्त: सादिति

प्रथम भाग परमभागवत महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्त के राज्य के संवत्सर में'*'

“दस दीनारों से ( अथवा अंकों में ) १० जो कोई इस धमे की शाखा को विच्छिन्न करेगा वह पाँच महा- पातकों से युक्त होगा

दूसरा भाग परमभागवत महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्त के राज्य में; संवत्सर ८० तथा ८37 /४ कक दिवस पूष उस तिथि में नर मा पाटलिपुत्र कब

हस्थ की भार्या'' “अपने पुण्य के उपचय के हेतु “'' सामान्य ब्राह्मणों के सदासत्र [ के लिये ] दस दीनार [ वा अंकों में | १०

जो कोई इस धमे की शाखा को विच्छिमन्न करेगा वह पाँच महापातकों का भागी होगा

. ही ] गुप्त संवत्‌ ६१ का द्वितीय चंद्रगुप्त के समय का मथुरा का स्तंभलेख' यह गु० सं० ६१ का स्तंभलेख हाल ही में मिला है। इस में “भट्टा- रक महाराज-राजाधिराज” समुद्रगुप्त के सत्पुत्न 'भट्टारक महाराज-राजा- घिराज' चंद्रगुप्त के नाम का और एक शैव साधु द्वारा कपिलेश्वर महा-

१आर० डी० बैनर्जी--हिन्दू विश्वविधालय की नंदी-व्याख्यानमाछा, पृष्ठ ६६-६८

१८० चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

देव के मंदिर के बनवाने का उल्लेख है। इस लेख में राजा से प्राथेना की गई है कि वह इस धमंकाये की रक्षा करे

यह नवीन शिलालेख इसलिये महत्त्वपूर्ण है कि इस में द्वितीय चंद्र- गुप्त के राज्य-काल की सब से पहली तिथि का ( गु० सं० ६१5८-३० स० ३८०-८१ ) स्पष्ट उल्लेख मिलता है। उसके राज्य के काल-निरणय में अब तक साँची का ई० स० ४०२ का शिलालेख ही प्रमाण माना जाता था, किंतु मथुरा के इस नये लेख के अनुसार इ० स० ३८० के लगभग चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का राज्य-काल शुरू होना चाहिये

[ ९० ग्वालियर राज्य में तुरमेंन गाँव का गुप्त संवत्‌ ११६ का शिलालेख

इस लेख में द्वितीय च॑द्रगुप्त, प्रथम कुमारगुप्त ओर घटोत्कचगुप्त का उल्लेख है। घटोत्कचगुप्त का निर्दिष्ट समय गु० सं० ११६ ( इं० स० ४३६ ) है। अतएव, वह प्रथम चंद्रगुप्त का पिता नहीं माना जा सकता। संभवत: घटोत्कचगुप्त प्रथम कुमारगुप्त का छोटा भाई अथवा पुत्र होगा उस के राज्य-काल में घटोत्कचगुप्त मालवा का शासक था।

[ ९११ ! विक्रम संवबत्‌ ५२४७-इ३३० स० ४६७ का

मंदसोर का शिलालेख इस शिलालेख में दत्तभट्टद्वारा एक स्तूप, आराम ओर कूप के बन- बाने का उल्लेख है। दत्तभट्ट गोबिंदगुप्त के सेनापति वायुरक्षित का पुत्र था। दत्तभट्ट गुप्तवंश के शत्रुओं का नाश करनेवाले ( गुप्तान्वयारिद्रम- धूमकेतुः ) कोई प्रभाकर नाम के राजा का स्वय॑ सेनापति कहलाता था।

कदाचित प्रभाकर स्कंद्गुप्त का सामंत राजा होगा

चेद्रगुप्त विक्रमादिध्य की राजकुमारी श्रीप्रभावतीयुप्ता का दानपन्र १८१

[ ९२ |] चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की राजकुमारी श्री-

प्रभावतीगुप्ता का दानपत्र

वाकाटक छछामस्य (क्र) म-प्राप्तनपश्चिय: | जनन्या युवराजस्य शासन॑ रिपु शास(न)म्‌

(१) सिद्ध ! जित॑ भगवता स्वस्ति नान्दिवर्धनादासीदूगुप्तादिरा(जो)(म)- हा(राज) श्रीघटोत्क्चस्तस्यथ सत्पुम्नोी महाराज श्रीर्च॑द्रगुप्तस्तस्य सत्पुश्रो उने- काइवमेघयाजी लिब्छिविदौहितन्रों महादेव्यां कुमारदेव्यामुत्पन्नो महाराजाघिराज श्रीसमुद्रगुप्तस्तत्सस्पुश्रस्तत्पादपरिगृहीत: प्रथिच्यामग्रतिरथ; सबेराजोच्छेक्ता चतुरु- दुधिसलिलास्वादितयशानेक गोहिरण्य कोटि सहस्रप्रद: परमभागवतो महाराजा- घिराज श्रीचंद्रगुप्तस्तस्य दुष्ठिता धारणसगोन्रा नागकुछ सँभूतायां श्रीमहादे्यां कुबेर नागायामुत्पञ्नो मयकुछालझूा रभूतात्यंतभगवर्ूचक्ता वाकाटकाना महाराज श्री- रुत्॒सेनास्थाग्रमहिषी युवराज श्रीदिवाकरसेनजननी श्रीप्रभावतीगुप्ता'*' *** *** के

वाकाटक (वंश) का भूषण, राजलक्ष्मी को वंशानुक्रम से पानेवाले युवराज को माता का, शत्रुओं से भी मानाजानेवाला, यह शासन (हुक्म- नामा) है

सिद्धि हो ! भगवान्‌ की जय ! कल्याण हो ! नांदिवधेन स्थान से महाराज श्रीघटोत्कच गुप्रवंश का आदि राजा था। उसका सत्पत्र महा- राज श्रीचंद्रगुप्त, उसका सत्पुत्न, अनेक अश्वमेध यज्ञ करनेवाला, लिच्छि बियों का दौहित्र, महादेवी कुमारदेवी से उत्पन्न, महाराजाधिराज श्रीसमुद्र- गुप्तत उसका सत्पुत्न, उसके द्वारा स्वीकृत किया हुआ, प्रथिवी में जिसका

कत वननानआ+न- »3-लललत+--७७ --०-नन-”७»+-8ानभाना+>>कन पनन-ं-म-ीनीणी-ण- जाके > फनकी--क लिन ++त+नकनन अनभाण जा

हूं० ऐंटि, १९१२, धछ २७८

१८२ चद्रगुप्त विक्रमादित्य

सामना करनेवाला कोइ था, सब राजों का नष्ट करनेवाला, चारों समुद्रों के जल तक जिसका यश फैला था, अनेक गो ओर सुवरण का कोटि सहस्र देनेवाला, परम विष्णु-भक्त महाराजाधिराज श्रीचंद्रगुप्त; उसकी पुत्री धारण, गोत्रवाली, नागकुलकी श्रीमहादेवी कुबेरनागा से उत्पन्न, दोनों कुलों की भूषण, अत्यंत भगवड्धूक्ा वाकाटक महाराज श्री रुद्रसेनकी महाराणी, युवराज श्रीदिवाकरसेनकी माता श्रीप्रभावतीगुप्ता

अनुक्रमाणिका

ञ्य्र

अँंसर्वेदी का शासक १४५७

अपिस्वामी भाष्यकार १२०

अच्युत और नागसेन १६७,---के सिक्‍के २५

अज॑ता की चिनत्रांकित गुफाएँ १२८, --के चित्रों की प्रशंसा १२९, --फके शिलालेख ३७

अजयगढ़ का पावती मंदिर १२७

अजुनायन जाति के सिक्‍के ३३

अजातशञ्रु

अनंतदेवी १४४, १४७

अभयमुद्रा १२६

अभिज्ञान शाकुंतछू ८०, ९३, १०७, १५८

अमोधवर्ष के ताम्रनलेख १७३

अलबेरूनी ---गुप्त-संवत्‌ का प्रारम्भ १३,१५८

अल्टेकर---अ० स० १७२

अवंती ( उजयनी ) ३३,---का राजा ७१

अद्योक का पत्थर का स्तंभ १२६, १२७,--बौद-धर्म की दीक्षा ली ३,--थऔुग के स्व॒प १३१,--का लेख ४७,--का विशाल साम्राज्य

३, ४७,--का समकाछीन १७७

अइवधोष १०७५,१ ०८,१४०

अश्वमेध यज्ञ १३७

असंग १०७५, ४०-- वसुबंधु का बढ़ा भाई ११९

अहिसा और बिइवप्रेम १,२

ता

आदित्यदास--- वराहमिहिर का पिता १२२

आपस्तंब के भाष्यकार १२०

आभीर जाति ३७,--का राज्य

आम्रकादेव १४१,१७७

आशेभट्ट--आयये छंद का प्रयोग १२१, -“गुप्तयुग में थूनानी उ्योतिष- सिद्धांत से परिष्चित १२२

आयेशुर १०७

आयोवते के नौ राजा १६,--में राष्ट्रीय एकता २१

आइवमेधिक सिक्‍के १३४

आइवलायन सूत्र के भाष्यकार १२०

इंत्पुर के ताम्रपश्न १४६

इस्सिंग का यात्रा वर्णन १०,११,--- श्रीगुप्त का उलछलेल १००

( १८४ )

ड् इेइवरकूृष्ण १२१ 3. उँदान का पुत्र १७७ उग्मसेन ३१ उज्जैन का दर्णन ४८ उष्त रापथ ३० उदयगिरि की गुफा का शिलालेख १७३,१७७,--में शिलालेख १३७, --में चंद्रगुप्त की गुफा १२७ उद्योतकर ११९,--न्यायभाष्य के टीकाकार १२१ उषवदात--ब्राह्मण-कन्याओं फा विवाह ४६,--शकवंशीय लेख ४५

तर अतुर्सहार १११ ए्‌ एंटियोकस---अश्लोक का समकालीन १०७

एयैगर, एस कृष्णस्वामी--गुप्त-इति- हास का अध्ययन ७,११५

एरंडपल्छ ३० -

एरण (पूर्व मालवा ) १४३,--के शिलालेख २७,३१४७,१ ४८,१७१

एलिजयेथ

एशियाटिक सोसाइटी ( बंगारू ) के संस्थापक १७७

तो

ओझ्षा, गौरीशंकर हीराचंद ६६,१५९, --मध्यकालीन भारत ९०,--- राजपुताने का इतिहास ८,१०,३२

है |

कथासरिश्सागर में महेंद्रादित्य का उल्लेख १४४

कनिष्क के आश्रय में बोदद-धम १३७, --के दानमान के पात्र ५,-- महाप्रतापी राजा ७५,--बोझूघम का रक्षक १०३

कपिलेइ्वर महाराजदेव १७५९

कपोलकल्पित कथाओं के आधार पर १७५७

करमडांडे १४३

कतूपुर ३२

कलिंग-युद्ध

कविपुप्न--मालविकाग्निमि श्र में उलेख ११७

कहोम के शिलालेख १४१

काकखपे रिक ३४

काकजाति ३४

कांची (कॉजीवरस ) १७,३०,३१,-- नगर दिडनागाचाय का जन्‍्म- स्थान ११९ ,--का विद्यापीठ २१

काधघ--समुद्रगुप्त का नामातर १३३

काचांकित सिक्‍के १३३

( १८७५ )

कामरूप ३२

कालिकाचाय ३५९

कालिदास ८०,--का अछका-वर्णन ( वत्सभट्ट के दश्धपुरवर्णन से

उज्जैन-

वर्णन ४८,--के काष्य में अइव-

तुलना ) ११०,--का

मेघ और ब्राह्मणघसं १०८,--- के काष्य की छाया गुप्तकालीन शिलालेखों पर ११२,--- कुंतलेश--( प्रवरसेन ) के सम- सामयिक ११५७५,--की कृतियाँ १०८,--घंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समकालीन १०८,--चंद्व गुप्त और कुमा रगुेप्त के समय में १००,--- दिद्वनागाचा्य के समकालीन ११९,--मगधेशवर की प्रशंसा ७५८,--मगधनरेश का वर्णन ११३,--की रचना की भिटारी के लेख से तुलना ११२,--वि- शाखदक्त का समकालीन ११४६, --का समय १०६,--पर सभ्रुत्- भुप्त की युद्धयात्रा का प्रभाव १०९,--हरिषेण के दिग्विजय वर्णन से समानता ११० काव्यमीमांसा २७, ६३, कुंतलप्रदेश ११४,--पर वाकाटकवंश

का अधिकार ११७ २४

कुंतलेइवर देत्यम्‌ ( नाटक ) में कालि- दास का उल्लेख ११४

कुतुबमी नार के पास का छोहस्तंभ १२७,१७४

कुबेर ३१

कुबेरनागा से उत्पन्न १८२,--चंत्र- गुप्त विकमादित्य की पत्नी ६७

कुमा रगुप्त का अश्वमेध यज्ञ १३७,

से संयंध

११ ३,--के खितानध १४३,---

“का कुमारसंभव

चंद्रगुस्त विक्रमादित्य का पुश्र १४३, --का छोटा भाई या पुश्न ,--- द्वितीय १४६,--अ्रथम का अधि- कार तथा शासन १४३,--अथम के दो पुत्र १५४७,--प्र थम मद्देंद्रा- दिव्य १४३,--का मयूरांकित सिक्का ११२,--प्रथम का सामंत १४३,--को माता १७५३,--का शिलालेख! में उलछेख १५३ कुमा रजी व--बौद्धअ्रमग, बोद्ध ग्रंथ का अज्नुवादक चीनीभाषा में १०० कुमा रदेवी से उत्पन्न १७६,१८१ कुमारसंभव ११३,--में चित्रकला का निर्देश १२९ कृुशनवंश का सार्वेभोम साम्राज्य ७५,--साम्राज्य का दास ७,६

कुस्थरूपुर ३१

( १८६ )

कोटकुछ १६७,---के सिक्के २५

कोडरिंगटन १२६,--गुप्तका लीन कछा की प्रशांसा १३०,--का प्राचीन भारत १३१

कोसछ ३०

कौध्सगोश्रवाला १७८

कौराछ ३०,३६१

क्षश्रपत॑द का संस्थापक ४६

क्षदरातवंश का दूसरा राजा ४५

क्षेमंद्र ११४

खब

खुतान--फ़ा हियान द्वारा वणेन ६८,

$९,--में बुद्धदेव का मंदिर ७०

गजंद्रमोक्ष का आश्यान १२४

गढ़वा--गाँव में शिल्प के नमुने १२७, --के शिलालेख १५७,१७८,--- शिलालेख में ब्राह्ममभोजन का उल्सेख ९४

गणपतिनाग २५९

गरुढुध्वजांकित सिक्का १३४६

ग्देसछ का राज्यकाछ ४१,--- विक्रमादित्य का पिता ४१,--- की स्थिति

गाथासप्तशती ४०

शार्गीसिहिता ७,१२२

गिरिकोइ्टर ( फोटूर ) ३०,३१

गिरनार की प्रशस्ति १० ४, --के शासक १३८,--का शिलाकेस्र ३३

गीतगोविद १४०

गीता १४०

गुणवमन--काइमीर का युवराज १००

गुप्त-नरेशों की वैशपरंपरा १०,-- वंशियों का चंद्रवंशी होना ९,-- का वैशबृक्ष १५०,--वंशियों के भावी अभ्युदय के कारण ११,--- लछिच्छवी राजपुत्री से विवाह- संबंध कोरी कल्पना ११,-- शिल्पकछा की प्रशंसा १३०,--- सम्नाट्‌ के सिक्के १३१,--सन्नाटों का विवाह-संबंध ६६,---साम्रान्य पर घोर विपत्तियों के बादल १४४,--साम्राज्य का शासन- प्रबंध ७९,८

गुप्तकाछ के कारीगर १२७,--की प्रारंभिक तिथि १७७,--की मूतियाँ १२७,---की शिल्प और स्थापवयकछा १२४७,१ २५,---के शिल्पच्ित्नों का ख़जाना १२६

गुप्युग का तिथिक्रम १६०,--के धार्मिक जीवन में भक्ति का प्रवाइ १३८,--में षड्दशेनों का विकास १२१

गुप्वंश का अधिकार १४८,०-का

( ३६८७ )

आदिराजा १८१,--के इतिहास का तिथिक्रम १४,०--का प्रताप- सूे॑ १४३,--का प्रताप-सूय अस्ताच्ल की ओर १४९,--की प्रभुता १२,--की राज्यपर॑परा का उल्लेख १५७ ,--का संस्थापक ९,--के सिक्कों के आठ विभाग १३२,१ ३३ गुप्तसंचत्‌ू १३,--किसने १०७,--का आरंभ निविवाद

चदाया

सिद्ध १७९,--का प्रारंभ १५८, --पर फ्लीट और अलबेरूनी के मत १३,--घललभी-संवत्‌ के नाम से प्रसिद्ध हुआ १५८,--और विक्रम-संवत्‌ १५९,--फके विषय में वाद-विवाद १७५९,--शक- संवत्‌ के बाद १७५५९

गोचिदगुप्त--चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का पुश्न॒६५,---तीर भु क्ति---तिरहुत के शासक ८५,--की माता १७५३, --का सेनापति १८०

गोपराज १४८

गोमतीसंघारास ६९

गौतम के न्‍्यायसूशत्र का भाष्यकार १२१

पग्रनवेडेछ ( (५7/'पा) ४४०१०] )--भार- तीयों का उपनिवेश ९५९

ग्रासपंचायत ८५

ग्वालियर का केख १४८ घटोस्कच गुप्त १७३,---गुप्तवंश का आदिराजा १८१,--का निदिष्ट समय १८०,--का पौन्न १७०, --मालवा का शासक १८०,-- का सिक्का १३२ “चंद्र! नामाँकित लोहस्तंभ का चंद्र कौन था ५३,--के विषय में विद्वानों के मत ५५,७०६ च॑ंद्रगुप्त मौयं---मोये-साम्राज्य. का विस्तार ३,--सेंडो कोन्‍्टोस १७७ खंद्रगुप्त १८२,--का अभिषेक-काछ ३८,--का उत्तराधिकारी १७७, --और कुमारदेवी की विवाह- स्मृति १३४,--की गुफा १२७, --गुप्तसंवत्‌ प्रचलित किया ११, “का पुत्र १३७०,--का युद्ध- सचिव ४३,--के रजत-सिक्कों के दो विभाग,--(प्रथम) का राज्य- विस्तार १२,--का सिक्का १३२, --के सिक्कों का निरीक्षण १३५, --फे विरुद सथ से विशिष्ट विरुद “विक्रमादित्य! ३८--- खंद्रगुष्त विक्रमादित्य का अतरोष्ट्रीय मंत्री 2३,--के अनेक ख़िताब

( १६८८ )

६३१ ,---के अन्य नाम ६७,--- के अमात्य और पदाधिकारी ८२,--- का उत्तराधिकारी १४३,--का उदयगिरि का शिलालेख १७३, १७७,---डच्योग-धंधे ५६,---का उपाधिधारण का शौक १३७,--- का गढ़वा का शिलालेख १७८, --और ग्रासपंचायत ८७,--के जीवन-वृत्तात के साधनों का अभाव ७५९ ,---की दो राणियाँ, कन्या और पुश्न ६५,--प्रुवदेत्री के वेष में १५७,---का न्याय और अपराध ८३,--नेपोलियन १६, --परमभागवत १३७,--पिता की युद्धनीति को घदल दिया ४३,--भ्रवरसेन का समकालीन ११७,---का प्रांतीय शासन ८७, “--का प्रादेशिक विभाग ८७,--- फाहियान द्वारा शासन-व्यवस्था का वर्णन ७११,७२,--का मथुरा का शिलालेख १७७५,--का महल «८४,--का मुद्गाराक्षस में उलछ्लेल ११६,---की राजकुमारी १८१, “- की राज्यकर ८७,---का राज्य- काल-प्रारंभ १८०,---का रुद्गवसेन के साथ विवाह करने का कारण ५४ ,--छगान और कृषि ८६,---

का विक्रमोत्रैशी से संबंध ११३, “--की विजय प्रशसश्ति १७४,--- की वेदिक कर्मों के जनुष्ठान में अभिरुचि ६१,६२,--का वेदेशिक संबंध ९८,--वेष्णव होते हुए भी शेवरों का आदर करता था ६०, --की शक-विजय का प्रमाण ४२,--का शासनग्रब॑ध ७९,८०, --के सिक्‍के १३७,-- के सिक्कों पर नाम और कारनामे छंदोबद् ६१, --के सोने-'चाँदी के सिक्के ८१, --की सेना ८३,--की सोराष्ट्र- विजय ४७,--की स्त्री १७५३

चंद्र॒प्रकाश ६७,१२०

चंद्रवंश का पुनरुथथान १०

्व॑द्वमो २९

चंपा और ताम्रलिप्ि ७७

चक्रपालित १३८, १-४५

चतुदंश शिलालेख ८५९

चतुभुज विष्णु १३६७

चष्टन---क्षश्रपर्वश का संस्थापक ४६

चाणक्य--नीतिशासत्र का आधाय

चित्रकला का उत्कषें १२९,--के नमुने १२८,--के पारिभाषिक शब्दों का उपमालंकार में प्रयोग १२५९

चिरातदत्त १४३

( १८९ )

खोौनीयाश्री---चार के नाम ६७ छगलग (महाराज ) का पोष १७४ जशस॑ंघ जन एशियाटिक १७३ जायसवाल, काशीप्र साद्‌ ११५ जूनागढ़ का शिलालेख ९२, १४४, १४७, १४६,-- में स्कंदगुप्त ९६ जूबोडबरड्यूल ३१, ३२,--का दक्षिण का प्राचीन इतिहास ५२ जैनवर्म का आभास १३७,--के संरक्षक ३९ जैमिनि के मतानुयायी १२० जोन एलन ७, १३२, १३४, १५८,--- और गुप्तवंश की मुद्रा ११३, और गुप्तवंश के सिक्‍के, सिक्कों के आठ विभाग और सिक्कों में मौ- लिकता १३२, १३४,--ओर गुप्त- संचत्‌ १७८,--का चंद्रगुप्त की रूपकृती उपाधि पर अनुमान ६२, --और चं॑द्र॒प्रकाश १२०,--चंद्र- प्रकाश कुमारगुप्त का विशेषण ६४ ज्योतिष ओर गण्,ि के विद्वान्‌ १२२ टालेमी ( 7?80!0079५ ) प्रीस का- भूगोछश् ४१, ४९

ढवाक ३२ डेनमार्क वासी कलाविशारद का कथन १२९ ढे हुंढिराज--मुद्राराक्षमण के दीकाकार ११९६ तक्षशिका का फाहियान द्वारा वर्णन ७१,--का राजदूत १०३ ताव्चिंग---फ़ाहियान का साथी ७७ तिलभट्टक महादंडनायक १७१ तुंबरु ( संगीताचाय ) १२८ तुर्मेंन गाँव का शिलालेख १८० तुषार---कुशनवँश की राज्यसीमा तोरमाण १४७ द्‌ दक्षिणापथ १६, ३०,--के राजाओं की नामावछी ३० द्तदेवी से उत्पन्न १७६ दक्तभष्ट १८० दमन ३०, ३१ दर्शन के छः संप्रदाय १२१ दुष्पुर ( पश्चिमीय मालवा ) १४३,-- वर्णेन ११० दामोद्रपुर ( दिनाजपुर ) के ताम्रपश्र ८९, ३४३७

( १९० )

दाशनिक संप्रदाय उमच्नति के शिखर पर १२१

दिडनाग या दिड़नागाचाये--कालि- दास के समकाछीन ११९,--- न्यायसूत्र की आलोचना १२१

दिवाकरसेन की भाता १८२

दीनार और सुवर्ण ( गुप्तसम्राट के सिक्‍के ) 4१,--की तोछ ९७

देव, बोौद्ूविद्वान्‌ ११९

देवगढ़ का विष्णुमंदिर १२४

देवगुप्त या देवराज--चंद्रग॒प्त का नामां- तर ५१ ,६५,---उपनामवाले ७७

देवताओं की पूजा १३८

देवदाय अथवा धमंदाय १४२

देवपुश्र ३४

देवराष्ट्र ३१

देवस्वामी १२०

देवी चंद्रगप्तम--नाटक के अवतरण १७३

देवेंद्रवमों के ताम्रपत्र ३१

हादशभुजा दुगो १३७

धर्न॑जय ३१

धनुधेरांकित सिक्के १३३

घन्यविष्णु १४७

धर्मकीर्ति १२१

धमचक्र का प्रवतेन १२६

धामेक स्वृूप १२३

धा्िक हेषभाव १४१

धार्मिक सहिष्णता १४१, १४२

धूर्तेस्वासी भाष्यकार १२०

भुवदेवी चंद्रगुप्त की राणी ६५,--का वेष १७५३

मुवभृति के पुश्र १७१

भवद्यामों १३८

नें

नंदवंश का नाश १७६,--का शाज्य ४१

नष्टीभ्राम १७७

नरसिंहगुप्त और उसका विरुद १४७

नहपान की पुत्री और जामाता १०२

नहवाहन ४१

नॉदिव्धन १८१

नागकुछ १८२

नागव॑शीराजा २५९

नागसेन १६७

नागाजुन १०५, १४०,--का अमसण- वृत्तांत में उख ११५९

नाव्यव॒पंण में उद्धुत १५३

नाव्यशास्तर १०४

नारद और तुंघरु १२८

न्याय १२१,--भाष्य का ठीकाकार १२१,--वारतिक ११९,-- वातिक-तात्पर्य टीका ११९,--

(

सूश्र की आलोचना १२१,-- सूत्रों का भाष्य ११९,--स्थिति १२१

नेपाछ ३२

नेपोलियन १६

नैयायिक का उछलेख १२१

पंचसिहातिका १०७,--में मतों का उद्धरण १२२

पक्षिरुस्वामी ११९

पत्थर तराशने की कला का पुनदंशेन १२७

पश्मावती ( ग्वालियर ) का राजा २९

परमार्थ ११९

परराष्ट्रनीति के उद्देशय २३

परशुधरांकित सिक्‍के १३३

पणदत्त और उसका पुत्र १४५

पल्लवर्वश का राज्य १७

पाटलिपुश्र---“अमरपुरी”'---का मेगा- स्थनीज-द्वारा वणेन २,--का फाहियान-द्वारा वणेन ७७,--का रहने वाला १७८ ,--में शाख्ब्रकारों की परीक्षा ६३

पाठक, के० बी०--गुप्तकाह् और बाक-संचत्‌ १५५९

पार्जिटर, कलियुग का राजवंश ३०,४०१

पाजक--३

१९१ )

पाछी ( भाषा ) की अपेक्षा संस्कृत का आदुर १३८

पिष्टपुर ( पिद्ठापुर ) ३०, ३१

पुंडव्धे मुक्ति ( उत्तरी बंगाल ) १४३

पुरगुप्त १४४,--की माँ और स्त्री १४७, --का विरुद १४७

पुराण-प्रतिपादित धर्म का प्रभाव ११८

पुराणों का अंतिम संस्करण और संपा- दन ११६, ११७,--में गुप्तव॑श तक के राजवंशों का उछेख ११७, --में गुप्तवंश का राज्य-विस्तार ११७,--में नागदंश और गुप्तवंश ७,--में पाँच विषयों फी 'बचों ११७,--में राजाओं की वंशपरं- परा ११७,--में वर्णित राजवंशों का कारूफ़म १५७,--से हितूधम के प्रचार का पता ११७

पुरातस्वसंबंधी गवेषण्ग १७५६

पुरुषपुर ( पेशावर ) का फाहियान द्वारा वणेन ७०

पुष्करण ( मारवाड़ ) का राजा २९

पुष्य नाम का नगर १६७

पुष्यसित्र के आक्रमण १४४,--के हाथ में मगध-साम्राज्य की बाग- डोर ४,--का राज्य ४१

पूना का ताम्रपन्न में प्रभावती के भूमिदान का उछेख ५१

( १९२ )

पृथ्वीमेन १४४,--का प्रभुत्व २७

पेरी ( १४. ०८] एटा ) ११५९

पेरीक्लीज़

पौराणिक धर्म १३९

प्रत्यंत-नरेश १७

प्रझम्न १२२

प्रभाकवरतधैन १९,१४८,--स्कंद गुप्त का सामंत १८०

प्रभावती-का दानपश्र १८१

प्रभावतीथुप्ता १८२

प्रमाणसमुच्चय ११५९

प्रवर्सेन ११७,--सम्राट की पदवी प्राप्त की ५१

प्रवीर

प्राकृभाषा की अपेक्षा संस्कृत का आदर १३८,--का द्वास १३८

प्रादेशिक विभाग ८४

प्राजुनजाति ३४

फ़ाहियान-- १३६,---अपने आपको भारतभूमि में पाकर ७०,--को खुतान के राजा ने ठहराया ६९, --और गुप्तसाम्राज्य की शासन- ब्यवस्था ७९, ८०,--चंपा और ताम्नलिप्ति में ७७,--का जावा- वर्णन ७८,--का तक्षशिला-वर्णन ७१,--का (भारत की) धामिक

अवस्था का वर्णन ७६, ७७,--- का पाटलिपुतश्न-वर्णन ७४,--पुरुष- पुर ( पेशावर ) और काबुल में ७०,---भारत के छिए रवाना हुआ ६८,--और भारतीय शासन ब्य- वस्था ७५,--और भारतीय ७५, ७७५,--का मध्यदेश-वर्णन ७२, “--महायान का अनुयायी १७१, --राजा प्रजा की उदारता की प्रशंसा ६१ ,--वस्तुविनिमय और सिका ९७,--का विहारों का वर्णन ७३,--का शेनशान प्रदेश का वर्णन ९९,--का सिंहलछ-वर्णन ७८,-- स्वदेश लौट गया ७८ फ्लीट (डाक्टर) ६०, ११०, १४२, १४७, १४६, १४९, १५४, १७५, १७५८,--का गुप्त-शिलालेख २४, २६, २७, ३६, ८५, ९२, ९४, ९६, ९७, १५१ ,--और गुप्त- संवत्‌ू १५८,--गुप्तसंवत्‌ू का प्रारंभ १३,--मेघवण का समय ३५,--६िदुओं में इतिहास लिखने की क्षमता १६ बंधुवमी १४३ बंबई गजेटियर ४८

( १९४६ )

धरमसिंगहम के अजायबचर में बुद्ध की मूर्ति १२८

धरहुत के स्तुप १३१

बलमिन्न और भजुमिन्र ४१

शलवमों ३०

बललभी के राज्य का उदय १७८

बछभी-संवत्‌ और विक्रम-संवत्‌ १५५९, --शक-संचत्‌ के बाद १७८

घसाढ़ ( वेशाली ) की खोदाई ८८, “-में मिद्दी की मुहरें ९६

धाण १५२,--कालिदास का उल्लेख १०६,---सुवंधु का विवरण १२१, हर्षचरित में ध॑द्वगुप्त का उल्लेख ६७,--हषेचरित में प्रवरसेन- रचित सेतुकाव्य का उल्लेख ७२

चालाघाट का ताम्रपतन्र ७०

बिबिसार

घिट्टार और उड़ीसा के बनमय प्रदेश १६

बुद्ध या बुद्धदेव १,--अभयखसुद्रा में १२६,--और हेइवर की सत्ता १३९,--की कटपना १४०,०--- का पाली भाषा में उपदेश १३८, --के रत्षगृह में दीप १७७,--- विष्णु के अवतार ११८,--के सिद्धांत का विरोध १२०

बुरुचरित ( महाकाव्य ) १०७

बुधगुप्त १४७६,--का ताम्नपश्न १४७,

“-का राज्य और सिक्के १४८

बुलंदशहर फी मुहर ३०

बेरावछ के शिलालेख में रसूछ मध- स्मद-संवत्‌ १५५

बैनर्जी, आर० डी० ( राखाऊछदास ) १७२,---की प्राचीन-मुद्रा ११४, १३२,---का नंदीव्याख्यान १२७

बोघिसत्व १४०

बोवर ((१४७०४४४॥ 80ए०/)--मंगा है में वद्यक ग्रंथ की प्राप्ति ९९

बौद्ध का विज्ञानाद और शून्य- वाद १२०

बोदभिक्षओं और उछेख १००

बोदधमे का आभास

विद्वान का

१३७,--में दो पंथ १३९,--के प्रभाव का हास १३८,--पर भागवतधर्म का प्रभाव १३९,--वेदिकधम का परिवतेनमान्न १३९,--- सम्राद्‌ू १३७,--हिसात्सक कमें- कांड का प्रतिवाद रूप १३५, --का द्वास १३७

बोटों का तीथराज १२६,--और ब्राह्मणों. का दाशनिक वाद- विवाद १२०

बोधायनसूत्र के भाष्यकार १२०

ब्रादण और बोद्धधर्स में विचार

( ३१९४ )

संघर्ष १३८

ब्राक्णघस का उत्थान १३७, १३८, “का प्रभाव १३८,--की भाषा १४१

ब्राह्मणथमोवर्लबियों के लेखों की संख्या १३५६

द्राक्षणों पर बौद्धों और जैनों की अरद्धा १४२

बूछौय ( डाक्टर )--पगुप्त साम्राज्य के राजमंत्री खोदाई ८८

८८,--अंसाढ़/ फी

भर

संडारकर, डी० आर०--वेशाली की मुहरों पर भनुमान ८८

भंडारकर, शमक्ृष्ण (डाक्टर ) ४०, --ईइवरकृष्ण का फाछ १२१, --संसस्‍्कृतविद्या को प्रोत्साहन १२२,--वैदिक सूत्रों के भाष्य- कार १२०

भरतसुनि---नाव्यशासत्र १०४

भरत-चरित ११४

भर्तृंहरि २७

भवस्वामी--भाष्यकार १२०

भागवत्त १०३, ११८,--धर्म का विदेशी पर प्रभाव १०३

भागभद्र--विदिशा का राजा १०४६

भानुगुप्त १४४

भारत का चीन के साथ व्यापारिक संबंध १०१,--का पाश्चात्य देशों से व्यापार-संबंध ४८,--का रोम के साथ व्यापा- रिक संबंध १०१,--पर विदे- शियों के आक्रमण $४४,--का वेदेशिक संबंध ९८,--का सुवर्ण- युग ८,--की संस्क्ृति का विदे- शियों पर प्रभाव १०२,१०३

१००,

भारतीय ज्योतिष और थूनानी ज्यो- तिष १२२

भारतीय पुरातत्व की खोज १७५६

भाष्यकार विद्वान---गुप्त युग में १२०

भास १०८,--का माछविकाभिसिश्र में उछेख ११७

भास्करवमी ३०

भिटारी की राजमुद्रा १५१,--की राजमुद्रानुसार गुप्तवंधाक्रम १४७, --का विशालमंदिदर १२४७,-- का शिलाछेख ११२, १४४,-- के शिलालेख से कालिदास की रचना से तुलना ११२

भिछसा का स्तंभछेख १०४३

आमदा का शिव-मंदिर १२७

सर संश्नराज ६३०, ३१ मंदसोर का दिलाढेख ६५, ९४,

( १९७ )

१४८, १८०,--के छिलालेख में रेशम के कारोगर का उल्लेख ९७, --में सू्यंमंदिर १०६,--का स्तंभरेख ५७, ९३

मगध का गुप्तवंशियों के अधीन होना

(में गुप्तों के राजवंश का

उत्थान ८, ९, १०,--में नंँदव॑श का राज्य २,--नरेश का रघुव॑श में उछेख ११३ ,--शज्य का प्रशुत्व १,--राज्य की शक्ति शिथिल- होने पर विदेशियों का भारत पर दौरदौरा ७,--राज्य पर छांग ( ब्राक्षण ) पंश का अधिकार

मझगाँव और खोह १४८

मत्स्यपुराण ७५,

मथुरा का शिलालेख ९२, १७७, --फा स्तंभकेख १७५९

मदर १४१

मद्गरकजाति ३४

मनुकुवार गाँव की खुद्ध-प्रतिमा १२६

मलुस्मति ९८

मथूरांकित सिक्का ११२

मयूराक्ष ( मंत्री ) नागरिकों के लिए सभाभवन ९१

मरुंडों का उछेख

मछनाग १२१

महमूद गज़नवी ११

महाकांतार ३०,---का युदू ३७

महाभारत ११८

महाभाष्य

महायान पंथ के षौझ्ध भिक्षुक १८, १९,--पंथ के सिर्धांत-समर्थक और प्रवतेक १४०,--भक्ति- प्रधान १३९

महावीर-स्वामी १,--का निर्वाण 9१

महाशिवगुप्त के शिलाकेख

महेंद्र ३०

महेंद्रनाथ, कलि्ग के राजा १०९

महेंद्रादित्य १४४

माठरवूतति १२१

मातचेत १०५

मातविष्णु १४७

मारहोरल सर जान गुप्त समय के मंदिर १३१

मालवजाति का अधिकार ३३

मालव-संवत्‌ ३९५, १४८,--विक्रम- संवत्‌ का नाम १०८

मालवा के वर्मांत राजाओं की वंशा- वली ५६,---का शासक ८०,०-- पर हुणों का अधिकार १४८,-- का हास १४८

मालविकाप्रिमिश्र से कालिदास से पूर्वे के नाटककारों का उछेख ११७

मिंगटो चीन-सम्नाद्‌ ६८

( ३१९६ )

मिनेंद्र ( मिलिनद ) बौद्धधर्म की दीक्षा ली १०३

मिदिरकुछका लेख १४८

मीमांसा, उत्तर और पू्व १२१,-- सूश्र के भाष्यकार १२०

मुद्रातत्वविद्‌ १३२

मुद्राराक्ष ११५, ११६,---के भप्रणेता १७४

मूृति निर्माण-कलछा १२७

रूच्छकटिक ११५७

मेगस्थनीज़

मेघदूत १०८,१११

मेघवण, गया में विशाल मठ बनवाया १८,--का समकाछीन १७५५९, “-की समुद्रगुप्त से मिन्नता २२

मेबिल डफ़ १०१

मकक्‍्समूछर, संस्कृत वाइमय १०२, १०७

मोयेवंश का उदय तिथिक्रम १५७,---का प्रारंभकाल १७५७,--का राज्य ४१--के

१५६,--का

साम्राज्य का दास यवनों के आक्रमण २०,--का राज्य यशोधम २१ यजश्ञोधमों ( जनेंत्र ) का विजयबृत्तांत १४८

युधिष्ठटिर

थूनानी ज्योतिष १२२

योगदर्शन १२१

योधेयजाति ३३

र्‌

रघुवंश २३,५५,६०,१०८,१ ०९,११२, ११३, ११४

राजतरंगिणी १६४,--में विक्रमादित्य का उल्लेख १०८

राजशेखर ११७,---च॑द्गुप्त की साह- सांक उपाधि का उछेख ६३

रामगुप्त, कायर और अयोग्य १५४,--- गद्दी पर बडा १५२,--समुद्रगुप्त का उत्तराघिकारी--शंका १५४, “का सम्ताट होना सिद्ध नहीं होता १५७०,--की हत्या १५४

रामच॑द्र और गुणच॑द्र १७५३

राष्ट्रकूटवंश के राजा १७३

र॒द्वदामा, 'चष्टन का पौश्न, क्षेश्रपव॑श्श का सबसे प्रतापी राजा ४६,--का संस्कृत काव्य में कोश ४९,--- का संस्कृत शिलालेख $०४,--- के साम्राज्य का चिवरण ४६, ४७,

रुद्रसेन की महाराणी १८२

रेप्सन २०,२९,--और गुप्तवंश के सिक्के १३२,--ओऔर भारतीय सिक्‍के ९२

( १९७ )

तन

स्का के तीर्थ-याश्रियों का अतिथि- सत्कार १९

छखनऊ के म्युजियम में पत्थर का घोड़ा २०

छाटाचाये १२२

लाव्यायन सूत्र के भाष्यकार १२०

छिचष्छविकुला या लिकच्छवियों का दोहित्न १७०,१७६,१८१

छेनिनग्रेड के अजायबघर में गुप्तरवंश का सिक्का १३२

वत्सदेवी १४७

वल्सिभष्टि का कालिदास की रचना से परिचय ११०

वर्धेनवंश का प्रताप १४९

वराहमिहिर, गुप्तयुग में १२२,-- चँद्रगुप्त विक्रमादित्य का समका- छीन १०७,--के पिता का नाम १२२

पसुबंधु १०५, १४०,--असंग का अनुज १०५,--का जीवनचरित ११९,--विडनागाचारय के गुरु ११९,--विक्रमादित्य का सम- काछीन ११५९

घाकाटक महाराज १८२

वाकाटक राजा प्रथिवीषेण का प्रभुश्व २५

वाकाटकर्वश का आधिपत्य ३७,--- का गुप्त-सम्राटों से घनिष्ट संबंध ७५०,--परंपरा ७०,---का भूषण १८१

वाचस्पतिमिश्र, टीका में दिदनागा- चाये का उल्लेख ११९

वाटर्स, द्वेनसंग का प्रवास-वर्णन ६४

पास्सायन ( पक्षिलस्वामी ) भाष्य- कार--द्रामिल” १२१

वामन, चंद्रगुप्त की च॑द्रप्रकाश उपाधि का उछेख ६७,--समुद्रगुप्त और वसुबंधु का उल्लेख १२०

वायुपुराण ११७,--में गुप्ततंश ७,-- में चन्द्रगयुप्त अ्रथम के समय की राज्यस्थिति १२

वायुरक्षित का पुश्र १८०

घासवदत्ता के लेखक १२१,--में विक्रमादित्य का उछेख ६२

घाह्लीकों को जीता १७५

विंध्यशक्ति के पुत्र

विक्रससंचत्‌ और गुप्त-संवत्‌ का अंतर १७५९,--के प्रवर्तक ३५,--और घबल्लभी-संबत्‌ के थीस का अंतर १५५९,--का माछव-संवत्‌ नाम से उल्लेख ३९,--और माऊव-संचत्‌ एक ही १०८

( ३६९८ )

विक्रमादित्य (शकारि ) का अनुर्संघान ३९, ३०

विक्रमादित्य विरुद॒ की उत्पक्ति ३४, ३८, ४०, ४१

विक्रमोवेशी ११३

विचारों का आदान-प्रदान १३९

विजयनंदी १२२

विज्ञानवाद का संस्थापक १२०,--का खंडन १२०

विदिशा १०३

विद्याभूषण, एस०--भारतीय न्याय- शास्त्र १२१

विनयपिटक ७४

विवाह-सूचक सिक्के १३४

विवेक और कलछा के थीच घनिष्ट संबंध १३१

विश्वप्रेम की आदशमृति १३५९

विष्ण अकरम्टत्‌ १३८,--चतुभुज १३७, “--का ध्वजस्तंभ १४७

विष्युगोप ३०, ३१

विष्णदास का पुत्र १७४

विष्णुपदगिरि पर विष्णु का ध्वज १७५

विशाखदस १७३,--कालिदास का समकालीन ११६,---च॑द्रगुप्त वि- ऋ्रमादित्य का समकाछीन ११७

थीणांकित सिक्के १३४

वीरसेन १३७,---( शव ) १७१, १७८,

--चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का सचिव ४३,--गुफा उत्सगे की ३०

वृषभदेव, विष्ण के अवतार ११८

बृहजातक १२२

वेक्नी ३०, ३२

वेदु ११८

वेदिकधम और पौराणिकथम १३५९

वेदिक यज्षयागादिक का प्रचार १३७

वैद्य, सी० वी ०--शकारि विक्रमादित्य ४१

वेशाली में गुप्कालीन मिट्टी की मुहर ८७,--की मुद्रा १५३,--- के शासक की सुद्रा ८९

घेशेषिक १२१

व्याप्रराज ३१

ब्याप्रव्धाकित सिक्‍के १३३

ध्यास ११८

हांकराय, ह्षेचरित के दीकाकार १७२

शकमुरंद ३४

शक-संवत्‌ का भ्रचार ४७१,--के बाद गुप्तसंवत्‌ १५९ ,--के धाद बछभी- संचत्‌ १७७

शकों का आचाय १७२

हयरस्वामी, घोरों के मत का खंडन १२०

( ३१९९ )

शरशंद्रदास, तिब्धत के ग्रंथों का अनु- संचान ११५९

शाकऊ ( स्यालकोट ) ३४

शात्तकर्णी, क्षेत्रपवंध का अधिकार नष्ट कर दिया ४६

बाय नास से विश्यात १७८

शाही और धाहानुशाही ३४

शिखरस्वामी १४१, १४४

शिलालेखों में रामगुप्त का उछेख १५४

शिव्पफला के नमूने १२४,--में रचना- सोंदर्य और भावव्यंजना १२७

शिव की भक्ति से प्रेरित १७८

दिह्दुनागवंश

झुत्क गुप्तकालीन थे ११५

झून्यवाद १२०

आंगारप्रकादा ११४

शेक्सपियर का युग ११३

धोनशन (प्रदेश ) का फ्राहियानद्वारा वणन ९५९

श्रीगुप्त, गुप्ततंश का संस्थापक ९,--- का पुश्र ०.--का पड़पोता १७६, “-का राज्यकाछ १०, ११,--- का सिक्‍का १३२

श्रीपवेत

ष्‌ बट पारमिता १४०

पष्टांदायूति ८६

सर संगीत के जाचाये १२८,--कछा का विकास १२८ संक्षोभ के ताम्रपन्न १४८,--में बरुंदेल- खंड के राजा का तास्रशासन ९४ संघभूति, बौद्धश्षमण १०० संजन का ताम्नछेख १७४ संन्यास-माररे-प्रधान १४६९ संस्कृत ( भाषा ) का प्रयोग और प्रभाव १३८,--राष्ट्रभाषा १२८ संस्कृत वाडमव के उत्थापक १०५७, “---बुददेव के समय से गुप्तकार तक १०२,--का विकास-क्रम १०६,--का सुवर्णयुग १०५, १३८ सनसानीक जाति ३४ समतट ३२ समुद्रगुप्त १८१,--ढ्वारा अच्युत, नाग- सेन और कोटकुछ के राजाओं के परास्त किये जाने का उल्लेख २९ ,--भअपनी योग्यता का जगत , को पू्ण परिचय १४७,--अश्वमेध यज्ञ १९, १३७,--अश्वमेध यञ्ञ का अनुष्ठान ९४,--का उत्तरा- थधिकारी १५७५,--का एरण का दिक्ालेख $७१,--“कविराज' २५,--की फीति-पताका १९, “--कुमारदेवी से उत्पल १७० तर

( २०० )

-+-घटोत्कच का पौत्र १७०,-- की “चंत्र प्रकाश” और “बालादित्य' उपाधि ११९, १२०,---चक्रवर्ती सम्राट्‌ नैपोलियन थोनापाट से तुलना १९ ,---ने ज॑ गल के राजाओं को 'चाकर बनाया १६८,---की दक्षिणापथ की विजय-याश्रा ३०, --फा दक्षिणापथ के राजाओं फो पकड़ना १६८,---की दिग्विजय १4६, १७,--का नामांतर १३४३, “-का नाम काच! १३३,--- ने नौ राजाओं को नष्ट कर अपना प्रभाव घढ़ाया १६,--और सेघ- वर्ण १५९,--की पराक्रमाँक उपाधि २७,--के पश्चात्‌ १७२, --का प्रजात॑श्न या गणराज्य से कर वसूछ करना १७,१८,--का प्रतिहँदी नहीं था १$७०,--की पश्राइ्टनीति का विवेचन २३,--- की प्रशस्ति में विजातीय राज्यों का उछेख ३४,--की युद्धयात्रा का कालिदास पर प्रभाव १०९, --का राज्यकाल, विधिध मत ३७,--ल्थ्छिविकुल का दौहिश्न १७०,--ने वाकाटक्घंद का प्रभाव नष्ट कर डाला ३६,--की विजय-मदास्ति १३७,---का

विदेशी राजाओं ने आधिपत्य स्वीकार किया १८,--के विरुद्‌ ३८,--के वीणांकित सिक्के १२८, “-की शासनव्यवस्था, नीति- निपुणता २१,---आरवी र, साहसी और विद्वान २४७, २५,---श्री चंद्र- गुप्त का पुश्र १७० ,--संगीत और काव्य का प्रेमी १०७५,--लंघि- पत्र पर गरुढ़ का चिह्न ९०,-- का सत्पुश्न॒ १७५ ,--सवे राज्यो- सेतसा ३८,---का साम॑ंत १८०, “--ने सिंहरू के राजा की प्रार्थना को स्वीकार किया १८,--के सिक्के १३३,--सिक्कों पर छोक लिखने की परिपाटी का आवि- र्कारकत्तों २९,--की सीमांत राज्यों की विजय ३६२,--पर स्मिथ (विसेंट) की धारणा निर्तांत निराधार २२

सम्यक संबोधि और निवोण १४०

सर विलियम जोन्स १५७

सरस्वत्ती कैंडाभरण ११४

सर्चनाग अँतर्वेदी का शासक ३४५

सांख्य-दशेन पर कारिका १२१

सांख्यकारिका १२१

साँची का शिलाछेख १४२,--के दिकराछेख में घंद्रगुप्त विक्रमादित्य

( ३०३ )

की दानशीछता ९४,९५,--के स्‍्वूप १३१

सामसेतुभदी प, सेतुबंध की दीका ११७

साम्राज्य की स्थापना २१

सारनाथ का अजायबधर १२६

साहित्यिक जनश्रुति १५२

साहित्यिक प्रमाणों की आलोचना १७२

सिंहाचाये १२२

सिकंदर की सेना २,--का पंजाब पर आक्रमण का समय १५६

सिक्कों के आढ विभाग $६३६३,--- चाँदी के दो विभाग १३६७५,--- में रामगुप्त १५५,--पर पंशस्थ छंद १३५,--में शिल्प का कोशल १३६४,--के संबंध का साहित्य ११२१

सिछवन लेवी १७५३,--गुप्तवंश का आरंभ काल १७५९

सीमांतराज्यों की नामावछी ३२

सुकुछिदेश १७७

सुदहेन (झील) का जीर्णोद्धार १४५

सुर्धधु १२०,--न्यायकारों का उल्लेख १२१,--कत वासवदत्ता में विक्र- मादित्य का उब्छेख ६२

सुरश्मिर्चद्र १४७

सुसुनिया का शिलाछेख ३०

सूक्तों का मागे १९६८

सूत्रप्रंथ का निमोण और भाष्य १२२५

सेतुबंधम्‌ $१७,--की टीका ११७५

सेल्युकल ३,--का समकाछीन १७७

सेवेछ १०१

सौमिलल ११५

स्‍्कंदगुप्त १५५,--के उत्तराधिकारी १४६,--की उपाधि १४७,--- का जुनागढ़ के शिकाछेख में उल्लेख ९६,--का दान १४८, --परम भागवत १३७,---का भिटारी का शिलाछेख ११२,-- का राज्यकाल १४४,--ने शत्रुओं को परास्त किया १४५,--- सिंहासन पर बैठा १४४,-- के सिक्कों पर उसकी उपाधियाँ १४३६

स्टीन (डाक्टर ) 87 5&प्रा.श 50शं॥ --ख़ुतान की प्राचीन सझ्रद्धि की खोज ७०,--भारतीयों का उप- निवेश ९९

स्टेन कोनो ( 850॥ ०70ए ) ३४, “-खरोष्ठी शिलाछेख ४२,--- विशञाखदस ओर काछिदास सम- काछोन ११६

स्थापत्यकला १२४

स्मिथ विसेंद ( ए|ं7००॥४ 877४४ ) १२०,१५५ ,--छज्ता की गुफा

( २१२०२ )

१२५९,--अशोकस्त॑ंस १७,--का ऐतिहासिक विवेक १६,-- गुप्त- युग में पांडित्यपूण कृतियों का निमोण १२३,--गुप्तवंश के सिक्के १३१,-- गुप्त-संवत्‌ सं॑त्रगु्त की दूरदशिता ६६,-- च॑द्गुप्त की 'रूपकृती” उपाधि ६२,---चंद्रगुप्तादि के समय में कला १३६०,--प्राची मुद्रा ३३, --भारत और सीछोन का शिल्प

१७५८,--

. १३०,--भिलसा का स्तंभलेख १०३,--वेसुबंधु का आश्रयदाता ११९,--समुद्रगुप्त के आभाक्रमण २२

स्वामिदत्त ६० स्वामि महासेन फा मंदिर १३८ ,.. है

हरप्रसाद शास्त्री “चंद्र'-संबंधी कल्पना निर्मु्ठ ५६,५७,--धाकारि विक्रमादित्य ४१

हरिषेण और काछिदास का रघु- दिग्विजय-व्णणन..._ ११०,---की

प्रयाग के स्तंभ पर समुद्रगुप्त की प्रशस्ति २०,२५,--का संस्कृत शान १०५,--समुद्रगुत्त के आश्वित कवि १४,--सांधिविप्र- हिक कुमारामसात्य १७१

इथेचसरित २५, १०७, ११७५,--में कालिदास का उलछेख १०७,---में गुप्ततंश का अधिकार १४९,--- ॑द्गगुप्त का उल्लेख १५२

हे या हृषेवर्धत २१,--का संबत्‌ १७५८,--के समकालीन कवि १२१,--का साम्राज्य १४९

हस्तिवमों ३०

हस्ती महाराज और उसके पुत्र १४८

हाछ राजा ४०

हिंदू जनश्रतियों के अलुसार ३५९

हिंदू संस्कृति की परमोज्नति के युग

हिंसात्मक कमकांड का प्रतिषाद १३५९

हीनयान, घोद्धधम की काला १३६५९

हुविष्क, कुशनवंशी शाही १०२

हुणों के आक्रमण १४४

हेमर्च॑द्राय चोधरी ३७

हेलियोडोरस ( राजदृत्त ) १०३

हैवेल, हू० थी० का चिन्नकक्ा पद कथन १२५९,---भारतीय तक्षण और खचिन्नकला १३०

द्वेनसांग या हुयेनसांग का थोधगया के मठ का पणेन १८, १९,---के अमण-श्ृ्तात में बोद्ध विहानों फा उल्लेख ११९,--विक्रमादिश्य की दानशूरता ६४

अदक्यकमराराकराकतरुकअाआकापताादबक